एक पल के लिए अपनी आत्मा से पूछिए, आपका लक्ष्य क्या है ? वह कहेगा आनन्द की प्राप्ति। यह धरती, यह प्रकृति, यह संसार, सभी इतने सुन्दर है कि आप इसी सुन्दरता का पान करते रहेंगे तो आनन्द की प्राप्ति आपको होती रहेगी, भगवान ने आपको मनुष्य जन्म देकर असीमित आनन्द का खजाना दे दिया है, पर कस्तूरी मृग की भांति हमारे अन्दर कस्तूरी है पर हम ढूंढ रहे हैं अपने आनन्द को झूठे भोग दिलासों में। मनुष्य की तीन मूल भूत आवश्यकताएँ है रोटी, कपड़ा और मकान। प्रकृति ने इन तीनों ही वस्तुओं को अपने में समाहित कर जग हितार्थ दिया है।
रोना मनुष्य का स्वभाव बन गया है पर आज मनुष्य रो रहा है अपनी करनी पर।जी हॉ मनुष्य की जरूरत है रोटी, कपड़ा और मकान। इन्हीं जरूरतों की विस्तार वादी निति कहिए या इच्छाओं का छलांग मनुष्य का चैन खोता जा रहा है। आजकल का मनुष्य तो उस उक्ति को भूल चुका है कि गोधन गजधन बाजधन और रतन धन खान जब आए संतोष धन सब धन धूरि समान। संतोष नाम की चीज मनुष्य के अन्दर रहा ही नही तभी मनुष्य हाय पैसा हाय पैसा कर रहा है।
घर है, मकान है, अच्छा खासा परिवार है पर दूसरो की देखा देखी व यो कहिए कि प्रतिस्पर्धा की चाह ने मानव को इतना भ्रमित कर दिया कि वह अपनी अचल सम्पत्ति बनाने मे लगा हुआ है, बढ़ाने मे लगा हुआ है फलस्वरूप अपने मन का चैन खो चुका है क्योंकि वह बैंक का कर्जदार हो गया है। सबसे ज्यादा परेशानी तो तब आती है जब बैंक वाला ब्याज की रकम बढ़ाकर अपने ग्राहक से दोगुनी नही चौगुनी राशि का भरपाई करते हैं।
इसलिए ही यह कहावत है तेतो पांव पसारिए जाकी लम्बी ठौर। अब आइए उपरोक्त कहावत पर चलते हैं बोया पेड़ बबूल का आम कहां से खाएं। यहां बबूल के पेड़ की प्रतीकात्मक अर्थ है अपनी अलभ्य बस्तुओं की चाह और कर्म। जो दुर्लभ है उसे पाने की चाह में बुरा कर्म करना उदाहरण के तौर पर जल्दी पैसा कमाने की होड़ में गलत या गैर कानूनी काम करना ही बबूल के पेड़ है,यह स्वाभाविक है जनाब कि बबूल के पेड़ पर आम नहीं उगते इसलिए यह कहावत बनी है कि बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से खाएं।
मै तो यह समझती हूं कि हर कहावतें जो भी है हमको कोई न कोई सीख देती है बस सही बुद्धि से उसे समझने का प्रयास करें। साहित्य लेखन में भी मैंने सुना कि असफलता व प्रसिद्धि न पाने की वजह से अनेक रचनाकार या तो आत्म हत्या कर रहे हैं या डिप्रेशन का शिकार हो रहे हैं, वास्तव में इसी सूचना से प्रेरित होकर ही मै यह लेख लिख रहीं हूं।
साहित्य लेखन एक साधना है, इसके लिए लिखने से ज्यादा पढ़ना आवश्यक है और पढ़ना हम चाहते नहीं,केवल लिखते ही रहते हैं तो उतनी सामर्थ्यता कहां आ सकती है, फिर एक कहावत के अनुसार होनहार विरवान के चिकने चिकने पात की तरह हमारे पात चिकने ही कहां है यहां हम भाग्य को ही मान कर संतोष कर लें तो ज्यादा सही है, असफलता के कारण अवसाद ग्रस्त होना हमारी सारी रचना धर्मिता को कलंकित कर सकती है, इसलिए मै तो यही सलाह दूंगी कि प्रसिद्धी की होड़ से दूर रहकर शांत मन से अपना रचना कर्म करते जाईए,फल की चिन्ता मत कीजिए।और यह सोचकर अपने मन को संतुष्टि पहुंचाएं कि बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से खाऊं।
- रत्ना बापुली
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