जलती दोपहर में
एक मां अपनी बच्चा को
पीठ पीछे बाधंकर
खेत में तन को जला रही है,
मौसम सख्ती दिखा रही है
वो पसीना किसी खुशबू से
कम न थी
हां बाप था जो
मदिरा के भट चढ़कर
बहुत दूर चला गया,
तू लावारिश नही
मैं जिदां हूं ना
मानो हदय की व्यथा सुना रही है,
जल रहे मन में सूखे रोटी
की आस है,
गरीबी की आहट में सब छिन गया
सिर्फ एक प्यास है,
भभक कर मन रोने को
व्याकुल हो रहा है
मगर पगार कट जायेगा
रोने को बाद में भी रो लिये
मगर हदय का दर्द
कहां छिपेगा।
अभिषेक राज शर्मा
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