साहित्य चक्र

07 April 2019

एक हाथ में जूता

फिर से हुई विदाई

कलेक्ट्रेट में जूते से जब होने लगी पिटाई।
समझो यारों लोकतन्त्र की फिर से हुई विदाई।।

एक हाथ में जूता दूजे में चप्पल जब आए।
रोक-टोक के बिना सफेदी पर कालिख पुतवाये।
नेताजी की बाछ खिली जब फूटी उधर रुलाई ।
समझो यारों लोकतन्त्र की फिर से हुई विदाई।।

उत्सव के माहौल- बीच वर्चस्व लगे टकराने।
मुख से गाली और आँख जब आग लगे बरसाने।
लगता है गरीब की बेटी होने लगी पराई।
समझो यारों लोकतन्त्र की फिर से हुई विदाई।।

फेंक शराफत का चोला जब चली बयार पुरानी।
अपने मुँह से आप निकलने लगी अतीत- कहानी।
जूते - चप्पल के नं. की सर पर हुई छपाई।
समझों यारों लोकतन्त्र की फिर से हुई विदाई।।

सांसद और विधायक अक्सर इज्जत खूब लुटाते।
सौ-सौ मुखड़े बदल बदलकर उल्लू हमें बनाते।
अवध सजग होकर चुनना रे फिर चुनाव ऋतु आई।
समझो यारों लोकतन्त्र की फिर से हुई विदाई।।

                                                                                       डॉ. अवधेश कुमार 'अवध'




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