साहित्य चक्र

30 November 2025

आज की प्रमुख कविताएँ- 01 दिसंबर 2025









मेरे आंसुओं की बूंदों से
एक बाल्टी भर गई,
उसे देख कर दिल में
एक तमन्ना सी दौड़ गई ,
देखता ही रह गया मैं
उस बाल्टी की ओर,
मेरे देखते ही देखते
एक सिरहन सी दौड़ गई
मेरे आंसुओं की बूंदों से
एक बाल्टी भर गई...

सोच रहा था मैं बड़े ध्यान से
क्यों न इसका
सदुपयोग कर लिया जाए?
बदल कर इसको शुद्ध जल में
क्यों न स्नान में काम ले लिया जाए,
लाखों खर्च करके विभाग
लगा रहा है साइन बोर्ड -
जल है तो कल है,
मैं इस पर चिन्तन कर ही रहा था
कि मुझे रोक लिया मेरे ही उस
कमबख्त विचार ने, और कहा -
रुको! ज़रा तनिक तो सोचो,
क्या कहेंगे लोग? चिन्तन तो कर,
मैं चिन्तन करने लगा और दोबारा
एक सिरहन सी दौड़ गई
मेरे आंसुओं की बूंदों से
एक बाल्टी भर गई...

मैं सोच ही रहा था कि
मन में एक विचार आ गया
दौड़ता हुआ वह मेरे पास आ गया,
कहने लगा मुझसे क्या हुआ तुम्हें ?
ज़रा मुझे भी बताओ, मैंने कहा-
क्या बताऊं तुम्हें ?
अजीब स्थिति के फेर बहुत बुरा फंसा हूं,
लोग क्या कहेंगे मुझे?
"आंसुओं की बूंदों से यदि स्नान कर लूँ "
इस पर चिन्तन कर रहा हूं,
उसने मुझसे कहा- क्या बुराई है इसमें?
लोगों का क्या ? लोग तो कहते ही है,
मैं सोच ही रहा था और एक सिरहन
सी दोबारा दौड़ गई,
नज़र उठा कर जब मैंने देखा
तो वही "आंसुओं की बूंदें "
मेरे गालों से उतर गई , मेरी कल्पना
मेरे सोचते ही हवाई हो गई
मेरे आंसुओं की बूंदों से
एक बाल्टी भर गई...


- बाबू राम धीमान


*****




दिल्ली की हवा दमघोटू क्यों ?

दिल्ली की हवा
अब हवा नहीं रही,
एक बोझ है-
जो हर सांस के साथ
फेफड़ों पर रखा
पत्थर-सा लगता है।

यमुना की ठंडी लहरों से
जो शहर कभी महकता था,
आज उसी शहर के आसमान पर
धुएँ की राख चिपकी है-
मानो बादल भी
साँस लेने से डरते हों।

दिल्ली की हवा दमघोटू क्यों हुई?
क्योंकि सड़कों पर
गाड़ियों का मज़दूर-सा थकता धुआँ,
फैक्ट्रियों का अनवरत ज़हर,
और दूर-दूर तक फैली
लापरवाही की चादर
एक साथ मिलकर
आसमान का गला दबा देती है।

यहाँ सुबह सूरज नहीं उगता,
धुंध का धब्बा उगता है-
और शाम होते-होते
पूरा शहर
एक अदृश्य जेल में बदल जाता है,
जहाँ साँस लेना भी
एक संघर्ष बन गया है।

मास्क अब सुरक्षा नहीं,
मजबूरी है-
क्योंकि हवा में
इतना ज़हर घुल चुका है
कि बच्चे तक
खाँसी की आवाज़ के साथ
बड़े हो रहे हैं।

दिल्ली की हवा दमघोटू है-
पर ये उसकी किस्मत नहीं,
हमारी बनाई हुई सज़ा है।
जिस दिन हम
पेड़ों को दुश्मन नहीं,
सहारा समझेंगे,
और विकास को
धुएँ का पहाड़ नहीं,
हरियाली का रास्ता मानेंगे-
उसी दिन
दिल्ली फिर से
साँसों की राजधानी बनेगी।


- आरती कुशवाहा


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अगर भारत को विश्व गुरु बनाना है
मिटा दो जाति और धर्म के भेद को
भाषा और क्षेत्रवाद के भेद को
सबका धर्म हो मानवता और इंसानियत
हम रहें प्रेम और सौहार्द से
अगर भारत को विश्व गुरु बनाना है
हर तरह के आरक्षण को हटाना होगा
काबिल युवाओं को आगे लाना होगा
आतंकवाद - नक्सलवाद को मिलकर हराना होगा
विदेश बसे भारतीयों को वतन लाना होगा
प्रत्येक व्यक्ति को देश के विकास में लगाना होगा
अगर भारत को विश्व गुरु बनाना है
जाति- धर्म के नाम पर देश को
बाँटने वाले नेताओं को हराना होगा
सब्सिडी -मुफ्त में देश का धन बांटने वाले
नेताओं को राजनीति से हटाना होगा
देश से भुखमरी और महंगाई को हटाना होगा
बेरोजगारी को मिटाकर
प्रत्येक के लिए रोजगार जुटाना होगा
साथ ही प्रदूषण मुक्त
शुद्ध स्वच्छ भारत बनाना होगा
अगर भारत को विश्व गुरु बनाना है
युवा शक्ति को करना होगा जागृत
योग्य और शिक्षित लोग ही चलाएं सरकार
देशभक्ति देशप्रेम जिनकी रग- रग में हो
ऐसे देशप्रेमी ही करें देश का नेतृत्व
दें हमारे समाज को एक नवीन आकर
अगर हमारे प्यारे भारत को विश्व गुरु बनाना है


- प्रवीण कुमार


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क्या लगती है

जिन्हें ग़मों की हवा लगती है,
शराब भी उन्हें दवा लगती है!

देते हैं गालियाँ नफ़रत से जो,
गरीबों को वो दुआ लगती हैं!

होती हैं कमियाँ हसीनों में इतनी,
फ़िर भी आशिकों को अदा लगती हैं!

फिक्रमंद हूँ मैं एक तुम्हारी ख़ातिर,
यही बात उसे मेरी खता लगती है।

घर में महफ़ूज़ है आबरू तेरी,
ये उस नादान को सज़ा लगती है!

कोई तो आँसू बहाता है उम्र भर,
किसी को ज़िंदगी मज़ा लगती है!

तमाम सवालात हैं, ज़ेहन में मेरे,
अब तू ही बता तू मेरी क्या लगती है।


- आनन्द कुमार


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प्राकृति मेरी दुनिया

झील से खुशियों के अश्क बनाएंगे।
बर्फ के तहखानों से दिल बनाएंगे।
समंदर के मौजों से धड़कन बनाएंगे,
अंधेरों को काली आंखे बनाएंगे।
ओस के बूंदों से मोतियों के माला बनाएंगे।
फूलों के रसों से नदी,
तालाब, दरिया बनाएंगे।
वर्षा के नीर से अमृत बनाएंगे।
महो अंजुमन से आसियाना बनाएंगे।
सूर्य को महल का चराग़।
हरे भरे मैदानों से बिस्तर बनाएंगे।
ऊषा काल को ओढ़ने का चादर बनाएंगे
पर्वत ,पहाड़ों को गार्जियन बनाएगी।
सारे जनवरो को परिवार बनाएंगे।
हाथियों के झुंड को पहरेदार बनाएंगे।
हवाओं को यातायात का साधन बनाएंगे
बादल के टुकड़ों से रास्ता बनाएंगे।


- सदानंद गाजीपुरी


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इंसान होने का फ़र्ज़

औरों की तरफ बेवजह झांकने के बजाय,
अच्छा है कि अपने गिरेबान में झांका जाय।

दुनिया सुधारने में तो सब लगे हैं शिद्दत से,
अच्छा है कि पहले खुद को सुधारा जाए।

दूसरों की कमियां तो जल्दी ही आती हैं नजर,
मसला ये है अपनी कमियां कैसे नजर आए?

इशारा तो झट कर देते हैं कभी दूसरों की ओर,
बाकी तीन उंगलियों की तरफ कैसे नज़र जाए?

जब कभी भी उछाला जाता है दूसरों पर कीचड़,
अपने ऊपर पड़ने वाले छींटों से कैसे बचा जाए।

किसी के सुख में शामिल होने से अच्छा है,
किसी मजलूम के गम में शामिल हुआ जाए।

इंसान के रूप में तो सब जी रहे हैं दुनिया में,
इंसान वो है जो इंसान होने का फ़र्ज़ निभाए।


- राज कुमार कौंडल


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अखबार

तू हर रोज़ सुबह,चला आता है,
दुनिया की सारी, खबर दे जाता है।

बिना शोर किए,
कभी टी टेबल,
तो कभी डायनिंग टेबल,
या फिर आराम कुर्सी पर,
संग मेरे दो पल बिताता है।

खबरों से भरी होती है,
तुम्हारी थैली,
चाहे खबरें पड़ोस की हों,
या फिर हो दूर देश की।

तू खबरें ही नहीं,
भाव भी बताता है।
सराफा, दलहन, तिलहन के साथ,
नेत वन का ताव भी बताता है।

दवा, योग, निरोग
सब पर सलाह दे जाता है,
हर इतवार कुछ नया,
कुछ अलग किस्सा,
सुना जाता है।

हर सुबह होता,
तेरा बेसब्री से इंतजार,
इतना करते तुझपे ऐतबार।

तू ही है, अपना सारा समय,
दे जाता है।
आज भी नहीं बदला तू,
रिश्ते आज भी,
सारे निभा जाता है।


- रोशन कुमार झा


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वो मेरा बचपन और खेत

​वो बचपन की यादें, वो खेतों की मिट्टी,
जहाँ पैरों तले मेरे थी मेरी प्यारी धरती।
वो मेंढ़ों पे चलना, वो बेफ़िक्र हँसना,
हरियाली से लिपटा था, जीवन की हर रिश्ता।
​वो दूर तक फैले, सरसों के पीले खेत,
जैसे धरती ने ओढ़ी हो सोने की चादर।
उछालना कूदना भागना पतंगें उड़ाना,
ना फिक्र थी कल की, ना दुनिया दारी की।
​पिताजी का हल चलाना खेतों में,
और पीछे-पीछे मेरा दौड़कर जाना।
वो बैलगाड़ी की घर्र-घर्र, धीमी आवाज़,
लगता है जैसे कोई मीठा पुराना गाना।
​वो पेड़ों की छाँव में बैठकर खाना,
वो माँ के हाथ की ठंडी, रोटी और अचार।
पानी पीने को दौड़ना, कुएँ के पास,
था सबसे अच्छा हर दिन एक त्यौहार।
​वो बर्रे और तितली, वो मेंढकों का शोर,
वो खेत के किनारे आम जामुन का पेड़।
वो गीली दूब पर गिरना, फिर उठकर चलना,
बस यही था अपना, सबसे अमूल्य पल।
​अब शहरों में 'पार्क' हैं, 'फुटबॉल' का मैदान,
मगर उस खुली हवा की, खुश्बू कहाँ है?
वो मेरा भोला बचपन, वो खेतों की बातें,
अब बस तस्वीरों में, और यादों में ही ज़िंदा है।


- डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह


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दिव्य प्रेम

जब मैं शांत हो जाऊंगा
तुम अशांत हो उठोगे
हृदय के अंतकरण तक।

मेरा मौन
सदा के लिए तुम्हारे हृदय में
अशांति को विद्यमान कर देगा।

मेरे प्रेम की अभिव्यक्ति
तुम्हारे लिए करना
कठिन से भी कठिन हो जाएगी।

नव नासिका का
भेदन करता हुआ मैं
कभी दशम द्वार के
परमानंद के अमृत कलश का
अमृत पीता हूँ।

तो कभी अनाहत मैं बैठे
अपने इष्ट का स्पर्श कर
हंसता मुस्कुराता हुआ
फिर इस धरा पर
चुपचाप लौट आता हूं।

अपने अतृप्त हृदय के लिए
तुम्हें सहस्रार का भेदन कर
दिव्य प्रेम सरिता में
डूब कर मुझ में
लीन होना ही होगा।


- राजीव डोगरा


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27 November 2025

नौनिहालों की टूटती सांसें: हमें ही संभालनी होगी अपनी अगली पीढ़ी






बीते सप्ताह की ख़बरों पर नज़र डालें तो 
दिल दहलाने वाली घटनाएँ सामने आती हैं।
देश के अलग-अलग हिस्सों से ऐसी खबरें मिल रही हैं, 
जिन्हें पढ़कर मन सन्न रह जाता है।
अभी उम्र सीखने, समझने और सपने देखने की होती है, 
और हमारे नौनिहाल ज़िंदगी से हार मान रहे हैं।
सवाल यही है- आख़िर क्यों ?

क्या वाकई परिस्थितियाँ इतनी कठिन हो गई हैं ?
या फिर कहीं हमारी परवरिश, हमारा समय, हमारा साथ- 
इन सबमें कोई कमी रह गई है? 

बाहरी दुनिया तो कभी पूरी तरह अनुकूल हुई ही नहीं।
समस्याएँ थीं, हैं और रहेंगी।
पर दुखद यह है कि जब कोई बच्चा यह भयावह कदम उठा लेता है, 
तो उसके बाद बाहरी दुनिया को दोष देने
से कुछ भी वापस नहीं आता।
हमारे पुरखों ने एक गहरी सीख दी थी-
“पूरी दुनिया में कालीन बिछाने की कोशिश मत करो, 
अपने पैर में चप्पल पहन लो।”
अर्थ साफ है-दुनिया आपके अनुसार नहीं बदलेगी, 
किंतु हम अपने बच्चों को इतना सक्षम ज़रूर बना सकते हैं
कि वे उस दुनिया में आत्मविश्वास के साथ चल सकें।
आज हर घटना के बाद यही प्रश्न उठता है-
किस-किस से लड़ें?
किस-किस से न्याय मांगें?
और मान लें कि संघर्ष से कोई बदलाव हो भी जाए, 
तो क्या यह तय है कि ऐसी घटना फिर नहीं होगी?
सबसे बड़ा बदलाव घरों के भीतर आना चाहिए।



बच्चों की चुप्पी को सुनना सीखें

अक्सर हम बच्चा चुप हो जाए तो राहत मान लेते हैं।
पर सच यह है कि बच्चों की चुप्पी शोर से कहीं ज़्यादा खतरनाक होती है।
उनके भीतर चल रही उथल-पुथल का अंदाज़ माता-पिता को सबसे पहले होना चाहिए।
अच्छे कपड़े, अच्छे स्कूल, अच्छे गैजेट- ये सब ज़रूरी हैं,
लेकिन बच्चों को चाहिए आपका समय, आपकी बातचीत, 
आपका भरोसा और उनका भावनात्मक सहारा।
उन्हें यह महसूस होना चाहिए कि-
वे अपनी बात कह सकते हैं,
वे गलती कर सकते हैं,
वे कमजोर पड़ने पर भी स्वीकारे जाएंगे,
घर उनका सुरक्षित स्थान है।



अदृश्य दबाव, दिखती हुई त्रासदी

आज का बच्चा प्रतियोगिता से पहले तुलना से हारता है।
किसी की रैंक, किसी का रिज़ल्ट, किसी की उपलब्धि-
लगातार अपने आपको दूसरों के पैमाने पर नापते-नापते
उनके भीतर हीनभावना घर कर जाती है।
सोशल मीडिया इस आग में घी का काम करता है।
उनके मन में यह छवि बनती जाती है कि वे पर्याप्त नहीं हैं।
यहीं से उनकी लड़ाई खुद से शुरू होती है- 
और धीरे-धीरे वे हारने लगते हैं।



एक बच्चा खोकर माता-पिता जीवन भर खो जाते हैं
किसी माता-पिता पर जब ऐसी अनहोनी टूटती है,
तो वे बाहर से चाहे सामान्य दिखें,
पर भीतर से टूटकर बस एक ज़िंदा लाश बन जाते हैं।
सांसें चलती हैं, पर जीवन कहीं पीछे छूट जाता है।
एक खालीपन, एक टीस हमेशा के लिए दिल में बैठ जाती है।
यह सिर्फ एक घटना नहीं होती-
यह पूरे परिवार के अस्तित्व को हिला देती है।
अब हमें क्या करना चाहिए ?
घर में रोज़ कुछ मिनट खुलकर बात करें।
बच्चों को सुनें, डांटने से ज़्यादा समझें।
भावनाओं को दबाने की जगह स्वीकारने की आदत डालें।
पढ़ाई से ज़्यादा मानसिक स्वास्थ्य को महत्व दें।
बच्चों को यह भरोसा दें कि वे “परिणाम” नहीं, आपके बच्चे हैं।
उनकी किसी से तुलना न करें।
बच्चों को यह भरोसा दिलाएँ 
कि वे सिर्फ अंकों और उपलब्धियों का नाम नहीं,
बल्कि परिवार का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।
और सबसे ज़रूरी- उन्हें जीवन का महत्व समझाएँ।



अंत में...

बच्चों की मानसिक मजबूती ही भविष्य की सुरक्षा है।
अगर हम आज उनके मन को समझने के लिए समय निकालें,
उन्हें अपनापन और विश्वास दें,
तो कल शायद कोई बच्चा कठिनाई से 
घबराकर गलत कदम नहीं उठाएगा।

समस्या जितनी बड़ी दिख रही है, समाधान उतना ही सरल है-
इसका समाधान न तो किसी एक संस्था के पास है 
और न किसी एक व्यवस्था के पास।
यह जिम्मेदारी पूरे समाज की है-
और सबसे पहले उन परिवारों की, 
जहाँ बच्चे अपनी पहली सीख प्राप्त करते हैं।
अपने बच्चों का भावनात्मक हाथ थाम लीजिए।
उनके भीतर वह शक्ति जगाइए, 
जो दुनिया की कठिनाइयों से लड़ सके।
अगर हम आज ध्यान दे दें,
तो शायद कोई परिवार कल एक अंधेरे से बच जाए,
और एक बच्चा फिर अपने सपनों की ओर लौट सके।


                                                      - कंचन चौहान, बीकानेर


आज की प्रमुख रचनाएँ- 27 नवंबर 2025





विधा अतुकांत,
हां मैं कविता हूं
मन की धरा पर भावों की कविता
प्रथम जो हुई थी प्रस्फुटित,
वह क्रोंच पंक्षी के प्रेमी युगल की
पीड़ा को देख हुई थी घटित।
उस पीड़ा के अनुभव से,
हुए थे बाल्मिकी द्रवित।
और तत्क्षण ही जो शब्द,
हुआ था उच्चरित।
वही तो था प्रथम कालजयी कविता।
मन की धरा पर भावों की कविता।
हां मैं कविता हूं
जो मन की धरा पर छुपकर
चित्र उकेरा करती हूं।
पीड़ा की नमी पाकर,
नव पल्लव सा मै खिलती हूं।
मै ही तो राधा बनकर
श्याम की बंशी बजाती हूं
मैं ही तो बनकर मीरा
भक्ति की राह दिखाती हूं
मैं ही द्रौपदी के चीड़ में
पीड़ा बनकर रोई हूं
मै ही तो अहिल्या बन,
निष्पाप कलंकित के अश्रु से
पाषाण बन कर सोई हूं,
हां मै ही तो हर मन की धरा पर
भावों की कविता हूं,
नेह, प्रेम व पीड़ा से सिंचित होकर
कवि के उर में बिखरती हूं।
हां मैं कविता हूं।


- रत्ना बापुली


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अपने जमाने की किताब थे,आप
रोशन करते हर दिल,
वो आफताब थे,आप।

कभी जो याद आओगे तो,
जमाने को बताएंगे हम,
देखो ऐसे थे,हमारे प्यारे धरम।

आपकी देख कर ही,
सजती थी महफिल,
आपको देख कर ही ,
लगाया था आशिकों ने अपना दिल।

बहुत कुछ दे गए,जीना हमको सिखा गए,
जब जरूरत थी हमको आपकी,
सारी खुशियां समेटे,
हमें तन्हा  हमें रुला गए।


                                        - रोशन कुमार झा



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मैं भारत का संविधान हूं
जन जन की आवाज़ हूं
भारत का गौरव हूं
आमजन का अभिमान हूं
मैं देश का एकसूत्र हूं
मैं स्वतंत्रता का श्वास हूं
निष्पक्षता का आगार हूं
व्यवस्थापिका की व्यवस्था हूं
कार्यपालिका का कार्य हूं
न्यायपालिका का न्याय हूं
मीडिया की अभिव्यक्ति हूं
स्वायत्तशासी संस्थानों की उन्मुक्त स्वतंत्रता हूं
लोकतंत्र का गुणगान हूं
मैं भारत का संविधान हूं
मैं समता का वादा हूं
मैं करूणा की संवेदना हूं
मैं मानवता का पोषक हूं
मैं जनकल्याण में निहित हूं
मैं अंतिम छोर तक का संबल हूं
मैं मौलिक अधिकारों का बोध हूं
कर्त्तव्यों की चेतना हूं
नीति निर्देशक में सरकारों का दर्पण हूं
संवैधानिक उपचारों का अर्पण हूं
राष्ट्रपति का अभिभाषण हूं
प्रधानमंत्री का सदन हूं
मैं भारत का भाग्य विधान हूं
मैं संसद की मुखर आवाज़ हूं
मैं विधानसभा की विधायका हूं
समता, समानता और स्वतंत्रता का पूरजोर हूं
समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता का ईमान हूं
वैज्ञानिक दृष्टिकोण का आगाज़ हूं
प्रेम, भाईचारा और मोहब्बत का पैगाम हूं
दयालुता- करूणा मेरे प्राण हैं
मैं जन जन का सुरक्षा कवच हूं
मैं लचीला हूं
मैं कठोर हूं
मैं भारत का संविधान हूं
मैं बाबा साहेब के सपनों का भाव हूं
मैं शांति का पैगाम हूं
वैश्विक बंधुत्व का साथी हूं
हां!
राष्ट्र की एकता और अखंडता का प्रण हूं
मैं भारत के लोगों का प्राण हूं
मैं भारत का संविधान हूं।


- जितेन्द्र कुमार बोयल


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अंगीकृत हुआ था संविधान
आज के ही दिन,
मिटा था ऊंच नीच का भाव,
आया था समान विधान,
हर्षित हुआ था मन,
साथ में खुशी थी आई
संविधान दिवस की सभी
भारत वासियों को बहुत बहुत बधाई...
अधिकार मिले थे भारतीयों को
हटा था फिरंगियो का चाबुक,
छोड़ना पड़ा था देश उन्हें
जाना पड़ा था इंग्लैड,
हर्षित हुए थे भारतीय,
आया था कानून का शासन,
अंगीकृत हुआ था संविधान
सभी ने खुशी थीं मनाई,
संविधान दिवस की सभी
भारत वासियों को बहुत बहुत बधाई...
प्रेम, भाईचारा और मोहब्बत का सबक
सिखाता है संविधान,
समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और
सहिष्णुता का ईमान हैं संविधान,
बाबा साहेब अंबेडकर के सपनों को
पूरा करने और शांति का पैग़ाम देता है संविधान,
जनमानस की भावनाओं की पूर्ति कर,
सभी के कल्याण की कामना करता है संविधान,
अंगीकृत हुआ था संविधान आज के दिन,
सभी ने खुशी थीं मनाई,
संविधान दिवस की सभी
भारत वासियों को बहुत बहुत बधाई...

- बाबू राम धीमान


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मोह का बन्धन

अंतिम श्वास को बिखेर कर,
मोह माया में फसी हूँ।
आश का दीपक जला,
इन नातों में धसी हूँ।
ये बूंदें याद कराती हैं,
उन बीते पलों को।
जिनकी ओट में,
जीवन सवार बैठी हूँ।
उन प्रीतों को आज़ाद कर,
आज सबसे मुँह फेर लेटी हूँ।
इन सुरभि की छाया में,
उस मोक्ष का नशा है।
जिसमें मिलेंगे मेरे महाकाल,
आज उस श्मशान में मेरी अतिंम दशा है।


- ऋषिता सिंह


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कच्चे दीवारों वाला मकान लौटा दे,
कोई तो मुझे मेरे आंगन का वो शाम लौटा दे।

वो सूरज की पहली किरण,
और वो सुबह-सुबह मुर्गे की बांग लौटा दे।
जब हम जाने जाते थे अपनी बड़ों के नामों से,
बस वही पापा वाला पहचान लौटा दे।

बस वही शाम लौटा दे।
जो हम दूसरे के बागों से चुराया करते थे,
फिर वही बागों वाला कच्चा आम लौटा दे।

बिना बोले जो समझ लेते थे हर दुःख-दर्द को,
पड़ोसियों में बस वही इंसान लौटा दे।
कोई तो हो जो वो मेरा भारत महान लौटा दे।


- नंदिनी चौधरी


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इंसानों की अदालतें बस फ़ैसले सुनाती हैं,
पर न्याय की असली राह कहीं और ले जाती है।

शब्दों का वजन बदल जाता है हालातों के साथ,
कभी सत्य हार जाता है, कभी झूठ को मिलती है मात।

न्याय के नाम पर खुली सब दुकानें हैं,
हर तरफ़ फुसफुसाहट, हर तरफ़ स्वार्थ की राहें हैं।

इंसानों से न्याय की उम्मीद रखना व्यर्थ है,
वे भी तो डर और स्वार्थ की जंजीरों में बंधे रहते हैं।

सच्चा न्याय वहीं मिलता है, जहाँ मन शांत होता है,
जहाँ ईश्वर की नजर सब पर बराबर होती है।

वही जानता है छुपा दर्द, वही पहचानता है सच्चाई,
वही देता है सही फ़ैसला, जहां न कोई अन्याय की परछाई।

इसलिए झुको मत, टूटो मत, उम्मीद की लौ जलाए रखो,
न्याय पाना है तो ईश्वर से ही मांगो।


- रजनी उपाध्याय


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एकता, समता की पहचान रहे;
दुनिया का सबसे बड़ा संविधान रहे ;

अम्बेडकर जी सदा चमकते रहे;
दर्प से भरा आसमान रहे ;

अपने परिवार की कुर्बानी दी है ;
आलम में हमेशा अहसान रहे;

सबका उद्धार सबका सम्मान ;
मानव मानव एक समान रहे;

सब लोग पढ़े लिखे इस देश में ;
जिंदाबाद मेरा हिंदुस्तान रहे ;

स्त्री हो या पुरुष हो;
दुनियां में अलग पहचान रहे;

पृथी भले ही मिट जाए;
लाज़िम है चांद पर निशान रहे ;

फिजा में प्रेम की गूंज गूंजती रहे;
दुश्मन हमेशा परेशान रहे;

हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई ;
वफ़ा के जन्नत में इंसान रहे ;

नफरती दीवार ढह जाए;
करुणा भाव से भरा मकान रहे;

शरहद महफूज रहे;
सुरक्षित हमारे नौवजवान रहे;

खेतो में सोने की बारिश हो;
खुशहाल देश का किसान रहे।


- सदानंद गाजीपुरी


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शराबी

किसी के लिए सुकून है तो,
किसी के लिए जुनून है शराब
किसी के लिए दवा है ग़म भुलाने की
तो किसी के लिए खून है शराब
ये अक्सर उजाड़ देती है हंसते खेलते घर,
मगर शराबियों के लिए बड़ी हसीन है शराब।
ये वो नशा है जो रिश्तों को खा लेता है,
अपनों से ही नफरत करा देती है शराब।
कम पढ़े लिखे होने का दुख भुलाकर,
बिना पढ़े ही इंग्लिश बुला देती है शराब।
इंसान को सिखा देती है हालात से समझौता करना,
कई बार नाली में ही बिस्तर लगा देती है शराब।
बेरोजगार को व्यापार सिखाकर,
घर के बर्तन भांडे सब बिकवा देती है शराब।
मां , बेटी, बहन और बीवी का शोषण कर,
इंसान को हैवान बना देती है शराब।
ना जिंदा रखती है ना आसानी से मरने देती है,
गुर्दे , लिवर , फेफड़े सब गला देती है शराब।
भुला देती है सारी तहजीब और संस्कार,
कई बार मौत की नींद भी सुला देती है शराब।
माना कि शराबी की जान शराब होती है
मगर छोड़ दीजिए ये चीज बहुत खराब होती है।


- मंजू सागर


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ममतामयी है माँ
मां तेरे नेत्रों में है प्रेम सिंधु
तेरे शब्दों में है स्नेह अपार
वात्सल्य की तुम मूरत हो
तुम हो ममता की कामधेनु
मां तुम हो ईश्वर साक्षात
मां तेरी गोद है
अनंत सुखों की खान
माँ तुम ही हो प्रथम शिक्षक
देती हो संतान को
अच्छे संस्कार एवं सर्वोत्तम ज्ञान
मां तुम हो अनूठी, तुम हो अत्यंत प्रिय
तुम्हारा अगाध, निश्छल प्रेम पाने,
तेरे मातृत्व का सुख पाने
मेरे प्रभु कभी राम,तो कभी श्याम
बन कर बसुधा पर चले आते हैं
धन्य हो ममतामयी, वात्सल्यमयी मां
तुम्हारे गुणों को शब्दों में
कैसे करूं बयां
शब्दों से परे हो तुम मां
बारंबार तुम्हें नमन है मां


- प्रवीण कुमार


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अपना होना चाहिए गुणगान

बिना तार के इस ज़माने में चलते हैं फोन
लकड़ी बिना जलाये चलती है गैस
कारें बिना चाबी के चल रही
बिना घी के रोटी खाकर कर रहे सब ऐश

बिना ट्यूब के चलते पहिये
बिना बाजू के हो गए परिधान
युवा दर दर घूमें होकर बेरोजगार
नेताओं को शर्म नहीं जो दें इस बात पर ध्यान

रिश्ते हो गए बेमतलब के
नज़रिया हो गया बेपरवाह
पत्नियों को डर नहीं पति का
उलझते रहते खाहमखाह

भावनाएं किसी में रही नहीं
शिक्षा हो गई बिल्कुल बेकार
संस्कार विहीन हो गए बच्चे
छोड़ दिये बुजुर्ग और घरबार

शान हमारी फिर भी अनोखी
उम्मीदे उड़ती फिरती आसमान
काम कोई नहीं करना चाहता
यह देखकर खामोश हो गई ज़ुबान

खा रहे सब बी पी मधुमेह की दवाई
संस्कार बिना किस काम की पढ़ाई
संवेदनहीन हो गए परवाह नहीं किसी की
तैयार बैठे रहते हैं करने को लड़ाई

अहंकारी बड़े खुद की इज़्ज़त को देते अधिमान
स्वार्थी और मतलबी हो गया इंसान
अपनी अपनी पड़ी है सबको दूसरों से क्या लेना
अपना ही चाहिए सबको गुणगान


- रवींद्र कुमार शर्मा


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