प्रेम कमण्डल
माथे पर तिलक उसूलों का
हाथों में प्रेम कमण्डल है
संयम की माला पकड़ी है
सन्तोष साधना का बल है
ईर्ष्या का हवन किया हमने
अब द्वेष विसर्जित कर डाला
करना ये यज्ञ जरूरी था
हमने सब अर्पित कर डाला
इस मन के गंगा सागर में
पावन संकल्पों का जल है
जब से सन्देह मिटा मन का
सारी दुनिया घर लगती है
सब अपने-अपने लगते हैं
इक ज्योति प्रीत की जगती है
अनमोल खजाना ढूँढ लिया
मन का आबाद धरातल है
महकेगी जीवन की बगिया
हम ऐसे फूल खिलाएँगे
आए थे खाली हाथ भले
कुछ देकर जग को जाएँगे
पल भर का सारा खेल यहाँ
क्यों ? हार-जीत का दंगल है
।। सुनीता कांबोज ।।
शानदार रचना ।
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