साहित्य चक्र

24 March 2019

दर्द

# आज फिर दर्द खरीदने चली हूंँ मैं #

बरसों दर्द की गली में पली हूं मैं
आज फिर दर्द खरीदने चली हूंँ मैं।
दर्द के समंदर में डूबकर निकली हूँ मैं
जो ना करना था खूब कर निकली हूँ मैं
तौहमते लगा कर अपने ही जहां में ,
मेहर ओ मा खोकर हुजूर निकली हूं मैं।

‌ जानती नहीं वरना क्यों कर गुजरती ,
अनजाने में ही अपना खूं कर निकली हूं मैं ।
अश्क रूकता नहीं याद जाती नहीं ,
अश्क और यादों के समुंदर में डूब कर निकली हूँ मैं।

रो सकती नहीं हँस लेती हूँ गम में ,
चीख अपने जिगर में रोक कर निकली हूं मैं।
यही गम रहेगा जीवन में साथ मेरे ,
अपनों को सफर में छोड़ कर निकली हूँ मैं।

मतलब की दुनिया के दस्तूर से " रश्मि"
हाय देखों आज कितनी भली हूं मैं।
भोली - भाली देख दुनियादारी अक्सर,
अजब-सादिक तेरे ही रंग में ढली हूँ मैं।

रोशन करने को गैर का आशियाना,
मरमरी- समा बनकर हरदम जली हूँ मैं।
हमदर्दी देख जमाने की अक्सर मुरझाई ,
सालता - दर्द देख फूली-फली हूँ मैं।

बरसों दर्द की गली में पली हूं मैं ,
आज फिर दर्द खरीदने चली हूँ मैं ।।
* मेहर ओ मा ( चांद, सूरज)

                                          रश्मि अग्निहोत्री

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