तेरे आने की खुशी में
मैं अपने सारे गम भूला बैठा,
व्यथित था मन मेरा, दुःख के भार से,
बोझ उसका सारा, मन से उतार बैठा
हल्का हुआ मन मेरा
खुशी से झूम उठा,
तेरे आने की खुशी में
मैं अपने सारे गम भूला बैठा...
मिले थे जो गहरे ज़ख्म
मुझे तेरी महफ़िल में,
घाव भरे नहीं
कमबख्त, नासूर बनते गए
मवाद उनका धीरे धीरे रिसता रहा,
हल्क सूख गया मेरा ,सोचते सोचते,
कतरा कतरा उनका मैं, बहा बैठा
तेरे आने की खुशी में
मैं अपने सारे गम भूला बैठा...
साथ देने का जो वादा
किया करते थे हमसे,
लच्छेदार बातें, जो हाँकते थे हमसे,
लाचार बन कर वो, दूर से देखते हैं तमाशा,
दिल पे मेरे क्या गुजरी होगी
वह समझ न पाए,
मगर अफसोस!
मैं गम में भी उजाला ढूंढ बैठा,
शहर नमक का था
और मैं ज़ख्म खोल बैठा
तेरे आने की खुशी में
मैं अपने सारे गम भूला बैठा...
- बाबू राम धीमान
*****
सोए शेर को जगाना होगा
रूठी जनता को मनाना होगा
भले समाज आपस में बंटा है
एकता का गीत सुनाना होगा
सभी को चरण बंदन नमन कर
स्नेह का अलख जगाना होगा
नफरत के जंजीर तोड़ कर
देश प्रेम का पाठ पढ़ाना होगा
कुछ अंगुलीमाल भटक गए है
बुद्ध के मार्ग पर लाना होगा
रोजगार,शिक्षा,स्वास्थ्य से
उन्नत भारत बनाना होगा
जाति धर्म से ऊपर उठ के
सबको गले लगाना होगा
धरती माँ के रक्षा के लिए
अपना शीश चढ़ाना होगा
चाइना हो या अमेरिका हो डर
ऑपरेशन सिंदूर का दिखाना होगा
भारत बुद्ध और युद्ध की धरती है
जो जैसे मानेगा वैसे मनाना होगा
जब आन बान शान पर आंच आएगा
“सदानंद” ताकत अपना दिखाना होगा
- सदानंद गाजीपुरी
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तुझको कौन गिरा पाएगा ?
तूफानों से लड़कर आया है,
आग में खुद को तपाया है,
डर को जिसने खाक किया,
वह तू ही तो कहलाया है।
हर चोट को जिसने समझा,
एक नया सबक जीवन का,
अंधेरे को चीरकर जो,
लाया उजाला मन का।
तुझको कौन गिरा पाएगा?
तेरी रगों में साहस है,
तेरी साँसों में विश्वास है,
हर चुनौती को स्वीकारने का,
तुझमें सच्चा एहसास है।
पर्वत को भी झुका दे जो,
वह ज़िद तेरे इरादों में,
रुकना तूने सीखा नहीं,
चाहे राहों में हों बाधाएँ।
तुझको कौन गिरा पाएगा?
गिरेगा भी तो क्या होगा,
उठना तुझे आता है,
मिट्टी छूकर भी सोना हो,
यह हुनर तूने पाया है।
दुनिया लाख बिछाए कांटे,
तू फूलों सा मुस्कुराएगा,
सूर्य बनकर तू चमकेगा,
ये ज़माना देख पाएगा।
तुझको कौन गिरा पाएगा?
जब तक ध्येय न मिल जाए,
तब तक विश्राम कैसा?
जब खुद पर हो इतना यकीं,
फिर परिणाम कैसा?
तू खुद अपनी मशाल है,
तू खुद अपनी कहानी,
तुझसे ही शुरू है तेरा सफर,
ओ! कर्मठ प्राणी।
तुझको कौन गिरा पाएगा?
जिसके मन में हो लगन,
और दिल में हो हिम्मत,
ईश्वर भी साथ देता है,
जो रखता है नेक नीयत।
लड़, बढ़, चल, फिर जीत तेरी,
यह अटल सत्य है जान,
तू ही तेरा भाग्य-विधाता,
तू ही तेरा भगवान।
तुझको कौन गिरा पाएगा ?
- कैप्टन जय अनजान
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दो दो हाथ करेंगे
बहुत सहा है,
अब नहीं सहेंगे।
अपनी नियति से
दो-दो हाथ करेंगे।
भरोसा किया था बहुत,
इत्मीनान था,
मालूम नहीं था,
ठंडी हवाओं
के बाद,
कातिल तूफान था।
किया इंतजार, कि गुजर जाए,
ये काली रात,
अब थामी है मशाल, खुद
सुखद नया प्रभात
हम करेंगे।
तोड़ेंगे या टूट बिखरेंगे,
लेकिन, नियति अब,
दो दो हाथ करेंगे।
भोला था,अब तक नादान,
किया परेशान,
लिया हर पल इम्तेहान।
मौके दिए हमने बहुत,
संभालने को,
अब लहरों की,
लगाम हम थामेंगे।
ना करेंगे,समझौता
ना बात करेंगे।
अबकी बार दो दो हाथ करेंगे।
परवाह नहीं जिन्दगी अब,
डर नहीं कुछ,
हारेंगे खुद,या तुझको,
शीशे में उतारेंगे।
अब हर्जाना नहीं भरेंगे ,
ऐ नियति,
तुझसे अब,
दो दो हाथ करेंगे।
- रोशन कुमार झा
*****
काफी है बस उससे बात हो जाए कभी लघु।
ताल्लुक मोहब्बत का देह से नहीं होता रघु।।
जो सांवला है रंग उसका मुझको खूब भाता है।
बाते ओ यादे आके याद मुझको खूब सताता है।।
डूब जाऊं उसकी झील सी आंखों में कहीं मैं।
किससे कहूं कि आज कल याद मे ही हुँ मै।।
सोशल मीडिया पर दिख जाता है तस्वीर कही।
जूम कर चूम लेता हूं माथे को मै फिर कही।।
रह सलामत खैर खुदा से मनाता ही रहता हूं।
याद की होती है तड़प तब मै कॉल करता हूं।।
बन जाता है दिन उससे जब बात होती है।
मशवरा तबीयत का बस अल्फाज होती है।।
रखे ख़ुश परवरदिगार तुझे तू जहां रहे कहीं।
बस याद कर ले कभी की तेरा यार भी है कहीं।।
जब तक रहेगी जान तुझसे दोस्ती भी रहेगी।
राह-ए-जिंदगी में मिल गई तो दिन याद रहेगी।।
दे हाथों में हाथ मुस्कान के साथ दो रूह मिलेगी।
ये मुलाकात ही तो जिंदगी भर सदा याद रहेगी।।
- राघवेंद्र प्रकाश 'रघु'
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जाड़ा
हो गया जाड़े का अब तो आगाज़,
सहारा बने उनी वस्त्र, अंगीठी और अलाव,
पेड़ों से पत्ते झड़-झड़ उतर रहा सबाब,
अपनी धरा पर गाते विदेशी परिंदे आकर राग।
हर प्राणी भंडार अपना भर रहा,
आने वाले कोहरे, धुंध और बर्फ से डर रहा,
प्रबंध बिल घोंसले या छत्त का कर रहा,
जीवित रहे इसलिए हर प्रयत्न कर रहा।
गेंहूँ और तिलहन खेतों में है बोये जाते,
जीवन यूँ ही चलेगा उम्मीद है बंधाते,
वृद, कमजोर खुद को है असहाय पाते,
ठंडे झोंकों से ठिठुर-ठिठुर है कंपकंपाते।
सिरहन से शुष्क हो जाती है धरा,
सिखाती है हमें दुःख-सुख से जीवन है भरा,
देती है सन्देश हमें कुछ इस तरह,
रहता नहीं एक सा, परिवर्तनों से जीवन है भरा।
- धरम चंद धीमान
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कोई तो हमारा होगा
आँखों - आँखों में जब इशारा होगा,
तब बड़ा ही हसीन नज़ारा होगा।
उफ़्फ़ ये चंचल शोख़ अदाएँ तुम्हारी,
इन पर कोई तो दिल हारा होगा।
चाँदनी भी हर तरफ़ फ़ैल गई होगी,
जब उसने ख़ुद को सँवारा होगा।
हैरान हूँ आज तक यही सोचकर मैं,
चाँद किसने ज़मीं पर उतारा होगा।
ख्वाहिशमंद है ज़िंदगी इसी आस में,
कि वो हसीं शख़्स कब हमारा होगा।
बनकर हमसफ़र हाथ थाम लो मेरा,
मेरे जीने का यही तो सहारा होगा।
- आनन्द कुमार
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कभी तो
फैल रहा है चहुं ओर ये जो भ्रष्टाचार,
अपना रहे अनैतिकता भूल शिष्टाचार,
सीमित हुई सोच, मतलबी व्यवहार,
लुप्त हो रहे सब आदर्श और संस्कार।
हर जगह बेईमानी, हर रोज नया घोटाला,
धनी उड़ाता मौज, निर्धन न पाए निवाला,
गोलियों की बौछार, है बम का बोलबाला,
अपराधी खुला, बेकसूर पर लगता ताला।
आएगा कोई तूफ़ान, चलेगी फिर कोई आंधी,
रक्षक आमजन का बन आएगा फिर से गाँधी,
हारेगा अन्याय, न्याय की होगी फिर से चांदी,
मर्यादा की लक्ष्मण रेखा जायेगी न फिर लांघी।
मची है ये जो मारकाट, हर ओर चीख-पुकार,
मिलेगा रास्ता जरूर, हो जाएगा जंगल ये पार,
कभी तो खुलेंगे ये सत्य, अहिंसा के चेतना द्वार,
कभी तो पाएगा देश भ्रष्टाचारी भवसागर से पार।
- लता कुमारी धीमान
*****
अपराजित
मुझे दीवाना न समझना
मुझे इश्क का
परवाना न समझना ,
मैं रहता हूं
अक्सर ह्रदय में तुम्हारे
मुझे आवारगी का
किनारा न समझना।
मुझे बेगाना मत समझना
मुझे अपना भी
मत समझना
मैं रहता हूं
अक्सर ख़ुदा की आवारगी में
मुझे यूँ ही
बेचारा मत समझना।
मुझे हारा हुआ मत समझना
मुझे पराजय का
सितारा मत समझना
मैं रहता हूं
अक्सर बड़ी जीत की तलाश में
मुझे यूँ दुनिया से हारा
मानव न समझना।
- डॉ. राजीव डोगरा
*****
फिर से वही शाम
जब सूर्य छिप रहा था
हल्की-हल्की हवाओं से
जब आसमान रात का पैगाम दे रहा था
सुबह के निकले हुए पंछी
जब शाम को घर लौट रहे थे
दिन भर का दाना जोड़कर
जब मधुर आवाज में गीत गा रहे थे
वहीं शाम के मंजर में
जब सड़कें शांत हो रही थी
दोपहर तक हुए कोलाहल में
जब गाडियां धींमी पड़ रही थी
- इशिका चौधरी
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तराशे कोई उन पत्थरों को जो पत्थर बने बैठे हैं,
कोई लाए रगों में लहू कि सब खंजर बने बैठे हैं ।
जहाँ ज़िंदगी की खाल में रहने लगे लाशें सभी,
कोई लाए रूह का नया कफन कि सब पिंजर बने बैठे हैं।
शौकिन हैं, संगीन भी,लाखों हैं सहमी कहानियाँ,
कोई लाए ज़मी सा रूखापन कि सब भादर बने बैठे हैं।
करते हैं सजदे बेवजह, भटके हुए राही सभी,
कोई लाए ख़ुदा का अता पता कि सब हैदर बने बैठे हैं।
चढ़ने लगे जेहन में जब ख़ुमार खुद को खोने का,
कोई लाए इशक का ज़हर कि सब दिलबर बने बैठे हैं।
- स्वाति जोशी
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काल चक्र
अभी खूंटे से बंधी बकरी,
कल तक खूंटी से लटक जाएगी।
यही है काल चक्र,
आज इसकी है तो कल उसकी बारी आएगी।
ये माने कसाई और वो बताए खुद को मुक्तिदाता,
बदल जाएगा दृष्टिकोण
जो थोड़ी सी भी स्थिति बदल जाएगी।
ये मौत तक बेफिक्र,नासमझ घास के पीछे भाग रही
वो रोता रहेगा उम्र भर,
जो थोड़ी सी भी समझ आएगी।
इसका कोई नहीं, इस बदलती दुनियां में हमराज ।
उसे थोड़ा सा कुछ हुआ
तो एक पूरी दुनिया उजड़ जाएगी।
इसने सिखा है बस मिमियाना,सुख दुःख कहां है जाना।
उसे आज खुशी मिल रही है,
कल कौन जाने कितनी उदासी आएगी।
ऐसे ही आते रहेंगे प्रश्न, होते रहेंगे विचार।
ये दुनिया है अशोक,
ये यूं ही चलती आई है और यूं ही चलती जाएगी।
- अशोक कुमार शर्मा
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बेटियां आखिर बेटियां होती
बेटियां आखिर बेटियां होती
उन्हें भी तो मां बाप से मिलने की आस होती।
जिस घर में पली बढ़ी और जवान होती
शादी के बाद उस घर की राहें तकती रहती ।
घर के काम काज से फुर्सत नहीं मिलती
जब भी देखो व्यस्त ही नजर आती।
कभी संतान की सेवा करती
तो कभी सास ससुर की सेवा में हाजरी भरती।
चूल्हा चौका भी संभालती
कौन क्या खाएगा भली भांति है जानती।
पशुओं को चारा भी काटती
खेती बाड़ी को भी संभालती।
नौकरी पेशा में सफल होती
कभी डाक्टर तो कभी पायलट
बन आसमान में उड़ती।
मां बाप का कलेजा बड़ा करती
उनके संस्कारों को संतान में भरती।
मां बाप से मिलने की चाह तो करती
पर जिम्मेवारियां अब पीछा कहां छोड़ती।
मन ही मन यह जरुर सोचती
बेटियां और कुछ नहीं
सिर्फ कर्तव्यों का बोझा है ढोती।
बेटियां आखिर बेटियां होती
उन्हें भी तो मां बाप से मिलने की आस होती।
जिस घर में पली बढ़ी और जवान होती
शादी के बाद उस घर की राहें तकती रहती ।
घर के काम काज से फुर्सत नहीं मिलती
जब भी देखो व्यस्त ही नजर आती।
कभी संतान की सेवा करती
तो कभी सास ससुर की सेवा में हाजरी भरती।
चूल्हा चौका भी संभालती
कौन क्या खाएगा भली भांति है जानती।
पशुओं को चारा भी काटती
खेती बाड़ी को भी संभालती।
नौकरी पेशा में सफल होती
कभी डाक्टर तो कभी पायलट
बन आसमान में उड़ती।
मां बाप का कलेजा बड़ा करती
उनके संस्कारों को संतान में भरती।
मां बाप से मिलने की चाह तो करती
पर जिम्मेवारियां अब पीछा कहां छोड़ती।
मन ही मन यह जरुर सोचती
बेटियां और कुछ नहीं
सिर्फ कर्तव्यों का बोझा है ढोती।
- विनोद वर्मा
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