साहित्य चक्र

02 November 2025

रचनाकार राजकुमार कुम्भज जी की चार कविताएँ





पहली- कविता

फिर जीत है निश्चित
उड़ानें हों,हौसले हों
तो बदल ही जाती है आकाश की रॅंगत भी
वे तीर जो तेज़ रफ़्तार, तेज़ धार लिए
आते हैं,आते हैं इधर विरुद्ध ही अभी
हो भी सकते हैं समर्थन में चारण
हो सकते हैं कारण कई-कई
हों अगर उड़ानें, हों अगर हौसले
तो माॅंजता है रास्ता भी सब
फिर जीत है निश्चित।


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दूसरी- कविता

कुछ-कुछ परिचित भी.
वे जो मारते हैं चोंच
नवजात शिशुओं तक को
नोंच लेते हैं अपनी हवस में
ज़रा भी छोड़ते नहीं हैं शिक़ायतें
मुस्कुराने नहीं देते हैं ज़रा भी नहीं
जाते हैं,जाते हैं अट्टहास में
बिछाते हैं बिस्तर और सो जाते हैं
हो सकता है कि हो सकते हों वे
कुछ-कुछ परिचित भी।


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तीसरी- कविता

बारूद की लिपि को.
हथियार हैं हाथ ही
चाहे फिर छोटे हों या लंबे ही क्यों नहीं
शर्त है यही कि वज़ह सहित
आना चाहिए काम कार्रवाई में
क़ामयाब वे जो सिखाते हैं
सबक़-ए- क़ामयाबी सभी-सभी को
किन्तु लड़ते नहीं हैं,
लड़ाते हैं युद्ध दूसरों-तीसरों को
बिछाकर ताश के पत्ते-पत्ते पर बारूद
उसी गुप्त और रहस्यमयी बारूद की लिपि
लुप्त करते हैं बच्चे।


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चौथी- कविता

उम्मीद के लिए
थोड़ा-सा नमक,थोड़ा-सा उजास
ज़रूरी है जीवनभर की उम्मीद के लिए
एक गाॅंठ है कि जिसे मैं खोलता रहता हूॅं
संपूर्णता से संपूर्ण जीवनभर के सूने में
एक गुलदस्ता, एक व्यवस्था है आततायी
और वह उसकी मनमोहक मुस्कान
जिसमें बिच्छू ही बिच्छू।

- राजकुमार कुम्भज


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