*क्यों न हो सृजन*
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समय और सानिध्य
की सौगात दो तुम
समर्पित कर दूंगी
सारे गीत ...!
शब्दों का सुरभित साथ
रसों की गागर
प्रीत का पनघट
जब पास है ...!
फिर क्यों न हो
सृजन...!
जुही की कली सा
सुकोमल ह्रदय
गुलमुहर की छाँव
सा स्मृति में बसा
एक गाँव प्रीत का
पुनीत से परस
चंद संदली साँसों
की अनुभूतियां...!
झरता प्रेम नित
भोर से साँझ तलक,
तरंगित वजूद
मतवाली रागिनी
बजती मन्द मन्द...!
मन्थर -मन्थर
प्राणों को
सहलाता कोई
चिर तृप्ति ...!
अगणित
सोते फूटते हों
प्रेम के
अंदर ही अंदर
और मैं भीगती
सतत प्रति क्षण ..!
देह से परे रूह की
अद्भुत सी छुअन
क्यों न हो सृजन,..!
गीत लिखे नहीं जाते
फूटते हैं....!
प्रस्फुटित होता है प्रेम
होता है.....!
रागिनी शर्मा
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