प्रेम की भाषा जिन्हें आई समझ में
जी रहे हैं लोग वो उस्ताद बनक
द्वेष के सागर में अपना पैर करके
दिल दुखाएँ क्यूँ किसी का बैर करके
बाँटने खातिर किसी का दर्द प्यारे
हम समंदर पार कर लें तैर करके
मन हमारा हो किसी दर्पण के जैसा
शब्द गूँजे व्योम में जनवाद बनकर
थक गईं हैं बारिशें धरती धो-धो के
हाल कैसी कर ली है शबनम रो-रो के
इस धरा पर प्रेम की भाषा बदल दी
नफ़रतों के बीज हमने हीं बो-बो के
आइये मिलजुल के फिर रिश्ते सुधारें
दोस्तों से प्रेम का संवाद बनकर
.
चार बातें काम की और ढंग की हो
और वो भी दोस्तों के संग की हो
याद भी रक्खे कोई क्यूँ उस घड़ी को
जिस घड़ी ने जिंदगी को तंग की हो
थामकर बाँहें चलें एक दूसरे की
जीत लेंगे जंग हम फ़ौलाद बनकर
✍️सत्येन्द्र गोविन्द
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