मुझे वो दिन आज भी याद हैं जब सांझ के समय गांव में कुछ और ही रौनक रहती थी प्रत्येक उम्र की अपनी कयावद रहती थी, पर जीवन भागदौड़, बदलता परिवेश, पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव, रोज़ मर्रा की आवश्यकताएं, शिक्षा , स्वास्थ्य आज धीरे धीरे गांवों की रौनक एवम् गरीमा के लिए नासूर बन गया है।आज उत्तराखंड में बहुत सारे ऐसे गांव हैं जो उत्तराखंड के मानचित्र में अंकित तो हैं पर उन गांवों में जिंदगियों का अभाव है जिसके कारण उन गांवों की चकाचौंध शहरों में दफ़न कर दी गई है।
90 के दशक की बात करूं तो गांवों की चहल कदमी, खेत (पुंगड़ा) चौक दंडयाली (घर का आंगन), बाटा-घाटा (रास्ते) सब कुछ आबाद थे, परन्तु धीरे धीरे एक दूसरे की (सिकासौर) ने गांवों के जीवन को निर्जन करने में पूर्ण सहयोग किया है।
आज उत्तराखंड में कई गांव हैं जिनको भूतिया गांव के नाम से भी जाना जाता है। उत्तराखंड का वो गांव भद्रपुर (काल्पनिक नाम) पहाड़ों की सुरम्यता बाज़, बुरांश, थूनेर, काफ़ल, देवदार, राग के जंगलों के बीच बसा गांव जहां कभी ऐसी रौनक रहती थी कि सुबह अंशुमली के आगमन होते ही गांव की महिलाएं, पानी के लिए कतारबद्ध रहती थी। हल्का हल्का अंधेरा है और उठकर सभी महिलाएं पानी के धारे (मंगेरा) पर हैं कुछ बाते कर रही है, गांव का जीवन बहुत ही कष्टप्रद तो था पर आनंद भी उतना ही था, संघर्षमय था।
बसंती (काल्पनिक नाम) काकी सुबह उठ कर सबसे धारे पर पानी को जाती बाकी घर के सभी सदस्य सोए हैं पर चाची का रोज का काम था ब्रह्ममुहूर्त में उठना और फिर चूल्हा चौका करना यानी चूल्हे की लिपाई पुताई करना फिर सर्वप्रथम चाय बनाना और सबको देना। उसके बाद गौशाला जाना क्योंकि मंगतू (काल्पनिक नाम) काका ने बहुत सारे मवेशी रखे थे एक भैंस जिसका नाम कालू था ,एक गाय जिसका नाम गौरी था एक बैलों की जोड़ी थी जिनका नाम कम्मू गम्मू था।
तो बसंती काकी एक सेवक धर्मी थी जो मवेशियों को भी अपने बच्चों के जैसे पालती-पोसती मां का फ़र्ज़ निभाती बच्चे खूब बड़े हो गए और घर की दयनीय स्थिति को भांपते हुए खूब मन लगा कर पढ़ा करते , मंगतू काका ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे केवल अक्षर ज्ञान था पर बच्चों को खूब समझाया करते और उनको बाहरी दुनियां के बारे में बताया करते बच्चे भी जिनका नाम वंश एवं वंशजा था काफी होनहार थे दोनों खूब मन लगाकर पढ़ते थे।
वंश का सपना था की मैं सेना का बड़ा अधिकारी बनूंगा एवं वंशजा डॉक्टर बनना चाहती थी क्योंकि उसकी दादी अकसर बीमार रहती थी इसलिए उसने मन में सोच लिया था।बसंती चाची भी पढ़ी लिखी नहीं थी फिर भी उनको खूब पढ़ने लिखने के लिए प्रेरित करती थी बाकी समय उनका खेत खलिहान में व्यतीत हो जाया करता था। गांव में लगभग 20 /25 परिवार ही निवास करते थे। उनमें से कुछ लोग पहले ही बाहर रोजगार के लिए चले गए। और धीरे धीरे वहीं बस गए अब गांव में मात्र 15 /17 ही परिवार थे जिनमें भी कुछ परिवारों में केवल बुजुर्ग माता पिता थे।
पर उनके बच्चे बार त्यौहार (विशेष कामों) में घर आया करते थे। गांव में आज भी अच्छी रौनक थी। वहीं पास में हिरूली दादी रहती थी उनका एक बेटा था जो देहरादून बस गया था दादी को वहां पसंद नहीं आया तो दादी घर पर ही रहने लगी। कभी कभी बेटा बहु घर आते तो घर सुंदर लगता ओर दादी भी खुश दिखाई पड़ती कुछ दिन बाद बेटा बहु चले जाते तो दादी उदास हो जाती पर वंशजा हिरूली दादी के पास अकसर जाया करती थी ।दादी उसको बहुत प्यार करती थी और कभी कभी कुछ खाने को दे दिया करती थी।
गांव में जब भी तीज त्यौहार आते सारे गांव का माहौल कुछ और ही होता घरों से सुंदर पकवानों की सुगंध घर के मंदिरों से शंखनाद ,घंटियों की धुन, धूल की खुशबू आदि मन को मोहित करते फिर एक दूसरे के घर जा कर पूरी पकौड़ी दिया करते साथ में बैठा करते। रात को झुमैलो, चौंफुला, बाघ बाखरी का खेल खेला करते बुजुर्ग लोग गांव में जो गांव का पधान होता उनके घर पर चौपाल लगाकर बैठा करते और हुका तंबाकू पिया करते, और पूरे दिन की आपबीती सुनाया करते गांव का हर एक शख्स एक दूसरे की मदद करने के लिए तत्पर रहते।
यही गांव की परम्परा थी ,प्रात होते ही सब अपने अपने कामों पर चले जाते, दिन में आते खाना खाने के बाद थोड़ा आराम करते फिर काम पर चल देते पर जब सांझ का समय होता तो वो समय कुछ अलग सा प्रतीत होता गोधूलि से मिट्टी की भीनी भीनी सुगंध, घरों में जलते चूल्हे, किसी किसी घर के चूल्हों पर ठंड से निजात पाती वृद्धाएं घरों से निकलते धुएं से आसमान को सूचित करती धुवां कि पतली लकीरें मानो ये बताने की कोशिश करती की अपने अपने कामों से आए महिलाएं पुरुषों को थोड़ा आराम दो।
वंशजा और वंश भी धूमिल हो कर घर में आए हैं तभी बसंती चाची उनको फटकार लगाते हुए पढ़ाई के लिए भेजती वो भी डिबरी (चिमनी) जला कर दोनों पढ़ने लगते और भोजन बनते ही दोनों भोजन के लिए भागते और भोजन करने के पश्चात दिनभर के थके हारे कब सो गए पता ही नहीं चलता धीरे धीरे समय बीतता गया और वंशजा सयानी हो गई का उसने 12 वीं उत्तीर्ण कर ली कुछ पता ही नहीं चला। मंगतू चाचा के पास इतना पैसा नहीं था कि वंशजा को बाहर शहर अकेले पढ़ाने को भेज सके , वंशजा के सपने सपने रह गए अब वंशजा 18 पार की हो गई और मंगतू चाचा ने उसकी शादी करा दी। वंशजा ससुराल चली गई और ससुराल में बड़े तौर तरीके से रहने लगी ये वो समय था जब लड़कियों को बहुत कम पढ़ाया जाता था पर वंशजा फिर भी काफी पढ़ी हुई थी।
इधर वंश भी 12 वीं पास हो गया वो भी अच्छे अंकों से तो बसंती चाची ने वंश को पढ़ाने के लिए मंगतू काका से पैरवी की और मंगतू काका ने वंश को श्रीनगर रख दिया जहां वंश पढ़ाई करने लगा और कभी कभी घर आया करता था और इसी बीच वंश सेना में भर्ती हो गया बसंती काकी और मंगतू काका का खुशी का ठिकाना ना रहा पर इसी बीच वंश की दादी का स्वर्गवास हो जाता है कुछ दिन घर की खुशियां दुखों में बदल जाती पर कुछ ही दिनों में सब सामान्य हो जाता।
अब वंश को भी सेना में चार पांच साल हो गए तो मंगतू काका वंश की शादी करा देते हैं बहु भी पढ़ी लिखी थी और मायके से भी ठीक ठाक थी तो ज्यादा समय घर पर नहीं रहती और वंश के साथ जाने की जिद करती अंत में बसंती काकी जाने की इजाजत दे देती और फिर दोनों घर में अकेले रह जाते अब दोनों भी काफी उमर दराज हो चुके हैं।
बेटा वंश छुट्टियों में घर आता कुछ दिन रुकता फिर चला जाता।अब बसंती काकी के नाती नातिन हो गए पर क्या करें उनको देखने का सुख नहीं मिल पाया क्योंकि वो अब धीरे धीरे घर कम ही आया करते । वहीं हिरूली दादी के बेटे ने भी घर आना छोड़ दिया क्योंकि हरिद्वार में अपना आलिशान घर बना लिया जिससे उसे भी घर का माहौल बिल्कुल अच्छा नहीं लगता और ना बीबी बच्चों को।इसी तरह गांव में ओर भी कमी आ गई अब केवल 8 /10 परिवार रह गए ।वो भी मजबूरी में जिनके पास कोई साधन नहीं।
धीरे धीरे बसंती काकी और मंगतू काका भी बूढे होने लग गए बेटी वंशजा कभी कभी अपने माता पिता से मिलने आया करती पर उसको भी समय नहीं मिलता क्योंकि गृहस्थ जीवन में फंस गई ।लेकिन अब बेटा वंश बिल्कुल नहीं आता पर कभी कभी पैसे भेज दिया करता ।मंगतू काका ने भी सभी गाय भैंस बेच दिए कम्मू गम्मू भी बगल के गांव के गोकुल राम को दे दिए और अब वही उनके खेतों में हल लगता है। गांव की चौपाल भी अब धीरे धीरे सुनी होने लगी। कुछ दिन बाद हिरूली दादी भी चल बसी।
और अब गांव में आधा से ज्यादा घरों में चूहों (मूसों) का बसेरा हो गया कुछ घर गिर गए ,कुछ घरों की केवल दीवारें बची हैं मानो गांव खाने को आता है। खेतों में बजती बैलों की घंटियां अब केवल एक दो रह गई हैं कई खेतों ने संन्यास ले लिया है बस कुछ ही खेत आबाद दिखते। सुबह के समय अब बसंती काकी भी हलके कदमों के साथ धारे पर बर्तनों की आवाज करती और कुछ और बुजुर्ग माताएं बस, रास्ते सूने पड़े थे जहां पर कभी खूब चहकदमी हुआ करती थी।
आज कभी कभार एक दो ही दिखते चौपाल भी अब खत्म हो चुकी कोई नहीं रहा गांव में जिस चौपाल में पधान जी हुआ करते थे उन्होंने भी देहरादून में कोठी बना ली अब गांव में बसंती काकी और मंगतू काका जो दोनों एक दूसरे का सहारा बने हैं और एक उनके साथी रामदा जिनकी अवस्था भी जरा है बस वो भी कभी कभार मिला करते अब सांझ को मंगतू काका और रामदा बैठे रहते हुक्का लिए हुए और शहर से आने वाले राह को धुंधली नजर से ताकते रहते।
अब ये उनका रोज का काम है कि कोई घर वापस आएगा ।फिर ये गांव चहक उठेगा पर ऐसा कुछ नहीं होता और ऐसे ही मंगतू काका सुबह उठते हैं और रामदा के पास जाते हैं तो रामदा घर में चूल्हे के पास ही अकड़ी देह के साथ शरीर त्याग चुके होते हैं मंगतू काका भी काफी विलाप करते और कैसे करके उनके बच्चों को संदेश पहुंचाते अब पूरे गांव में मंगतू काका और बसंती काकी हैं।
इसी बीच वंश घर आता और अपने माता पिता को अपने साथ ले जाने के लिए कहता पर दोनों मना कर देते की हम से प्रदेश में नहीं रहा जाता जिस मिट्टी ने हमको यहां तक पाला है वो आगे भी पालेगी वंश के बहुत मनाने पर भी वृद्ध माता पिता अपने ही घर पर रहने की जिद करते हैं वंश फिर चला जाता है।मंगतू काका और काकी फिर वही अपना समय बिताने लगते अब गांव खाने को आता पर वो अपनी दुनियां में जी रहे और सांझ को छज्जे पर बैठ कर राह निहारते मंगतू काका की आँखें नम हो जाती और मन ही मन यही सोचते अब वो सांझ नहीं आएगी।
और एक दी सूचना मिलती मंगतू काका और बसंती काकी ने भी गांव को अलविदा कह दिया। अब एक और गांव पलायन की भेंट चढ़ गया और जिसका मूल नाम बदल कर भूतिया पड़ गया सरकारों की बेबाक नीति और आज की होड़ धीरे धीरे गावों को निर्जन एवं जिंदगी विहीन कर देंगे।
- कैलाश उप्रेती "कोमल"





धन्यवाद जयदीप पत्रिका का मेरी रचना को स्थान देने के लिए 🙏🙏
ReplyDeleteस्वागत जी
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