सूखे पत्तों की सरगम
सूखे पत्ते कुछ कहते हैं,
हर सरसराहट में कहानी बहते हैं।
कभी हरे थे, जीवन से भरे थे,
अब ज़मीन पर बिखरे, फिर भी खरे हैं।
धूप ने छीना रंग उनका, मगर ताब नहीं,
वक़्त ने छीनी जवानी, मगर ख़्वाब नहीं।
हवा के संग झूमते हैं बेपरवाह,
जैसे रूह में अब भी है कोई चाह।
शाख़ से फ़िराक़ का दर्द गहरा सही,
पर चेहरे पर सब्र का पहरा वही।
कहते हैं- “गिरना मंज़िल का अंत नहीं,
हर पतझड़ में एक नया वसंत कहीं।”
मिट्टी में मिलकर फिर से जनम पाएँगे,
नए पत्तों की सूरत में लौट आएँगे।
सूखे पत्ते यूँ पैग़ाम दे जाते हैं,
फ़ना होकर भी ज़िंदगी सिखा जाते हैं।
- रजनी उपाध्याय
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अब रिश्ते में वो जूनून नहीं है,
सर झुकता है पर सुकून नहीं है।
अक्सर करता है इधर उधर की,
मगर बातों में मजमून नहीं है।
हर गुल बस गुत्थी सी उलझी है,
मगर अब महकते प्रसून नहीं हैं।
बहुत शोर था बड़ी गर्मी थी,
चीरा तो एक कतरा खून नहीं है।
सब शय सदा सदाबहार नहीं होते,
पसीना बह रहा है मगर जून नहीं है ?
सुनना नहीं चाहता पर सुनाता बहुत है,
विकास रहजनी कैसे करे गली सून नहीं है ?
- राधेश विकास
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बोलती खामोशी
कभी ख़ामोशी,कुछ बता जाती है,
कभी आंसू बनकर बहा ले जाती है।
कभी ये डर जाती है,
तो कभी ये डरा भी जाती है।
कभी ये होती है,
अनुशासन की निशानी।
कभी खामोश करा देती हैं,
शासन की कहानी।
कभी ये होती हैं,
बुद्धिमानी की पहचान।
तो कभी बन जाती है,
कायरता की निशान।
इसलिए,खामोशी को
पढ़ना सीखो।
इसे महसूस करना सीखो।
वरना गुम हो जाओगे,
खामोशी के समंदर में।
फिर ना,जगह बना पाओगे,
किसे के सीने के अंदर में।
- रोशन कुमार झा
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काश तुम पास होते
तुम जो मेरे पास होते,
तो हम क्यों इतने उदास होते!
मिल जाते हम भी शायद,
यदि थोड़े से प्रयास होते!
यूँ अकेले गुज़र ना होती,
ना ही उतने निराश होते!
अटूट भरोसा रखते तो सही,
अपने अंदर भी विकास होते!
तुम बन जातीं नीर पावन,
और हम तुम्हारी प्यास होते!
नज़दीकियां होतीं किस्मत में तो,
क्यों प्रेम में इतने उपवास होते!
अपना बनाकर देखा तो होता,
हम सच में तुम्हारे दास होते!
तुम जो साथ देते मेरा तो,
ये रिश्ते भी कुछ ख़ास होते!
समझती तुम भी प्यार को मेरे,
जो दिल में तुम्हारे अहसास होते।
- आनन्द कुमार
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पापा
पापा है,
तो हमारी जिंदगी में खुशियां है,
पापा हमारे चेहरे की मुस्कान है,
पापा हमारी जिंदगी के दीप है,
जो हमारे सपनों को रोशन करते हैं,
पापा के होने से हर खुशियां,
हर चीज अच्छी लगती हैं,
पापा के होने से
हर सुबह अच्छी लगती हैं।
- पूनम बिश्नोई
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आप जैसे लोग मिलेंगे
कभी भरोसा ही नहीं था
कभी सोचा ही नहीं था
परख कर देख लिया
और आजमा कर भी देख लिया
आप जैसे लोग मिलेंगे
कभी सोचा ही नहीं था...
वक़्त भी कितना अटल दृष्टा हैं?
सब कुछ देख लेता है,
भूल जाता है मानव पर
खुद कभी भूलता नहीं,
याद करवाता है हर लम्हे को
हर पल को ताज़ा करता है
चलता है मानव संग हर दम
देता है कभी खुशी और कभी गम
अंजामें गुलिस्तां क्या होगा ?
कभी सोचा ही नहीं था..
छंट जाता है हर एक दुःख
आपसे मिलने पर,
असीम खुशी मिलती है
आप से मुखातिब होने पर,
बहती है असीम शान्ति की ब्यार
आप से बातचीत करने पर
खोए हुए पल भी पुर्नजीवित हो जाते हैं
आपके करिश्माई व्यक्तिव से,
झलक देखने को मिलेगी
कभी सोचा ही नहीं था...
- बाबू राम धीमान
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नटखट बच्चे
नटखट बच्चे, हुड़दंग मचे,
हर समय खेलें, हर समय हँसे।
पेड़ पर चढ़ें, फल तोड़ें,
मिठाई खाएं, खुशी मनाएं।
लॉलीपॉप, चॉकलेट, टॉफी,
बच्चों की खुशी, मम्मी की ज़फ्फी।
नटखट बच्चे, जिनको खाना ने पच्चे,
हर समय खेलें, हर समय हँसे।
बच्चों की दुनिया, खुशियों की दुनिया,
सपनों की दुनिया, रंगीन दुनिया,
हंसो, खेलो, मस्त रहो,
बचपन की खुशियाँ, दिल से कहो।
नटखट बच्चे, सरपट दौड़े,
हर समय खेलें, हर समय हँसे,
बच्चों की हंसी, फूलों जैसी,
बच्चों की दुनिया, प्यार और खुशी।
- डॉक्टर जय महलवाल अनजान
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बाल दिवस
सुनो बच्चों सुनो
आज है उनका जन्मदिन
प्यार से थे जो दुलारते तुम्हें हर दिन।
बच्चों को गोद में उठाते
देशभक्ति का गान सुनाते
संग उनके करते मस्ती
बच्चे न जाने हैं ये कोई बड़ी हस्ती।
चाचा कह उन्हें पुकारते
खुशी खुशी गुलाब उनके
कोट पर लगाते।
गुलाब उन्हें बड़ा भाता
बच्चों का रुप नजर उसमें आता।
चाचा नेहरू जहां कहीं भी जाते
बच्चों से मिलने जरूर थे आते।
बच्चे भी उन्हें देख खुश हो जाते
तभी तो आज बाल दिवस है मनाते।
- विनोद वर्मा
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कहानी
तुम सब
बस किरदार थे
मेरे जीवन की कहानी के
कहानी आगे बढ़ती रही
तुम सब अपने
वास्तविक स्वरूप से
परिचित कराते हुए
अपने किरदार से
विरमित होते रहे
जीवन की कहानी थी ना
खत्म तो होना ही था
कहानी समाप्त होने के पहले
कुछ किरदारों को
अपने जीवन का
त्याग करना ही पड़ता है
तुम सबने भी वही किया
दुःखी मत हो
कहानी का पटाक्षेप तो
होता ही है
समय खुद को परिवर्द्धित करता है
जीवन की कहानी के साथ-साथ
और हाँ
परिमार्जित भी।
- अनिल कुमार मिश्र
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बाल दिवस- फिर वही बच्चा बन जाएँ
कभी गुल्लक में खनकते थे सपने,
अब स्क्रीन पर फिसलते हैं उँगलियाँ।
कभी मिट्टी में खिलती थी ख़ुशबू,
अब ए.आर. में दिखती हैं तितलियाँ।
पाठशाला की घंटी अब
ऑनलाइन नोटिफ़िकेशन सी बजती है,
शरारतें ‘इमोज़ी’ में सिमटती हैं,
हँसी अब ‘रील’ में सजती है।
चॉक-डस्ट उड़ती थी, जब मास्टर जी पढ़ाते थे,
अब टैबलेट चमकता है, जब बच्चे सिर झुकाते हैं।
खेल के मैदान में जोश की आवाज़ गूंजती थी,
अब “गेम-ज़ोन” में साइलेंट जीत मिल जाती है।
पर फिर भी-
हर मासूम आँख में वही जिज्ञासा है,
हर धड़कन में वही भविष्य की भाषा है।
बस ज़माना बदल गया है थोड़ा,
पर ‘बालपन’ आज भी सबसे प्यारा रिश्ता है।
चलो, आज बाल दिवस पर
एक पल को फिर वही बच्चा बन जाएँ,
मिट्टी में उँगली घुमाएँ,
और दिल से खिलखिला जाएँ।
- डॉ सत्यवान सौरभ
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