साहित्य चक्र

10 November 2025

आज की प्रमुख कविताएँ- 10 नवंबर 2025








विदेशी परिंदे

आते हैं विदेशी परिंदे,
बनकर हमारे मेहमान,
उड़ –उड़ आ जाते वहां से,
भरकर लम्बी सी उड़ान।

अपने देश की सौंधी खुशबू,
कितना इन्हें लुभाती है,
झील-झरनों की कल-कल,
मदहोश इन्हें कर जाती है।

पंख खोल उड़ते नभ में,
अपनी धुन में फिरते गाते,
भूल अपनी देश धरा को,
वाशिंदे यहीं के हैं हो जाते।

साइबेरिया, तिब्बत से आकर,
हिमाचल में जाते है रच-बस,
यहाँ के पक्षी भी इनको,
लगाते हैं गले से हंस-हंस।

कितनी प्यारी धरा हमारी,
करती नहीं कोई भाव-भेद,
खाना-पानी देती सबको,
अपना-पराया सब लेती सहेज।

देती है सबको आसरा ,
प्रकृति यहाँ की है अनमोल ,
जानती नहीं सीमा बंधन ,
लुटाती है सबको दिल खोल।

मेहमानवाजी यहाँ की पाकर,
गद-गद होते परिंदे प्रवासी,
भूल जाते हैं अपना घर,
आती नहीं उन्हें याद जरा सी।

आँचल फैलाये बाहें खोल,
भारत धरा है सबको बुलाती,
मानव हो या हो परिंदा,
हर प्राणी को गले लगाती।


- धरम चंद धीमान


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ये काम हमारा नहीं
मैं नहीं चाहता कि कोई आहत हो
किसी की भावना को ठेस पहुंचाना
ये काम हमारा नहीं,
खुश रहे सभी, ये प्रयास करता रहूं
बांट सकूं खुशियां,
अपने अज़ीज़ दोस्तों संग,
लताड़ लगाना किसी को
ये काम हमारा नहीं...
इज्ज़त करना और इज्ज़त देना
ये काम हमारा है,
बड़ों का सम्मान करना
उनकी बातों को ध्यान से सुनना,
और उन पर चिन्तन करना
ये काम हमारा है,
फ़िर भी कोई दुःखी हो जाए
तो क्या कर सकते हैं?
किसी को भी दुःख पहुंचाना
ये काम हमारा नहीं...
अच्छी सोच लेकर चल सकूं
ये प्रयास करता हूं,
हर काम बेहतर कर सकूं,
ये ध्यान रखता हूं,
फ़िर भी किसी को बुरा लगे
तो क्या कर सकता हूं?
किसी को नीचा दिखाना
किसी के प्रति षड्यंत्र रचना
ये काम हमारा नहीं...


- बाबू राम धीमान


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किनारा अपना अपना
अगर तू ना कहे तो,
अपनी चादर समेटे,
कही और चला जाऊं।
गया तो फिर क्या - सोचना
सपने में भी कभी ना आऊं।
सारे किस्से कहानियां,
और वक्त की निशानियां,
भुलाऊं गा।
तेरी हर याद को भी मिटाऊंगा।
करूंगा आजाद तुझे,
और खुद भी आजाद
हो जाऊंगा।
लो अब खेल खत्म हुआ सारा,
ना तुम जीते,ना मैं हारा।
मैं रहा इस किनारे,
तुझे मुबारक वो किनारा।
दुनियां में मिलेंगे बहुत सहारे,
अब भी है,
लाख चाहनेवाले हमारे।


- रोशन कुमार झा


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वक्त बेवक्त की चाय

जोड़े रखती है अपनों को अपनों से,
वक्त बेवक्त की चाय।
जब बनानी हो सबको किसी चीज पर कोई राय,
तो याद आती है वक्त बेवक्त की चाय।
सुबह का समय हो,
या हो दुपहरी का समय।
लानी हो शरीर में ताजगी,
तो याद आती है वक्त बेवक्त की चाय।
घर में आए हो मेहमान,
करना हो उनका स्वागत अभिनंदन।
करनी हो उनकी मेहमाननवाजी,
तो याद आती है वक्त बेवक्त की चाय।
पड़ रही हो कड़ाके की ठंड,
ज़िंदगी हो रही हो झंड।
छूट रही हो शरीर में कंपकंपी
तो याद आती है वक्त बेवक्त की चाय।
जब न हो कोई काम,
फुर्सत के हो लम्हात।
खाली दिमाग न हो जाए शैतान का घर,
तो याद आती है वक्त बेवक्त की चाय।


- भुवनेश मालव


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सोचा था अब नहीं लिखूंगा,
बस अपने काम से काम रखूंगा।
पर सोचना अपने वश में है क्या!
तू सचमुच होश में है क्या!
भावनाओं को व्यक्त होना है,
विचारों को अब नहीं सोना है।

सब समाहित कर सके
तू इतना विद्वान कहां!
जो लिया है इस संसार से,
वापिस कर, रख यहां।
छुपना छुपाना इतना आसान नहीं ,
समाज में निष्क्रिय हो
जाऊं मेरा ईमान नहीं।

कमाल का निर्णय था,
कि अब और नहीं सीखूंगा।
सोचा था अब और नहीं लिखूंगा।
बस अपने काम से काम रखूंगा।

मेरी शक्ति ही मेरी कमजोरी है ,
मेरे गुण ही मेरे अवगुण हैं।
अगर अच्छा हूं तो
बुरा भी दिखूंगा।
सोचा था अब नहीं लिखूंगा,
बस अपने काम से काम रखूंगा।


- अशोक कुमार शर्मा


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वहम

पहाड़ को वहम था,
कि सारे क़ाफ़िले उसी ने सम्भाल रखे हैं
उसकी चोटी पर टिके बादल मुस्कराए,
बोले- "ए अभिमानी!
तू तो बस एक ठहराव है,
यात्रा तो उन कदमों की है
जो हर ढलान पर भी चलना जानते हैं।"

हवा ने धीरे से कान में कहा-
“तेरे होने से रास्ता आसान है,
पर मंज़िल तक पहुँचना तेरे बिना भी मुमकिन है।”

पहाड़ चुप हो गया उस दिन,
पहली बार उसने समझा-
ऊँचाई होना महान नहीं,
झुककर राह देना ही असली बल है।


- रजनी उपाध्याय


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प्रकृति का अनुपम वरदान सर्दी की धूप
सर्दी की धूप है
कोमलता और गर्माहट से भरपूर
अनुपम प्रसन्नता देने वाली
स्फूर्ति और ताजगी भरी
सुखद एवं आनंददायक
मन को शांत करने वाली
प्रकृति का अनमोल उपहार है सर्दी की धूप
ठिठुरन और ठंडक से बचाती है
नवऊर्जा- नवस्फूर्ति का तन में करती है संचार
मनोदशा को बनाती है शांत और सकारात्मक
नींद की गुणवत्ता में लाती है सुधार
हृदय एवं पाचन तंत्र को बनाती है प्रकृष्ट
मानसिक तनाव एवं अवसादों को कर न्यून
मानसिक स्वास्थ्य बेहतर बनाती है
प्रकृति का अनुपम उपहार है सर्दी की धूप
चयापचय में कर सुधार
हमारा वजन करती है नियंत्रित
शरीर में रक्त संचार बढ़ाती है
त्वचा के स्वास्थ्य में भी सुधार लाती है
हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को कर मजबूत
हमें नित्य होने वाली बीमारियों से बचाती है
प्रकृति का अनुपम उपहार है सर्दी की धूप
बालों को बनाती है स्वस्थ और चमकदार
श्वसन समस्याओं से भी राहत दिलाताी है
यह है एक प्राकृतिक दर्द निवारक
शारीरिक पीड़ा एवं दर्द से निजात दिलाताी है
विटामिन डी का है उत्तम स्रोत
हमारी अस्थियों को मजबूत बनाती है
शरीर का करती है निराविषिकरण
शरीर के ऊर्जा स्तर को बढ़ाती है
मानव स्वास्थ्य में कर समग्र सुधार
मानव को ऊर्जावान, तरोताज़ा
स्वस्थ और आनंदित बनाती है
सर्दी की धूप है अनूठा प्राकृतिक वरदान


- प्रवीण कुमार


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कार्तिक पूर्णिमा

कार्तिक की पूर्णिमा, चाँदनी रात है,
हो रही प्रकाश की वर्षा, वाह क्या बात है।
चाँद का सौंदर्य, मन को मोह रहा है,
प्रेम और शांति की, अनुभूति करा रहा है।

देवताओं के दिन, इस पर्व का आगमन है,
पवित्र नदियों में, स्नान का महत्व महान है।
कार्तिक पूर्णिमा की, महिमा अपरंपार है,
सब लोगों के लिए, यह कल्याणकारी त्योहार है।

चाँद की रोशनी, जैसे अंधकार को दूर करती है,
आत्मा को प्रकाश, और ज्ञान से भरती है।
इस पावन अवसर पर, हम सबको एकत्रित होना है,
प्रभु की भक्ति में लीन होकर, खुद को खोना है।

कार्तिक पूर्णिमा की, रात है सुहावनी,
प्रेम और शांति की, अनुभूति करा रही है।
चाँद की रोशनी, लग रही है मन भावनी,
आत्मा को प्रकाश, और ज्ञान से भर रही है।

इस पावन अवसर पर, हम सबको प्रभु को याद करना है,
और उनकी भक्ति में, अपने आप को समर्पित करना है।
कार्तिक पूर्णिमा की, महिमा अपरंपार है,
सब के लिए, यह पर्व करता बेड़ा पार है।


- कैप्टन जय महलवाल 'अनजान'


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हे मानव
ब्रह्माण्ड का तू अंश है
तू ही कृष्ण तू कंस है,
तू लघु विस्तार भी तू
शक्ति भी निस्सार भी तू

सृष्टि भी तू संहार भी तू।
मानव भी तू अवतार भी तू
मानव के हर रूप में तू।
दानव के हर धूप में तू।

शंकर का अंश है तू।
नाग का दंश है तू।
पुरखों का वंश है तू।
श्याम तू व कंस है तू।

नांव बन पतवार बन।
नाविक व खेवनहार बन।
कर्म तू ही कर्मकार बन।
इस जग का फनकार बन।

खुशी भी तू,गम भी तू
भोर भी तू तम भी तू।
सब कुछ है यहां तेरा
अधिक या कम मिला।
अंत समय रीता रीता
जाना है वहां अकेला।


प्रारब्ध है जो तेरा यहां ,
घटित होता वही यहां।
चाह कर भी मिट न पाया।
होनी का बलवान साया।

फिर भला यह सोच क्यों
न पाने का अफसोस क्यों
होनी के समक्ष है हारा।
भगवान भी हो बेचारा।

यही सीख है गीता की
यही सीख परिणीता की।
सब है तू फिर भी नहीं
अस्तित्व तेरा कुछ भी नहीं।

नियति के इस फेरे में
घूम रहा हर पल घेरे में।
तू पथिक बस पथ का है
जीवन के इस रथ का है।


- रत्ना बापुली



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“धूप बचा ली उसने”

दोपहर की हल्की धूप में
सेंक रहा था वो-
बरसों के परिश्रम से थकी
अपनी हड्डियों को।
फिर कुछ सोचकर
हथेलियों को जोड़ा
और बाँध ली एक मुट्ठी धूप,
जैसे कोई खजाना छिपा लिया हो।

शायद उसने देख लिया था
दूर उस सुनसान फुटपाथ पर
अपने इंतज़ार में बैठी
ठिठुरती हुई रात को।

वो मुस्कराया-
इस बचाई हुई धूप से
अब डराएगा अँधेरों को,
अब रात काँपेगी
सर्द हवाओं से नहीं,
बल्कि उस धूप की गरमाहट से
जो उसकी मुट्ठियों में कैद है।


- आरती कुशवाहा


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चाय के कप से लेकर वर्ल्ड कप तक का सफर

नाजुक से पंखों वाली वह गुड़िया रानी
थोड़ी छैल-छबीली थोड़ी सी अलबेली है ,
हंसना- हंसाना, अठखेली करना,
माता-पिता की दुलारी है वह थोड़ी सी हठेली है,
फिर ख्वाबों से बाहर जो निकली बेटियां,
आसमान को भेदने की चाहत लेकर,
सिलसिला कुछ यूं चला जिम्मेदारियां का ,
थम वह जाकर फिर 2025 में ही आईसीसी वर्ल्ड कप लाकर ,

झांसी की रानी, पद्मावती, पीटी उषा ने
जब अपनी आत्म शक्ति को जगाया,
फिर नहीं था भय कोई मन में,
कभी चांद सी शीतल हूं कभी सूरज सा तेज है मुझमें ,
यही दुनिया को दिखलाया,

कल्पना चावला, व्योमिका,
सोफिया ने जब आसमान से दहाड़ भरी,
इस जहाँ को मुट्ठी में बांधने की ताकत रखती हूं,
खामोशी से दुनियाँ को यह बात कही,

मत करो तिरस्कार बेटियों का,
यह पापा की परियां वक्त आने पर शेरनी सी दहाड़ती हैं,
नाजुक से पंखों वाली आज भारत वर्ष वर्ष की बेटियां ,
चाय के कप से लेकर वर्ल्ड कप उठाने तक की ताकत रखती हैं।


- रचना चंदेल 'माही'



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थकी हुई सी जिंदगी

बहुत मुश्किल से मिली है यह ज़िन्दगी
कैसे जियें इसको यह है अपने हाथ
दुखी रहा वो जो और की चाह करता रहा
सुखी वही रहा जो उसी में खुश रहा जो था उसके पास

ऐसे भी ज़िन्दगी में देखे कई बेचारे
थक हार कर जो बैठ गए किनारे
कामयाबी ने चूमे उनके कदम
बढ़ते रहे जो आगे बिना किसी सहारे

सुख दुख जीवन में है बहता पानी
कभी दुख कभी सुख यही तो है जिंदगानी
उलझते रहोगे तो उलझाती रहेगी
पड़ेगी उम्र फिर मुश्किल में बितानी

राह बहुत कठिन है नहीं देगा कोई साथ
छुड़ाने वाले बहुत मिलेंगे थामेगा नहीं कोई हाथ
अपनी अपनी पड़ी है सबको यहां
कोई नहीं समझेगा दूसरों के जज़्बात


- रवींद्र कुमार शर्मा


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हे पुरुषो!

तुम समाज के सबसे सशक्त स्तंभ हो,
तुममें शक्ति है-
पूरा परिवार उठाने की,
अकेले ही उसे सँवारने की।

फिर भी, न उड़ाओ व्यंग्य,
न गढ़ो ठिठोलियाँ अपरिपक्व,
महिलाओं पर, जिनकी आत्मा भी
तुम्हारी दुनिया का हिस्सा है।

समझो- तुम समाज की हर महिला के संरक्षक हो,
यदि कोई अकेली है,
तो वह तुम्हारी जिम्मेदारी है।
कोई बहाना नहीं, कोई मौका नहीं।

तुम बनो वह छाया,
जो धूप की तीखी किरणों को हटाए,
तुम बनो वह हवा,
जो उसके पंखों को डर के बिना फैलने दे।

उसकी आँखों में डर न हो,
उसके कदमों में कंपन न हो,
तुम्हारा साहस बने उसकी ढाल,
और तुम्हारी मौजूदगी उसकी सुरक्षा।

मर्दानगी केवल शरीर की ताकत नहीं,
बल्कि उसके सम्मान और स्वतंत्रता में है।
तुम पिता हो, बेटा हो, भाई हो, पति हो-
सृष्टि की सबसे मजबूत रचना हो।

तुम बनो वह परिवर्तन,
जो समाज की दिशा बदल दे,
जो भय मिटा दे,
जो महिलाओं के कदमों को निर्भीक बनाए।

तुम्हारा पौरुष दिखाओ-
सिर्फ ताकत नहीं,
बल्कि समाज को सशक्त बनाने की जिम्मेदारी निभाने में।

तुम्हारा अस्तित्व उसकी निर्भीक उड़ान में शामिल हो,
ताकि वह खुले आसमान के नीचे
निर्भीक, निडर, और स्वतंत्र उड़ सके।


- मधु शुभम पाण्डे


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