साहित्य चक्र

29 September 2025

संस्मरण- सच्चा सफ़र


मेरे छोटे भाई का नाम विकास (विक्की) है, जो मुझसे 2 वर्ष छोटा है। यह बात फ़रवरी 2009 की है। शिक्षा विभाग में मेरी प्रथम नियुक्ति जनपद गोरखपुर में हुई थी। अतः मुझे नई दिल्ली से गोरखपुर की ट्रेन पकड़नी थी। मुझे पहली बार घर से दूर किसी अंजान शहर में रहना था। सारा परिवार मेरे सभी सामान की पैकिंग करने में लग गया। मेरे पास तीन बड़े और भारी बैग हो गए थे। जिनमें मेरे कपड़े, बिस्तर, छोटा गैस सिलेंडर, बर्तन तथा अन्य ज़रूरी सामान था। 





मेरा भाई विक्की मुझे सही सलामत ट्रेन में बिठाने के उद्देश्य से मेरे साथ स्टेशन तक आया। हमने गाज़ियाबाद स्टेशन से नई दिल्ली के लिए लोकल ईएमयू ट्रेन पकडी। उस दिन बदकिस्मती से नई दिल्ली स्टेशन से लगभग ढाई किलोमीटर पहले तिलक ब्रिज रेलवे स्टेशन पर ही ईएमयू ट्रेन को रोक दिया गया। हमें पता चला कि नई दिल्ली स्टेशन पर इंटरलॉकिंग का कार्य चल रहा है, इसलिए यह लोकल ट्रेन और आगे नहीं जाएगी। 

हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करें। क्योंकि रात के समय बाहर आकर किसी अन्य साधन से नई दिल्ली आने में बहुत वक़्त लग जाता। जिससे मेरी गोरखपुर की ट्रेन छूट सकती थी। मेरी पहली नौकरी की चिंता में मेरे भाई ने प्लान बनाया कि पटरी पर ही बैग लेकर दौड़ लेते हैं। 

हमारे पास और कोई चारा नहीं था। विक्की ने अपने कंधे पर दो बैग लिए पर उसने मुझे एक ही बैग उठाने दिया। रात के अंधेरे में हम दोनों पटरी पर दौड़ते-दौड़ते, हाँफते हुए, ठंड में भी पसीने से लथपथ नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँच गये। कुछ ही देर में मेरी ट्रेन आ गई और मैं ट्रेन में चढ़ गया। 

मैंने खिड़की से अपने भाई के चेहरे पर मेरे लिए पूर्ण समर्पण और अपनापन देखा। अब मुझे मन ही मन यह चिंता सताने लगी कि ये वापस गाज़ियाबाद कैसे जाएगा। उसने कहा मेरी फिक्र मत करो, मैं घर पहुंच जाऊँगा। बस तुम वहाँ अपना ध्यान रखना। जैसे ही मेरी ट्रेन चलने लगी हम दोनों की आँखों से आँसू निकलने लगे। 

उस समय इतना ज़्यादा मोबाइल फ़ोन या इंटरनेट का ज़माना नहीं था परन्तु एक दूसरे के लिए सच्चा प्रेम कई गुणा अधिक था। आज जब मेरा भाई इस दुनिया में नहीं है, तब भी मेरी नज़रें उसे हर जगह तलाश करतीं रहतीं हैं।


                                        - आनन्द कुमार / गाज़ियाबाद, उप्र




संस्मण- मेरे दादू नित्यानंद जी

नमन जयदीप! सर्व प्रथम तो आपके पटल को स्थापना दिवस की भूरी भूरी बधाई।


"देखी कितने ही पटल, पर आपसा नाहि कोई।"


जैसा की आप सभी सुधि जनों को ज्ञात है कि मेरे दादू नित्यानंद चटर्जी एक स्वदेश प्रेमी थे तो उन्हीं की पत्नी मेरी दादी मृणालिनी चटर्जी का देश के प्रति मौन समर्पण मेरी स्मृतियों में एक दैदीप्यमान चारित्रिक दृढ़ता की भांति छाया हुआ है।






दादू की अपेक्षा मेरी दादी के साथ बिताए गए पल ज्यादा स्पष्ट रुप में परिलक्षित है, क्योंकि उनके समय में मै एम ए कर रही थी, बड़ी थी उन्हीं के मुख से मैं अपनी दादू की कहानी सुनती रहती थी। बैभव की चमक भले ही उनके चेहरों पर दिखाई नहीं देती थी पर चारित्रिक दृढ़ता एवं त्याग की मूरत थी वह। उनके बेटे अर्थात मेरे ताऊ, चाचा,आदि उनको दोषारोपण करते थे, उनके गहनों को देश के प्रति न्यौछावर करने के लिए तो वह मुझे कहतीं थी यह नासपीटे क्या जाने देश प्रेम की ललक क्या होती है।

मेरी दादी डायरी लिखती थी बंगला भाषा में जिसे मै ही पढ़ पाती थी, क्योंकि बंगला भाषा लिखने पढ़ने का ज्ञान मेरे चाचा, ताऊ यहां तक की मेरे पिता जी को भी नहीं था। मैंने बंगला भाषा अपनी मां से ही सीखा था।

मेरी दादी ने बंगला भाषा में पूरा रामायण लिखा था,वह जो लिखती थी उसमे हृदय के उन त्रासदियों का जिक्र होता था जिसमें उनके अभाव के साथ साथ एक दृढ़ इच्छाशक्ति एंव मां की ममता की पीड़ा भी परिलक्षित था,वह भाव उस दर्द ने मेरे सुकोमल मन को इतना प्रभावित किया कि मैं स्वयं लेखनी की संगिनी बन गई।

मेरा मन तो आज भी यह कहता है कि दादू से श्रेष्ठ मेरी दादी थी जिन्होंने दादू के देश प्रेम को अक्षुण्ण रखने के लिए अपनी अभावों की आंच भी उनको अनुभव नहीं करने दिया, वह एक जज की बेटी थी अभाव से उनका कोई नाता नहीं था,पर दादू के देश प्रेम में उन्होंने वह सब कुछ सहा जो किसी भी साधारण स्त्री के लिए संभव नहीं था।

वह बंगला में अपनी डायरी लिखती थी डायरी में एक वाक्या का जिक्र किया था जिसे मैं आप लोगों से साझा करना चाहती हूं। जब तीसरी बार मेरी मां ने मुझको गहने बनवाकर दिए और कहा तुझे मेरी सर की कसम, अब तू ये गहने बेचेंगी नहीं। तब मेरा जवाब था, मेरे घर में चूल्हा न जले और मैं गहना पहन कर घूमूं, यह मुझसे न होगा मां, ले लो तुम अपने गहने मुझे नहीं चाहिए तुम्हारे ये गहने।

भले ही तुम्हें दिखाई न पड़े मां पर मैं सर से पांव तक देश प्रेम की अनमोल गहने से लदी हूं, इसके आगे मुझे और कुछ नहीं चाहिए। उनके अंतिम संस्कार के बाद मैंने बहुत ढूंढा उनकी वह डायरी, पर पता नहीं किसने ली उस समय मैं उतनी बड़ी भी नहीं थी कि उस डायरी के लिए सबसे जिरह करूं। मेरी दादी पान की बहुत शौक़ीन थी अतः जब भी पान की तलब लगती थी मुझे ही कहती थी,रत्ना एक पान लगा दे, मैं पान लगा कर उसे कूट कर देती थी कारण दांत कमजोर होने के कारण वह चबा नहीं पाती थी।

वह अक्सर यह कहती थी पान लगाना भी एक कला है जो अच्छा पान लगाना जानता है समझो वह खाना भी अच्छा बना लेगा। धन्यवाद जयदीप पत्रिका को जिनके कारण मैं अपनी महान दादी की स्मृतियों को संजो सकीं।


- रत्ना बापुली / लखनऊ, उप्र



संस्मरण- शहद पानी में गिर गया

 

बात लगभग चालीस वर्ष पहले की है। मैं व मेरे पिताजी खेतों में अपने थ्रेशर से गेहूं की गहाई कर रहे थे। खेतो के साथ लगते नाले में कुछ पेड़ों पर जंगली मधुमक्खियाँ हर वर्ष बैठती थी।






हमने भी शहद निकालने की सोची। मैंने अपनी कक्षा के एक लड़के को नजदीक से शहद निकालते देखा था तथा मुझे सब याद था कि उसने क्या क्या किया था।रात को मैं और पिता जी शहद निकालने चल पड़े। मेरे एक हाथ में जलता हुआ उपला था जिससे धुआँ निकल रहा था तथा दूसरे हाथ में छुरी थी तथा पिता जी ने टॉर्च व तसला पकड़ रखा था जिसमें शहद निकालना था।

हिम्मत बटोर कर मैं पेड़ पर चढ़ गया तथा मधुमक्खियों को धुआँ दे दिया जिससे उन्होने शहद वाली जगह खाली कर दी। पेड़ एक ढलान पर था तथा उसके नीचे खड़े होने के लिए स्थान नहीं था। अत: पिता जी ने एक हाथ से पेड़ को पकड़ा व दूसरे हाथ पर तसले को थाम लिया जिससे शहद सीधा तसले में गिरे, लेकिन जैसे ही मैंने शहद से भरे छते को काटा तो शहद का एक बड़ा सा टुकड़ा तसले के किनारे पर पड़ा और तसला हाथ से छूट कर 50 फुट नीचे नाले में चला गया।


बचा हुआ शहद छते में से टिप टिप नीचे गिर रहा था। मैं पेड़ से नीचे उतरा और टॉर्च की रोशनी में नीचे नाले में उतरा। वहाँ देखा कि तसला पानी के ऊपर तैर रहा था लेकिन शहद पानी में चला गया था। हमारी सारी मेहनत बेकार हो गई थी !लेकिन फिर भी हमने कुछ शहद उस तसले में दोबारा इककठा कर लिया। मुझे बहुत हंसी आ रही थी। आज पिता जी तो नहीं हैं लेकिन उनके साथ बिताए वो पल बहुत याद आते है।


- रवीन्द्र कुमार शर्मा / बिलासपुर, हिप्र



संस्मरण- तैरना नहीं आया


बात उस समय की है जब मेरी उम्र दस-ग्यारह वर्ष की रही होगी और मैं छठी या सातवीं कक्षा का विद्यार्थी था। बरसात के दिनों में पाठशालाओं में जुलाई महीने की पहली तारीख से लेकर अगस्त महीने की इकत्तीस तारीख तक दो महीनों की छुट्टियाँ रहती थी। इन महीनों में बरसात का मौसम होता है। स्कूल से छुट्टी का मतलब पूरी मस्ती और आज़ादी। और अगर यह छुट्टियाँ दो महीनों की हो तो फिर तो मस्ती की कोई सीमा नहीं रहती।





रात को अपनी मर्ज़ी से सोना, सुबह अपनी मर्ज़ी से जागना। हाँ ,पढ़ने के लिए मां-बाप, दादा-दादी या अन्य परिवार जन जरूर टीका-टिप्पणी करते। बरसात का मौसम मतलब पानी ही पानी। घर से बाहर निकलते ही पानी से भीगना, खेलना और मस्ती करना शुरू हो जाता था। हमें भी उस बर्ष बरसात की छुट्टियाँ हुई थी।

हर दिन बारिश में नहाना, पानी को रोक कर बाँध बनाना, बहते हुए पानी के साथ तरह-तरह के खेल जैसे कागज़ की किश्तियाँ चलाना, आम की गुठली के अंदर से कोआ (आम की गुठली के बीच का नरम भाग) निकाल कर उससे पनचक्की बनाना और उस पनचक्की पर कद्दू (एक सब्जी का नाम) की बेल जो कि अंदर से खोखली होती है और प्लास्टिक की बनी पाईप की तरह होती है और उससे अपने बनाये छोटे से बाँध से पानी गिराना और उसे घूमते हुए देखकर खूब हल्ला-गुल्ला करना।

गाँव में पशु पालन भी होता है। गाय, भैंस, भेड़ और बकरियों के लिए घर वालों की खूब डांट-डपट के बाद घास को उठाकर लाना। पूरा दिन ऐसे ही कामों में गुजर जाता और पढ़ने का काम तो सिर्फ तब ही कुछ देर के लिए होता जब मां-बाप से पिटाई की नौबत आ जाती।

बरसात के मौसम में नदी, नाले और तालाब सब पानी से सराबोर हो जाते हैं और नहाने और तैराकी करने का खुला आमंत्रण देते हुए प्रतीत होते हैं। मेरे गाँव से थोड़ी ही दूर एक खड्ड बहती है। ऐसे तो इसमें बर्षभर हल्का- फुल्का पानी रहता था, लेकिन बरसात के मौसम में इसमें खूब पानी हो जाता था।

गाँव के सभी लड़के अपनी-अपनी टोलियाँ बनाकर घरवालों से चोरी-छिपे उस खड्ड में नहाने को निकल जाते फिर घंटों वहां नहाने का मज़ा लेते और तब तक घर वापिस नहीं आते जब तक घर वालों का सन्देश उन तक नहीं पहुँच जाता या फिर घरवाले खुद उनको ढूंढते हुए खड्ड तक नहीं पहुँच जाते। फिर गाँव में उन लड़कों के नाम का खूब बखान हर घर में होता कि लाख समझाने के बाद भी खड्ड में नहाने चले गये।

फिर पहले घटी कई घटनाओं की कहानियां सुनाई जाती कि कैसे कौन-कौन लड़के उस खड्ड में नहाते हुए डूब गये थे और मौत का शिकार हो गये थे। मैं भी नहाने के लिए बहुत लालायित रहता था लेकिन मेरी मां इतनी सख्त थी कि मैं गाँव में भी खेलने निकलता था तो कई बार घर से आवाज़ पड़ जाती थी।

ऐसी स्थिति में खड्ड तक नहाने जाना मतलब अपने ही पाँव पर कुल्हाड़ी मारने के समान था। छोटी से छोटी गलती पर पिटाई होना आम बात थी। ऐसे में यदि कहीं गलती से भी खड्ड की ओर कदम बढ़ जाते तो फिर बच पाना नामुमकिन था। डर के मारे मैं बारिश में भीग कर ही नहाने का आनंद ले लिया करता था।

हालाँकि मेरे हम उम्र लड़के मुझे चिड़ाते भी बहुत थे कि तू डरता ही बहुत है। हम भी तो चुपचाप निकल लेते हैं और हमने तो तैरना भी सीख लिया है। अंदर ही अंदर बहुत मन कचोटता लेकिन मां की पिटाई और सख्त हिदायत को अनदेखा करने का साहस नहीं जुटा पाता था। हाँ मौके की तलाश में जरूर रहता था कि कोई तो ऐसा दिन हो कि मां घर पर नहीं हो और मैं भी खड्ड के अलौकिक स्नान का आनंद प्राप्त करूं।

सब्र का फल मीठा होता है ऐसा मैंने सुना था और समझ में तब आया जब एक दिन मेरी दादी मां बीमार हो गई और मेरे पिता जी घर में नहीं थे। दादी मां की हालत बहुत ज्यादा खराब हो गई थी। मां ने फैसला किया कि वो दादी मां को अपने आप ही पांच किलोमीटर दूर अस्पताल में डाक्टर को दिखाने ले जाएँगी।

मां की इस बात को सुनकर मेरा मन बाग-बाग हो रहा था। मुझे लग रहा था जैसे कोई वर्षों पुरानी मन्नत पूरी होने जा रही थी। मां जैसे ही दादी को लेकर घर से निकली मुझे बहुत सी हिदायतें दी गई। मैं भी हाँ में हाँ मिलाता गया। जैसे ही वे दोनों आँख से ओझल हुईं मैं अपनी टोली संग भागता हुआ खड्ड के पास पहुँच गया। नहाने का सिलसिला चल पड़ा। सभी लड़के तैर रहे थे लेकिन मुझे तैरना नहीं आता था।

सब मुझे डरते हुए नहाते देखकर मेरा मजाक बना रहे थे, लेकिन मैं उनकी बातों से बेखबर नहाने का आनंद ले रहा था। बीच-बीच में मां की हिदायतें भी याद आ रही थी, लेकिन खुद को मन ही मन हौंसला देता था कि अभी तो वे शाम तक ही आएँगी।

तब तक तो मैं घर जा कर पढ़ने बैठ जाऊंगा, लेकिन इस परमानंद में समय कब निकल गया पता ही नहीं चला। मां और दादी घर भी आ गई और मुझे घर में न पाकर वो लाल-पीली हो गई थी। उनको किसी ने बता दिया था कि मैं खड्ड में नहाने को लड़कों की टोली संग चला गया था। पता लगते ही मां ने हाथ में एक लम्बी पतली छड़ी ली और खड्ड की ओर रवाना हो गईं।

मैं मस्ती में भूल गया था कि अब तक मां आ गई होंगी। मां को बाकि लड़कों ने देख लिया होगा वे चुपचाप एक-एक करके पानी से बाहर निकलते रहे और इधर-उधर भागते रहे। जब तक मुझे बात समझ आई तब तक मेरी मां वहां पहुँच गई थी, जहाँ से मैंने पानी से बाहर आना था।

बस फिर क्या था कितनी देर तक अंदर रहता जैसे ही बाहर आया मैं कपड़े भी नहीं पहन पाया। शरीर पर बस चड्डी पहनी हुई थी। लम्बी-पतली छड़ी जैसे ही शरीर पर पड़ती वो ऊपर से नीचे तक निशान छोड़ रही थी। कपड़े भी पड़े हुए रह गये और मैं जैसे-तैसे वहां से छूटकर भागा और घर तक नंगा ही दौड़ता हुआ आ गया।

फिर जब मां मेरे पीछे-पीछे घर पहुंची तो खड्ड में नहाने के आनन्द की पूरी कीमत डांट और पिटाई से वसूल की गई। उस दिन के बाद मैं मौका मिलते हुए भी खड्ड में नहाने नहीं गया, लेकिन मुझे आज भी इस बात का दुःख कभी-कभी जरूर होता है कि मैं उस समय पानी में तैरना नहीं सीख पाया और आज भी मुझे तैरना नहीं आता है।


- धर्म चंद धीमान

संस्मरण- लोकगीत ह‌मारी विरासत हैं!

स्नेह का सच्चा बन्धन तो दादी और नानी के साथ ही होता है। लोग कहते भी हैं- "मूल से ज़्यादा सूद प्यारा होता है।" यह कथन नानी और दादी जी पर सटीक बैठता है। वस्तुतः जो समय बच्चों के परवरिश का है वही समय आर्थिक पक्ष को समृद्ध करने व विभिन्न दायित्वों का भी होता है।





आज के समय जब एकल परिवार अधिक हो गए हैं, तब बच्चों की परवरिश एक समस्या के रूप में उभरकर आयी हैं। संयुक्त परिवार में बच्चा कब बड़ा हो गया, इसका आभास भी नहीं हो पाता था क्योंकि उसमें संस्कार-वपन का कार्य तथा मार्गदर्शन का उत्तरदायित्व घर के लोगों विशेषकर बड़ों का होता है। इस परवरिश में बच्चे अपनी संस्कृति से और लोक परम्पराओं कहीं बातों तो कहीं कहानियों के माध्यम से कब जुड़ जाते थे पता ही नहीं चलता था।

मुझे गर्व है कि मैं ऐसी ही पीढ़ी से आती हूँ जो अपने दादा-दादी और नाना-नानी के स्नेह की छाया-तले पले-बढ़े हैं। गर्मी की छुट्टियाँ अपने साथ ढेर सारी कहानियों, विवाह के समारोह और खेलों का अम्बार लाती थीं। उन विवाह आयोजनों में लोक परम्परागत वैवाहिक गीत भी होते थे।

मुझे अवधी भाषा के गीत पूरी तरह से समझ नहीं आते थे तो एक बार मैंने उत्सुकतावश नानीजी से पूछा कि आप लोग एक ही धुन में धीरे-धीरे ये क्या गाती हैं? देवीगीत के बाद सीधे बन्ना- बन्नी क्यों नहीं गाती हैं? नानी ने बताया, "बेटा, इन पचरों (वैवाहिक गीतों) के माध्यम से हम अपने कुल के लोगों का नाम स्मरण रखते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाते हैं। आने वाली पीढ़ी को वंशावली से जोड़ते हैं।"

उस दिन नानी की बातों से मुझे अपने बड़े- बुजुर्गो की दूरदर्शिता का संज्ञान हुआ व लोकगीतों के महत्त्व का पता चला।


- डॉ० उपासना पाण्डेय / प्रयागराज, उप्र



संस्मरण- बचपन का हसीन किस्सा


कैसे बयां करूं! अपने आंसुओं को इस लेख में, क्योंकि मैंने तो यह सब रिश्ते बहुत पहले ही खो दिए हैं। नाना-नानी, दादा-दादी, तो दूर की बात मैंने तो अपने मां-बाप को भी वक्त से पहले खोया हुआ है। फिर भी आज मैं अपना एक हसीन और ताउम्र याद रखने वाला किस्सा जयदीप पत्रिका के माध्यम से बताना चाहती हूं।





मैंने अपने नाना-नानी को कभी देखा नहीं पर अक्सर अपनी अम्मा जी से उनकी बातें सुनती थी। मेरा कोई ज्यादा अनुभव नहीं, पर एक छोटा-सा हसीन वाक्य अपनी जिंदगी का मेरी अम्मा जी की ताई (जिसने मेरी अम्मा जी को पाला था) के साथ जो हुआ था वह आज यहां बताऊंगी।

मैं बहुत छोटी थी, तीसरी कक्षा में पढ़ती थी। बहुत पुरानी बात है, मैं यह सोचती थी कि जिनको चश्मा लगा होता है उनको बिल्कुल नहीं दिखता है, मुझे सच में ही इसके बारे में ऐसा ही पता था कि जो बूढ़ा व्यक्ति चश्मा लगाता है, उसको बिल्कुल भी दिखाई नहीं देता है।

एक दिन मुझे घर में एक ऐसा सिक्का मिला जिसको खोटा सिक्का कहते थे और उस सिक्के को लेकर एक ननिहाल में दुकानदार थे उनकी दुकान पर वह ₹1 का सिक्का लेकर चली गई। उस वक्त ₹1 की बहुत-सी खट्टी-मीठी गोलियां मिलती थी, जो खाने में बहुत ही स्वादिष्ट होती थी। मैंने उस दुकानदार से खाने की खट्टी-मीठी गोलियां मांगी और एक हाथ में वह खोटा सिक्का रखा था जो चलता नहीं था।

एक हाथ से वह सिक्का दिया और दूसरे हाथ से मैंने वह गोलियों का लिफाफा लिया और झट से दुकान से निकल गई। पर जैसे ही उस दुकानदार ने वह खोटा सिक्का देखा, तो वह मेरे पीछे दौड़ा। मैं आगे दौड़ी और दुकानदार मेरे पीछे दौड़ा। पर मैं उनके हाथ ना आई और दूर जाकर बहुत बुरी ढंग से गिरी। मेरी सारी गोलियां इधर-उधर बिखर गई और मेरी टांग में चोट लग गई।

मैं बहुत रोई और मेरी सारी गोलियां जिनके लिए मैंने यह सब चालाकी की थी, वह भी मेरे पास नहीं रही। पर मैं उस दुकानदार के हाथ में नहीं आई उठी और फिर दौड़ती हुई चली गई। शाम को वह दुकानदार मेरी चालाकी की शिकायत लेकर हमारे घर मेरी नानी के पास पहुंच गया।

मैं दोपहर के बाद लंगडी चल रही थी क्योंकि, मुझे सुबह गिरने से लगी थी, पर मैंने किसी को नहीं बताया था कि मुझे क्या हुआ है। जैसे ही नानी ने मुझे बुलाया की आपने ऐसा किया, तो मैंने अपने नानी से सच कह दिया कि मुझे ऐसा ही पता था कि चश्मा लगे हुए व्यक्तियों को नहीं दिखता और इसलिए मैंने यह सब किया।

नानी ने उस दुकानदार को एक रुपया दिया और कहां की कोई बात नहीं बच्चे ऐसा कर देते हैं। उनके सामने नानी ने मुझे इतना ही कहा कि ऐसा नहीं करते और आज के बाद कभी ऐसा मत करना। फिर अगले दिन नानी मुझे ₹2 की वैसी ही गोलियां खट्टी-मीठी ले आई और मुझे दे दी और समझाया कि आज के बाद कभी ना झूठ बोलना, ना कभी चालाकी करना।

यही शब्द मेरे लिए आज तक वैसे ही है, नानी तो चली गई पर उनके दिए हुए ये दो सच्चाई और ईमानदारी शब्द मेरे लिए उनकी विरासत बन गई। भले ही वो आज इस दुनिया में ना हो, मगर उनकी यादें मेरी जिंदगी में हर पल मेरे साथ है।यही मेरा एक छोटा-सा अनुभव मेरी नानी के साथ रहा। मैंने अपने जीवन का एक छोटा-सा किस्सा जयदीप पत्रिका के माध्यम से आप सभी के साथ साझा किया।


- रेखा चंदेल / विलासपुर, हिप्र




संस्मरण- शहद की चोरी


यह बात उस समय की है जब मैं चौथी कक्षा की छात्रा थी। मेरे पिता जी शिमला शहर में नौकरी करते थे। पिता जी छुट्टी के घर आये थे और खाने- पीने की बहुत सी चीज़ें भी अपने साथ लाये थे। जिनमें मिठाइयां, फल और दूसरी वस्तुएं शामिल थी। लेकिन मुझे जो सबसे अच्छी चीज़ लगी थी, वह थी वहां के स्थानीय लोगों के द्वारा मधुमक्खियों के छत्तों से निकाले गये शहद से भरी हुई शीशे की बोतल। पिताजी के आने के बाद मिठाई, दूसरी सभी चीज़ें और फल खाने को मिले, लेकिन मेरी नजर उस शहद की बोतल से नहीं हट रही थी। जब मुझसे रहा नहीं गया तो मां से शहद की मांग कर ली।






खाने में इतना स्वादिष्ट लगा कि मां के द्वारा दिए हुए से मन ही नहीं भरा, एक बार फिर मांग लिया फिर भी लालच बढ़ता गया और तीसरी बार मांगने पर शहद तो नहीं मिला लेकिन डांट जरूर पड़ गई। मां ने सारा सामान अपनी-अपनी जगह पर रख दिया और शहद की बोतल को भी एक कमरे की अलमारी में रख दिया। मैंने उनको रखते हुए देख लिया और चुपचाप वहां से निकल गई। रात को सभी सो गए मैं धीरे से अलमारी के पास गई और बोतल को निकल कर थोड़ा शहद खा कर सो गई। अगले दिन भी स्कूल से घर आकर जब भी मौका मिला थोड़ी- बहुत शहद का मज़ा लेती रही।


फिर अगले तीन चार दिन तक यही सिलसिला चलता रहा और जब मैंने ध्यान से बोतल को देखा तो शहद की बोतल आधी से भी नीचे आ गई थी। अब मैं डर गई थी कि जैसे ही मां इस बोतल को आधे से ज्यादा खाली देखेगी तो फिर दोषी तो मैं ही सिद्ध हूँगी। फिर मेरा क्या होगा ?

बस इसी डर के मारे कुछ और नहीं सूझा और मैं रसोई में गई चीनी के डिब्बे से कटोरी में चीनी ली और आकर बोतल में डाल दी। फिर पानी का गिलास लाया और उसमें डालकर ढक्कन को बंद करके बोतल को अलमारी में रख दिया। फिर उस तरफ गई ही नहीं। अगले दो दिन बाद पिता जी ने वापिस अपनी नौकरी को चले जाना था। मां ने उन्हें बोला कि अगले कल पंडित जी को बुलाकर पूजा करवा लेते हैं। अगली सुबह पंडित जी आये और एक-एक करके पूजा की सामग्री इक्कट्ठी की जाने लगी।

शहद लाने को भी खा गया। मां अलमारी की ओर गई और जैसे ही बोतल पर उनकी नजर पढ़ी, व्बो हैरान हो गई। मुझे आवाज़ लग गई और बहुत लाड प्यार से मुझसे सच उगला लिया गया और फिर पहले छड़ी से मेरी ही पूजा शुरू हो गई। शोर सुन पिता जी आ गये और सारी बात सुन कर मां से मुझे छुड़ाकर अपनी गोदी में पकड़ लिया। और कहने लगे तुझे शहद इतना ही पसंद है तो यूँ छुपकर क्यूँ खाया। मांगकर खा लेती। कोई बात नहीं मैं आपके लिए एक और बोतल ले आऊंगा।


- लता कुमारी धीमान





संस्मरण- संघर्ष, सेवा और सफलता की अमर दास्तान


यह कोई कहानी नहीं बल्कि हक़ीक़त है, एक ऐसी हक़ीक़त जो बताती है कि अगर इरादा पक्का हो, तालीम (शिक्षा) की रोशनी को पकड़े रखा जाए और मेहनत व सब्र (धैर्य) का सहारा लिया जाए तो गरीबी और मुश्किलें इंसान का रास्ता नहीं रोक सकतीं।




यह दास्तान है मुश्ताक अहमद और उनकी पत्नी सलमा शाह की, जिनका जीवन कम उम्र की शादी, तंगहाली, ज़िम्मेदारियों और संघर्ष से शुरू हुआ लेकिन उन्हीं कठिनाइयों के बीच से उन्होंने अपने परिवार को कामयाबी तक पहुँचाया और खुद भी समाज के लिए मिसाल बन गए।कम उम्र में शादी हुई, न पढ़ाई पूरी हुई थी, न साधन थे, न रोज़गार। माता-पिता की विरासत में मिला सब कुछ सिर्फ़ संघर्ष और गरीबी था। लेकिन शादी के बाद मुश्ताक और सलमा ने यह ठाना कि वे अपनी पढ़ाई अधूरी नहीं छोड़ेंगे।

दिनभर की जिम्मेदारियाँ निभाते, रात को दूसरों के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर कुछ पैसे कमाते और फिर देर रात तक खुद पढ़ाई करते। नींद और आराम छिन गए, मगर तालीम (ज्ञान) की प्यास और मक़सद (लक्ष्य) ने उन्हें टिकाए रखा। मुश्ताक अहमद ने हार नहीं मानी और बी.एड. की डिग्री हासिल की, इसके साथ ही नेचुरोपैथी की डिग्री भी पूरी की और आगे चलकर आयुर्वेद की तालीम भी प्राप्त की। फार्मेसी की पढ़ाई भी अधूरी न रही,दूसरी तरफ़ सलमा शाह ने भी अपना सपना पूरा किया, उन्होंने शहर जाकर ग्रेजुएशन और पढ़ाई की।


पॉलीटेक्निक कॉलेज से संबद्ध होकर गांव की महिलाओं बच्चियों को सिलाई कढ़ाई की शिक्षा भी दी,उस दौर में खर्च इतना तंग था कि इन दोनों ने अपने खर्चे खुद उठाए, अक्सर रातों की नींद बेचकर शिक्षा का उजाला थामा।संघर्ष की इस डगर पर चलते हुए मुश्ताक अहमद ने कई नौकरियाँ भी कीं। वे सबसे पहले ग्रामीण विकास विस्तार अधिकारी (बलड़ी, जिला खंडवा) बने।

इसके बाद उन्होंने शिक्षा की दुनिया में कदम रखा और उर्दू माध्यमिक शालाबलड़ी में प्रधान पाठक की जिम्मेदारी निभाई। अपनी मेहनत और लगन से वे आगे बढ़े और ज्ञानदीप हायर सेकेंडरी स्कूल, मगरधा (जिला हरदा) में प्राचार्य बने। यह सब केवल रोज़गार नहीं था बल्कि समाज में शिक्षा और जागरूकता फैलाने का उनका मिशन था।

आज भी उनका वर्तमान पेशा चिकित्सा सेवा है, जहाँ वे लोगों की तंदुरुस्ती के लिए काम कर रहे हैं और समाज की बीमारियों को दूर करने में अपने तजुर्बे और ज्ञान के सहारे योगदान दे रहे हैं।शादी के बाद परिवार बढ़ा और छह बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारियाँ जुड़ीं। हालात बेहद कठिन थे, लेकिन मुश्ताक और सलमा ने अपने बच्चों को वही सबक सिखाया जो उन्होंने खुद जिया ,मेहनत, ईमानदारी, सब्र और तालीम की अहमियत।

यह उनके संस्कार ही थे कि गरीबी में पले हुए बच्चे डॉक्टर, डेंटल सर्जन और फार्मासिस्ट बने।बड़ी बेटी नीलिमा ने BDS किया और एक कुशल डेंटल सर्जन बनीं। बेटे समीर ने भी BDS कर डेंटिस्ट के रूप में कार्यभार संभाला। साथ में pharmacist भी हैं समीर,तीसरी संतान बेटी रिज़वाना ने BHMS (होम्योपैथी) में डॉक्टरी की डिग्री हासिल की और खुद का मेडिकल स्टोर भी खोला pharmacist भी हैं।


रिज़वाना।बेटा ज़ुबैर ने BAMS (आयुर्वेद) कर आयुर्वेदिक चिकित्सक के रूप में समाज को सेवा दी।बेटी आरज़ू ने भी BAMS (आयुर्वेद) किया और लोगों की निरंतर सेवा में लगी हैं। सबसे छोटा बेटा अमन फार्मासिस्ट है, और फिलहाल NEET की तैयारी कर रहा है ताकि MBBS की पढ़ाई कर आधुनिक चिकित्सा में अपना योगदान दे सके।

एक-एक बच्चे की यह सफलता माता-पिता के त्याग, सब्र और लगातार संघर्ष का नतीजा है।इसी बीच सलमा शाह ने भी घर-परिवार से आगे जाकर समाज सेवा की राह पकड़ी। वे आशा सुपरवाइज़र बनीं और गाँव-गाँव जाकर स्वास्थ्य जागरूकता, प्रसूता माताओं और नवजात बच्चों की देखभाल, महिलाओं का मार्गदर्शन करने में अग्रणी रहीं। उनके सेवाभाव ने उन्हें पूरे समाज में पहचान और सम्मान दिलाया।

उन्हें आज एक जागरूक महिला, सेवाभाव की मूर्ति और त्याग की मिसाल के रूप में जाना जाता है।दूसरी तरफ़ मुश्ताक अहमद ने सिर्फ़ शिक्षा और नौकरियों तक खुद को सीमित न रखते हुए व्यावसायिक तौर पर भी कदम रखा। उन्होंने मेडिकल स्टोर खोला और दवाइयों के व्यापार के साथ स्वास्थ्य सेवाओं में लोगों को सस्ती और सही दवाइयाँ उपलब्ध कराईं। मज़दूरी और तंगहाली से गुज़रे इंसान ने जब लोगों को दवाइयाँ दीं तो यह सिर्फ़ व्यापार नहीं बल्कि सेवा का काम था।इतना ही नहीं, मुश्ताक अहमद एक बेहतरीन लेखक भी बने।

उनके संघर्ष और जज़्बात उनकी कलम में ढलकर किताबों, कविताओं, ग़ज़लों और लेखों के रूप में सामने आए। उनकी लिखी रचनाएँ समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होती हैं। उनमें दर्द, उम्मीद, जद्दोजहद और सबक़ की सच्ची तासीर है।


उन्हें पढ़कर लगता है जैसे हर पंक्ति उनके जीवन का क़िस्सा सुना रही हो।आज मुश्ताक और सलमा शाह का परिवार खुशहाल है। उनकी मेहनत और त्याग से उनके बच्चे डॉक्टरी और फार्मेसी की दुनियाँ में समाज की सेवा में लगे हैं। सलमा शाह आशा सुपरवाइज़र होकर महिलाओं और बच्चों की सेवा से समाज का मान बढ़ा रही हैं।

मुश्ताक अहमद एक ओर चिकित्सा सेवा और व्यवसाय के जरिए लोगों को राहत पहुँचा रहे हैं तो दूसरी ओर अपनी कलम से समाज को विचार और सबक़ दे रहे हैं।यह दंपति आज इस बात की जीवित मिसाल है कि हालात कितने ही कठिन क्यों न हों, अगर सब्र, मेहनत और तालीम का सहारा लिया जाए तो इंसान अपनी तक़दीर खुद बदल सकता है।


उनके संघर्ष और कुर्बानी ने साबित कर दिया कि गरीबी,मंज़िल नहीं, बल्कि जद्दोजहद के सहारे इज़्ज़त और कामयाबी की राह बनाई जा सकती है। मुश्ताक अहमद और सलमा शाह की यह दास्तान हमेशा याद रखी जाएगी,यह सिर्फ़ एक परिवार की कहानी नहीं बल्कि पूरी कौम के लिए एक रोशन चिराग़ है जो आने वाली नस्लों को राह दिखाती रहेगी।


- डॉ. एम. ए. शाह




पत्रकारों की हत्याएं, लोकतंत्र पर कलंक!


बीते कुछ वर्षों में भारत में जिस हिसाब से पत्रकारों की हत्याओं के मामले सामने आए हैं, वह बेहद गंभीर, चिंताजनक और भारतीय लोकतंत्र पर कलंक है। कभी बिहार, कभी उत्तरप्रदेश, कभी छत्तीसगढ़ तो कभी झारखंड में और अब उत्तराखंड के उत्तरकाशी में एक पत्रकार की हत्या का मामला सामने आया है। आखिर लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की सुरक्षा की जिम्मेदारी किसकी ?






एक पत्रकार अपनी जान हथेली में रख कर जनता की समस्याओं और मुद्दों को हम सब के सामने लेकर आता है और हमें दिखता है कि हमारे समाज में कौन-कौन सी बुराइयां आज भी मौजूद है और कहां-कहां विकास पहुंचा है और कहां-कहां विकास इंतजार कर रहा है।

पत्रकारिता में कोई यूं ही नहीं आता हैं बल्कि देश के प्रति कुछ कर गुजरने का जुनून सवार होता है। मामूली सी वेतन में एक पत्रकार नौकरी कर लेता है। सिर्फ इसलिए क्योंकि उसे देश व बेहतर समाज का निर्माण करना है। पत्रकारों की ईमानदारी और कार्य कौशल राजनेताओं और पूंजीपतियों की हकीकत समाज के सामने लाती है।

ईमानदारी और निष्पक्ष पत्रकारिता एक पत्रकार के लिए तब खतरनाक हो जाती है, जब पत्रकार किसी नेता, उद्योगपति और प्रशासन के दबाव में नहीं आता है या पत्रकार को कोई खरीद नहीं पाता है। इसी कारण पत्रकार उन सभी को अपना दुश्मन बना लेता है जो उसे खरीदना चाहते हैं या दबाना चाहते हैं या फिर चुप करना चाहते हैं।





भारत को लोकतंत्र का सबसे बड़ा मंदिर कहा जाता है या माना जाता है और इस सबसे बड़े मंदिर में लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को नेताओं, उद्योगपतियों, बाहुबलियों और प्रशासन द्वारा आए दिन खोखला किया जा रहा है। एक भारतीय नागरिक और पत्रकार होने के नाते मुझे यह कहने में कत‌ई शर्म नहीं है कि पत्रकारों की हत्याएं हमारे भारतीय लोकतंत्र पर कलंक है।

अब समय आ गया है कि राज्य और केंद्र सरकार को पत्रकारों की सुरक्षा के लिए गंभीरता से सोचना चाहिए‌ अन्यथा वह दिन दूर नहीं होगा जब पत्रकार भी अपनी सुरक्षा, हक और अधिकारों के लिए सड़कों पर आंदोलन करते नजर आएंगे।


- दीपक कोहली




आज की प्रमुख रचनाएँ- 29 सितंबर 2025








क्या खोया, क्या पाया

जीवन की इस आपाधापी में,
क्या खोया, क्या पाया हमने,
आओ करें आकलन इसका,
थोड़ा मन को टटोलें हमने।

बचपन बीता खेलकूद में,
हंसी-खुशी की छाँव में,
वे सुनहरे दिन लौट न पाए,
स्मृतियाँ रह गईं गाँव में।

जवानी गई मौज-मस्ती में,
सबकी इच्छा पूरी करते-करते,
अपनी चाहत भूल ही बैठे,
ख्वाहिशें दबा दीं मन के धरते।

अब आया है बुढ़ापा यारों,
सोचा भागवत भजन करेंगे,
पर मोह-माया की डोरी में,
फँसकर बस चिंतन ही करेंगे।

क्या खोया और क्या पाया,
सोचा तो बस इतना जाना—
जीवन है पानी का बुलबुला,
क्षण भर में मिट जाना।

जिसने थामकर चलना सिखाया,
उसी का हाथ छोड़ दिया,
जीवन की तंग गलियों में आकर,
अपनों का साथ खो दिया।

जीवन की इस आपाधापी में,
क्या पाया और क्या गंवाया हमने…

      
- गरिमा लखनवी


*****





बहुत जी करता है

बहुत जी करता है
जी लूँ हर वह क्षण,
जब नटनागर रास रचाते थे,
मधुर बंसी की तान पर
संसार को मोहित कर जाते थे।

बहुत जी करता है
देखूँ वह रात, जब जन्म लिया नागर ने,
कैसे सो गए पहरेदार,
कैसे खुल गईं जंजीरें,
कैसे उमड़ती यमुना का जलस्तर
उनके पग-स्पर्श से धीरे-धीरे थम गया।

बहुत जी करता है
जी लूँ वह पल जब यशोदा मैया
लाल संग खेला करती थीं,
जब बलदाऊ संग गोपाल सखा
गली-गली में विचरते थे।
देखूँ सुदामा का स्नेह,
गोपियों की चहकती हँसी,
और कान्हा की माखन चोरी।

बहुत जी करता है
सुनूँ ब्रज की नारियों की शिकायतें,
देखूँ राधा संग उनका अनन्त प्रेम,
महसूस करूँ वह छेड़खानी,
जहाँ बंसी की धुन पर
हर हृदय स्वयं को भूल जाता था।

कभी-कभी लगता है
यह भाव जो हृदय में उमड़ता है,
शायद उस युग की कोई स्मृति है।
क्या मैं भी कोई गोपी थी?
या ललिता-सी सखी,
वृषभानुजा सम प्रेमिका?
क्या यह पुनर्जन्म उसी का परिणाम है?

नहीं, मैं रुक्मिणी नहीं जीना चाहती,
मैं जीना चाहती हूँ मीरा का विरह,
राधा का अनन्य प्रेम,
गोपियों का उल्लास,
ब्रज की होली का रसमय रंग।

बहुत जी करता है
जी लूँ वह पल जब
नटवर नागर ने गोपियों के वस्त्र छुपाए थे,
जब यमुना किनारे राधिका को बुलाने
बंसी की मधुर तान गूँजती थी।
काश! उस युग में मेरा जन्म हुआ होता,
काश! मैं भी एक गोपी होती,
और कान्हा के चारों ओर
चक्कर काटती रहती।

बहुत जी करता है
देखूँ कंस का वध,
पांडवों की रक्षा,
द्रौपदी की लाज बचाते वे करुणा-मूर्ति।

जीना चाहती हूँ हर वह क्षण,
जहाँ कृष्ण हैं, जहाँ प्रेम है,
जहाँ समर्पण है।

क्योंकि
कृष्ण बनना तो सरल नहीं,
पर कृष्ण में खो जाना
यही सबसे बड़ा सुख है।


- सविता सिंह मीरा



*****





प्रकृति की देन

ये नदियाँ, पर्वत, झील और झरने,
कीट पतंगे, ये रंगीन मयूर थिरकते।
आए कहाँ से ये सारे के सारे ?
प्रकृति ने ही बनाए ये जीव प्यारे, ये अजब नज़ारे।
बंद कलियाँ , खिले मुस्कुराते से फूल,
फलों से लदी शाखाएं रही झूल।
ये बल खाती पेड़ों पर जाती लताएं,
ये पादपों की शोभा में चार चांद लगाएं।
चहचहाते ,समूहों में उड़ते विहग,
छू लेना चाहे वो गगन।
ये रंग- बिरंगे जीव कहाँ से आये ?
प्रकृति ने ही ये सारे हैं बनाए।
होते शाम निकले ये चाँद खूबसूरत ,
टिमटिमाते तारे ,ग्रह-उपग्रह हैं अमूर्त।
मिटा अँधेरा भोर कर देता है सूर्य देव,
ये सारी प्रक्रियाएं हैं प्रकृति की ही देन।
मानव जाति, वन्य जीव ये जंगल हरे-भरे ,
ये काले-काले बादल समूह ही वर्षा करें।
ये समुद्र अथाह जीवों से भरे हुए,
प्रकृति ने ही ये सब है तैयार किए।
ये वृक्ष जीवन दायिनी आक्सीजन प्रदाता,
सूर्यदेव ही सबका जीवन बनाता।
ये दिन-रात, धूप-छाँव, ऋतुओं का चक्र,
प्रकृति ने ही नवाजे सारे, हैं इसको सबकी फ़िक्र।
समय की है अब ये अहम जरूरत,
प्रकृति को न उजाड़ो, रहने दो इसे खूबसूरत।
इससे करता रहेगा अगर
खिलवाड़ जहाँ,
मिट जाएगा फिर सबका ही नामों निशान।


- लता कुमारी धीमान


*****




जिंदगी की हकीकत

जिंदगी से सवाल करते हैं ,
और सवाल करते-करते हम ,
उससे जवाब भी मांगते हैं ।
पर कभी कोई हकीकत नहीं समझ पाता ,
और जिसने हकीकत समझ ली ।
अपनी जिंदगी की
वह अपनी जिंदगी को अपने ,
तरीके से जीना सीख जाता।
जिस तरह वक्त के हिसाब से,
पेड़ भी अपने पत्ते बदलता है ।
एक वक्त पतझड़ने का होता है ,
एक वक्त वह होता है ,
जो सारे पेड़ बसंत के
आगमन से हरी भरे हो जाते है।
इस प्रकार से इंसान के जीवन में भी,
एक वक्त दुख और एक वक्त सुख अवश्य ही आता है।
जब वसुंधरा हरी भरी दिखती है,
और वह पूरा श्रृंगार करके सज जाती है।
तो चारों दिशाओं में अपनी एक अलग छवि छोड़ती है,
इसी प्रकार से मनुष्य की अच्छाई भी,
लोगों के दिलों में घर जाती है ।
इसलिए तो कहते हैं अच्छे-अच्छे काम करते रहिए ,
अपने लिए ना सही पर अपनों के लिए तो जीते रहिए।


- रामदेवी करौठिया


*****





चिड़िया

उड़ती चिड़िया आसमान में
दोनों पंख फैलाए।
छोटी सी अपनी चोंच से
दाना-दाना चुग खाएं।
अपने पंख फैलाए उड़ती
पूर्व से पश्चिम
उत्तर से दक्षिण
हर कोने पर
अपना हक़ जमाती।
डाल-डाल पर
पात-पात पर बैठ
अपना मधुर गीत
सबको सुनाती।

- डॉ. राजीव डोगरा



*****




अच्छे पड़ोसी
अच्छे पड़ोसी होते हैं
विनम्र और ईमानदार
जरूरत के समय करते हैं मदद
होते हैं बड़े मिलनसार
सुख दुख में देते हैं साथ
अपनों की तरह रखते हैं खयाल
विश्वसनीय,शांतिप्रिय और
होते हैं बड़े जिम्मेदार
अपनी उपस्थिति से हमेशा
सुखद एवं सुरक्षित
महसूस कराते हैं
विपत्ति में, संकट में,
सदा साथ निभाते हैं
कैसे कहें इन्हें बेगाना,
कभी यह अपनों जैसे
तो कभी अपनों से भी बढ़कर
हमारे हित का करते हैं चिंतन
हमें सदैव क्लेशों से
संतापों से बचाते हैं
बड़े भाग्यशाली होते हैं वह
जो अच्छे पड़ोसी पाते हैं।


- प्रवीण कुमार



*****





निज स्वार्थ

बहती शीतल हवाओं को यूं ना बदनाम करो
उंगली उठाने वालों आईना रखो
और खुद का दीदार करो
पूछो अपने मन से वो तुम्हे सब बताएगा
तुम्हारे समर्पण का सच तुमको दिखाएगा
आसमा से तारा यूं ही जुदा नहीं होता
कुछ तो गलतियां रही होगी साहब
यूं ही कोई बेवफा नहीं होता
षड्यंत्र भरी हवाओं से दीप नहीं बुझा करते
मिट जाता है सब पर नाम नहीं मिटा करते
तर्कहीन दुष्प्रचारों से सच पर दाग नहीं होते
निज स्वार्थ रखने वालों के
कभी मुकम्मल ख्वाब नहीं होते।


- आकाश आरसी शर्मा



*****




पूछने का हक़ है

मेरी भूख को पूछने का हक है,
पैदा किया जो मैंने वो अन्न सड़ रहा है कहाँ ?
मेरी दरिद्रता को पूछने का हक है,
मेरे पसीने सींचा वो धन है कहाँ ?
मेरे हाथों को पूछने का हक है,
कर सकें जो हम वो काम है कहाँ ?
मेरे बच्चों को पूछने का हक है,
हमारी शिक्षा ,स्वास्थ्य व् मनोरंजन का इंतजाम है कहाँ ?
मेरी बेबसी को पूछने का हक है,
बलिदानों से मिली वो आज़ादी है कहाँ ?
मेरे शरीर को पूछने का हक है,
ढक सके जो मुझे वो खादी है कहाँ ?
मेरी योग्यता को पूछने का हक है,
पूरा कर सके जो सपनों को वो अवसर है कहाँ ?
मेरी बैचनी को पूछने का हक है,
सुकून मिल सके जिसमें मेरा वो घर है कहाँ ?


- धरम चंद धीमान



*****





प्रश्न

विचारों की
परिधि के भीतर
फँसा हुआ
बेबस सा लाचार प्रश्न
उत्तर की तलाश में
तोड़ देना चाहता है
हर परिधि को
हर दीवार को
लाचार सिगरेट सा
क्षणिक जीवन का
बोझ ढोते हुए
अँगुलियों के बीच
सिसकती साँसों के बीच भी
अपने भविष्य की
संभावनाएं तलाशता है
प्रश्न
वैकल्पिक विचारों के बीच भी
ढूँढता है अपना अस्तित्त्व
उत्तर के नहीं मिलने पर
खुद को उत्तर के सांचे में ढालकर
विचारों के समुद्र में
लहर बनकर
किनारों से टकराता रहता है
अनवरत
पश्चात्ताप की अग्नि में
जलते हुए।


- अनिल कुमार मिश्र



*****






ठेठ वाले प्रोफेसर...

आज रिटायर्ड होने पर कॉलेज के हर तरफ
आंसू का सैलाब बह रहा था।
प्रोफेसर साहब चुपचाप ऑफिस में बैठकर
अपने रिडायर्ड प्रोग्राम का जायजा ले रहे थे
हर कोई उनके जाने का गम अलाप रहा था।
पूरा ग़मगीन माहौल बन रहा मानो आज समूचा कालेज रो पड़ेगा,

प्रोफेसर साहब के घर पर उनकी पत्नी सुधा
और बेटा आपस में प्रोफेसर साहब के रिडायर्ड होने पर दुःख जता रहे थे,
बेटा बोला"पापा घर पर रहेंगे तो सबका जीना दुश्वार कर देंगे,
हर काम में अपनी टांग घुसेड़ देंगे
अभी तक तो कालेज की ड्यूटी पर रहते थे,
कितना शांति रहता था अब कल से घर पर जिंदगी नर्क सी हो जायेगी।

कालेज की सभागार में मंच पर सभी गणमान्य लोग मौजूद थे,
प्रोफेसर साहब के सम्मान में हर कोई मंच पर
दो बात कह रहा था वही बगल में प्रोफेसर साहब की आंखों से
कब आंसू की बारिश शुरू हो जाये इसकी कोई गारंटी नहीं थी।

प्रोफेसर साहब से सभी आग्रह करने लगे
कि आप कुछ कहो तो प्रोफेसर साहब खड़े होकर
बोले मेरे प्यारे बच्चों और स्टॉप आप सभी लोगों से एक प्रश्न पूछ सकता हूं।
भीड़ से आवाज आने लगी सर एक नहीं दस पूछो..
प्रोफेसर साहब बोले क्या कोई मेरा पूरा नाम बता सकता है?

पूरे सभागार में सन्नाटा छा गया।
मंच पर बैठे गणमान्य लोग एक दूसरे का मुंह देखने लगे।
प्रोफेसर साहब बोले आप सब मुझे
डॉ. एस. के. बोलते हो जबकि मेरा नाम संतोष कुमार हैं,
समाजशास्त्र का प्रोफेसर हूं मगर जिंदगी की
किताब और हकीकत ज्यादा पढ़ाता सिखाता हूं।

आप की नजरों में हीरों हूं
बढ़िया देशी अंदाज में आपको पढ़ाता हूं
आप सभी मेरे शब्दों को अच्छे तरीके से समझ जाते हो,
मेरे गुरुजी ने मुझे बताया था कि
मातृ भाषा के साथ उम्र की भाषा समझना चाहिये,
आप सब मेरे ठेठपन तरीके को बेखूबी समझा बहुत प्यार दिया।

जिस दिन कालेज नहीं आया करता लोग खबर लेने घर पर चले आते,
घर पर महफ़िल जम जाता मुश्किल से लोगों से पीछा छूट पाता।
तो परिवार की नजरों में विलेन बन गया हूं,
जबकि परिवार को सभी सुख सुविधा मेरे कारण नसीब हो रहा हैं।

लेकिन फिर भी परिवार में कोई इज्जत नहीं करता हैं,
आप लोगों में कई ऐसे हो जो अपने मेहनती पिता के संघर्ष को अनदेखा करके उनकी बुराई करते हो,
उनके अच्छे बातों में बुराई नजर आने लगता है
जबकि ये जीवन पिता के खून और
पसीने से सींचा गया एक खूबसूरत पेड़ हैं
जो बड़ा होते सबसे पहले अपने उस
बदसूरत जड़ को त्यागने की कोशिश करता हैं,
जो उसे खूबसूरत बनाने के लिये खुद को कब का भूल जाता है।

शिक्षा का असली महत्व अपने माता-पिता
और बड़ों का सम्मान करना है जो यहां पर
बैठे सभी छात्रों से मैं उम्मीद करता हूं।
प्रोफेसर साहब का भाषण खत्म हो चुका था,
ताली की जगह अब लोग चुपचाप आंखों में आंसू
लिये मूकदर्शक बन बैठे थे।
प्रोफेसर साहब समझ गये इन सभी को
दर्शनशास्त्र का डोज कुछ ज्यादा ही दे दिया हूं,
फिर प्रोफेसर साहब माइक पर जोर देकर बोले अरे मेरे क्लास में सीटी बजाने वालों आखिरी बार मेरे लिये ताली भी बजा दो।

उस दिन ताली तो बजा मगर उस ताली में कोई
उत्साह और उमंग नहीं था,
उस दिन प्रोफेसर साहब के घर से लेकर
कालेज तक सभी दुखी थे सबके अपने अलग दुख थे।

5 साल बाद नोएडा से दोस्त राजेश का फोन आया हालचाल हुआ
वो बोला अरे समाजशास्त्र का प्रोफेसर एस के को जानते थे।
हां क्यों! अरे बहुत बुरी मौत मिला बेचारे को लाश 3 दिन से घर में सड़ रहा था वो अखबार वाले को गंध से पता चला कि प्रोफेसर साहब गुजर चुके हैं,
इकलौता बेटा कनाडा से आने में इनकार कर दिया,
समाजशास्त्र का अंतिम संस्कार पड़ोस के कुछ भले
लोगों ने किया बेचारे को गैरो के कंधा मिला..


- अभिषेक कुमार शर्मा



*****



चौसर का खेल

भारत माता तेरे टुकड़े तो तेरे अपने ही कर जाते हैं,
मन्दिर, माजिद, चर्च गिरजाघर व गुरुद्वारे पे लड़ जाते हैं।

देखो सत्ता को भी अब चौसर का खेल बनाया है,
अपने मतलब से सब ने अपना दाव लगाया है।
राष्ट्रीय धर्म को भूला चुके सत्ता सब को प्यारी है,
देखो नेता जी ने भी अपना अर्थ धर्म अपनाया है।

नारी तो बेहाल मिली पर अब नर भी तो घबराया है,
काले - नीले रंगों का वह भेद समझ नहीं पाया है।
अब नारी ने भी महाभारत का खेल ही बदल डाला,
दाव पर देखो चौसर में अब युधिष्ठिर को लगाया है।

अब तो सामाजिक ढांचा भी देखो छटपटाया है,
हम दो हमारे दो का नारा घर में जब से आया है।
अब मोसी चाची व चाचा परिवारों से सिमट रहें,
बाप बेटी से रिश्ते की मर्यादा बचा नहीं पाया है।

बीच बाजारों में लूटती नारी जब अंधा राज्य आया है,
घेरों से क्या आस लगाई जब अपनों ने दाव लगाया है।
मन्दिर, मस्जिद, चर्च गिरजाघर व गुरुद्वारे पे लड़ जाते हैं
हैं भारत माता तेरे टुकड़े तो तेरे अपने ही कर जाते हैं।


- अनिल चौबीसा चित्तौड़



*****