साहित्य चक्र

30 October 2025

गांव की गुजरती साँझ

मुझे वो दिन आज भी याद हैं जब सांझ के समय गांव में कुछ और ही रौनक रहती थी प्रत्येक उम्र की अपनी कयावद रहती थी, पर जीवन भागदौड़, बदलता परिवेश, पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव, रोज़ मर्रा की आवश्यकताएं, शिक्षा , स्वास्थ्य आज धीरे धीरे गांवों की रौनक एवम् गरीमा के लिए नासूर बन गया है।आज उत्तराखंड में बहुत सारे ऐसे गांव हैं जो उत्तराखंड के मानचित्र में अंकित तो हैं पर उन गांवों में जिंदगियों का अभाव है जिसके कारण उन गांवों की चकाचौंध शहरों में दफ़न कर दी गई है।







90 के दशक की बात करूं तो गांवों की चहल कदमी, खेत (पुंगड़ा) चौक दंडयाली (घर का आंगन), बाटा-घाटा (रास्ते) सब कुछ आबाद थे, परन्तु धीरे धीरे एक दूसरे की (सिकासौर) ने गांवों के जीवन को निर्जन करने में पूर्ण सहयोग किया है।

आज उत्तराखंड में कई गांव हैं जिनको भूतिया गांव के नाम से भी जाना जाता है। उत्तराखंड का वो गांव भद्रपुर (काल्पनिक नाम) पहाड़ों की सुरम्यता बाज़, बुरांश, थूनेर, काफ़ल, देवदार, राग के जंगलों के बीच बसा गांव जहां कभी ऐसी रौनक रहती थी कि सुबह अंशुमली के आगमन होते ही गांव की महिलाएं, पानी के लिए कतारबद्ध रहती थी। हल्का हल्का अंधेरा है और उठकर सभी महिलाएं पानी के धारे (मंगेरा) पर हैं कुछ बाते कर रही है, गांव का जीवन बहुत ही कष्टप्रद तो था पर आनंद भी उतना ही था, संघर्षमय था।

बसंती (काल्पनिक नाम) काकी सुबह उठ कर सबसे धारे पर पानी को जाती बाकी घर के सभी सदस्य सोए हैं पर चाची का रोज का काम था ब्रह्ममुहूर्त में उठना और फिर चूल्हा चौका करना यानी चूल्हे की लिपाई पुताई करना फिर सर्वप्रथम चाय बनाना और सबको देना। उसके बाद गौशाला जाना क्योंकि मंगतू (काल्पनिक नाम) काका ने बहुत सारे मवेशी रखे थे एक भैंस जिसका नाम कालू था ,एक गाय जिसका नाम गौरी था एक बैलों की जोड़ी थी जिनका नाम कम्मू गम्मू था।






तो बसंती काकी एक सेवक धर्मी थी जो मवेशियों को भी अपने बच्चों के जैसे पालती-पोसती मां का फ़र्ज़ निभाती बच्चे खूब बड़े हो गए और घर की दयनीय स्थिति को भांपते हुए खूब मन लगा कर पढ़ा करते , मंगतू काका ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे केवल अक्षर ज्ञान था पर बच्चों को खूब समझाया करते और उनको बाहरी दुनियां के बारे में बताया करते बच्चे भी जिनका नाम वंश एवं वंशजा था काफी होनहार थे दोनों खूब मन लगाकर पढ़ते थे।

वंश का सपना था की मैं सेना का बड़ा अधिकारी बनूंगा एवं वंशजा डॉक्टर बनना चाहती थी क्योंकि उसकी दादी अकसर बीमार रहती थी इसलिए उसने मन में सोच लिया था।बसंती चाची भी पढ़ी लिखी नहीं थी फिर भी उनको खूब पढ़ने लिखने के लिए प्रेरित करती थी बाकी समय उनका खेत खलिहान में व्यतीत हो जाया करता था। गांव में लगभग 20 /25 परिवार ही निवास करते थे। उनमें से कुछ लोग पहले ही बाहर रोजगार के लिए चले गए। और धीरे धीरे वहीं बस गए अब गांव में मात्र 15 /17 ही परिवार थे जिनमें भी कुछ परिवारों में केवल बुजुर्ग माता पिता थे।






पर उनके बच्चे बार त्यौहार (विशेष कामों) में घर आया करते थे। गांव में आज भी अच्छी रौनक थी। वहीं पास में हिरूली दादी रहती थी उनका एक बेटा था जो देहरादून बस गया था दादी को वहां पसंद नहीं आया तो दादी घर पर ही रहने लगी। कभी कभी बेटा बहु घर आते तो घर सुंदर लगता ओर दादी भी खुश दिखाई पड़ती कुछ दिन बाद बेटा बहु चले जाते तो दादी उदास हो जाती पर वंशजा हिरूली दादी के पास अकसर जाया करती थी ।दादी उसको बहुत प्यार करती थी और कभी कभी कुछ खाने को दे दिया करती थी।

गांव में जब भी तीज त्यौहार आते सारे गांव का माहौल कुछ और ही होता घरों से सुंदर पकवानों की सुगंध घर के मंदिरों से शंखनाद ,घंटियों की धुन, धूल की खुशबू आदि मन को मोहित करते फिर एक दूसरे के घर जा कर पूरी पकौड़ी दिया करते साथ में बैठा करते। रात को झुमैलो, चौंफुला, बाघ बाखरी का खेल खेला करते बुजुर्ग लोग गांव में जो गांव का पधान होता उनके घर पर चौपाल लगाकर बैठा करते और हुका तंबाकू पिया करते, और पूरे दिन की आपबीती सुनाया करते गांव का हर एक शख्स एक दूसरे की मदद करने के लिए तत्पर रहते।





यही गांव की परम्परा थी ,प्रात होते ही सब अपने अपने कामों पर चले जाते, दिन में आते खाना खाने के बाद थोड़ा आराम करते फिर काम पर चल देते पर जब सांझ का समय होता तो वो समय कुछ अलग सा प्रतीत होता गोधूलि से मिट्टी की भीनी भीनी सुगंध, घरों में जलते चूल्हे, किसी किसी घर के चूल्हों पर ठंड से निजात पाती वृद्धाएं घरों से निकलते धुएं से आसमान को सूचित करती धुवां कि पतली लकीरें मानो ये बताने की कोशिश करती की अपने अपने कामों से आए महिलाएं पुरुषों को थोड़ा आराम दो।

वंशजा और वंश भी धूमिल हो कर घर में आए हैं तभी बसंती चाची उनको फटकार लगाते हुए पढ़ाई के लिए भेजती वो भी डिबरी (चिमनी) जला कर दोनों पढ़ने लगते और भोजन बनते ही दोनों भोजन के लिए भागते और भोजन करने के पश्चात दिनभर के थके हारे कब सो गए पता ही नहीं चलता धीरे धीरे समय बीतता गया और वंशजा सयानी हो गई का उसने 12 वीं उत्तीर्ण कर ली कुछ पता ही नहीं चला। मंगतू चाचा के पास इतना पैसा नहीं था कि वंशजा को बाहर शहर अकेले पढ़ाने को भेज सके , वंशजा के सपने सपने रह गए अब वंशजा 18 पार की हो गई और मंगतू चाचा ने उसकी शादी करा दी। वंशजा ससुराल चली गई और ससुराल में बड़े तौर तरीके से रहने लगी ये वो समय था जब लड़कियों को बहुत कम पढ़ाया जाता था पर वंशजा फिर भी काफी पढ़ी हुई थी।

इधर वंश भी 12 वीं पास हो गया वो भी अच्छे अंकों से तो बसंती चाची ने वंश को पढ़ाने के लिए मंगतू काका से पैरवी की और मंगतू काका ने वंश को श्रीनगर रख दिया जहां वंश पढ़ाई करने लगा और कभी कभी घर आया करता था और इसी बीच वंश सेना में भर्ती हो गया बसंती काकी और मंगतू काका का खुशी का ठिकाना ना रहा पर इसी बीच वंश की दादी का स्वर्गवास हो जाता है कुछ दिन घर की खुशियां दुखों में बदल जाती पर कुछ ही दिनों में सब सामान्य हो जाता।

अब वंश को भी सेना में चार पांच साल हो गए तो मंगतू काका वंश की शादी करा देते हैं बहु भी पढ़ी लिखी थी और मायके से भी ठीक ठाक थी तो ज्यादा समय घर पर नहीं रहती और वंश के साथ जाने की जिद करती अंत में बसंती काकी जाने की इजाजत दे देती और फिर दोनों घर में अकेले रह जाते अब दोनों भी काफी उमर दराज हो चुके हैं।





बेटा वंश छुट्टियों में घर आता कुछ दिन रुकता फिर चला जाता।अब बसंती काकी के नाती नातिन हो गए पर क्या करें उनको देखने का सुख नहीं मिल पाया क्योंकि वो अब धीरे धीरे घर कम ही आया करते । वहीं हिरूली दादी के बेटे ने भी घर आना छोड़ दिया क्योंकि हरिद्वार में अपना आलिशान घर बना लिया जिससे उसे भी घर का माहौल बिल्कुल अच्छा नहीं लगता और ना बीबी बच्चों को।इसी तरह गांव में ओर भी कमी आ गई अब केवल 8 /10 परिवार रह गए ।वो भी मजबूरी में जिनके पास कोई साधन नहीं।

धीरे धीरे बसंती काकी और मंगतू काका भी बूढे होने लग गए बेटी वंशजा कभी कभी अपने माता पिता से मिलने आया करती पर उसको भी समय नहीं मिलता क्योंकि गृहस्थ जीवन में फंस गई ।लेकिन अब बेटा वंश बिल्कुल नहीं आता पर कभी कभी पैसे भेज दिया करता ।मंगतू काका ने भी सभी गाय भैंस बेच दिए कम्मू गम्मू भी बगल के गांव के गोकुल राम को दे दिए और अब वही उनके खेतों में हल लगता है। गांव की चौपाल भी अब धीरे धीरे सुनी होने लगी। कुछ दिन बाद हिरूली दादी भी चल बसी।

और अब गांव में आधा से ज्यादा घरों में चूहों (मूसों) का बसेरा हो गया कुछ घर गिर गए ,कुछ घरों की केवल दीवारें बची हैं मानो गांव खाने को आता है। खेतों में बजती बैलों की घंटियां अब केवल एक दो रह गई हैं कई खेतों ने संन्यास ले लिया है बस कुछ ही खेत आबाद दिखते। सुबह के समय अब बसंती काकी भी हलके कदमों के साथ धारे पर बर्तनों की आवाज करती और कुछ और बुजुर्ग माताएं बस, रास्ते सूने पड़े थे जहां पर कभी खूब चहकदमी हुआ करती थी।

आज कभी कभार एक दो ही दिखते चौपाल भी अब खत्म हो चुकी कोई नहीं रहा गांव में जिस चौपाल में पधान जी हुआ करते थे उन्होंने भी देहरादून में कोठी बना ली अब गांव में बसंती काकी और मंगतू काका जो दोनों एक दूसरे का सहारा बने हैं और एक उनके साथी रामदा जिनकी अवस्था भी जरा है बस वो भी कभी कभार मिला करते अब सांझ को मंगतू काका और रामदा बैठे रहते हुक्का लिए हुए और शहर से आने वाले राह को धुंधली नजर से ताकते रहते।






अब ये उनका रोज का काम है कि कोई घर वापस आएगा ।फिर ये गांव चहक उठेगा पर ऐसा कुछ नहीं होता और ऐसे ही मंगतू काका सुबह उठते हैं और रामदा के पास जाते हैं तो रामदा घर में चूल्हे के पास ही अकड़ी देह के साथ शरीर त्याग चुके होते हैं मंगतू काका भी काफी विलाप करते और कैसे करके उनके बच्चों को संदेश पहुंचाते अब पूरे गांव में मंगतू काका और बसंती काकी हैं।

इसी बीच वंश घर आता और अपने माता पिता को अपने साथ ले जाने के लिए कहता पर दोनों मना कर देते की हम से प्रदेश में नहीं रहा जाता जिस मिट्टी ने हमको यहां तक पाला है वो आगे भी पालेगी वंश के बहुत मनाने पर भी वृद्ध माता पिता अपने ही घर पर रहने की जिद करते हैं वंश फिर चला जाता है।मंगतू काका और काकी फिर वही अपना समय बिताने लगते अब गांव खाने को आता पर वो अपनी दुनियां में जी रहे और सांझ को छज्जे पर बैठ कर राह निहारते मंगतू काका की आँखें नम हो जाती और मन ही मन यही सोचते अब वो सांझ नहीं आएगी।

और एक दी सूचना मिलती मंगतू काका और बसंती काकी ने भी गांव को अलविदा कह दिया। अब एक और गांव पलायन की भेंट चढ़ गया और जिसका मूल नाम बदल कर भूतिया पड़ गया सरकारों की बेबाक नीति और आज की होड़ धीरे धीरे गावों को निर्जन एवं जिंदगी विहीन कर देंगे।


- कैलाश उप्रेती "कोमल"



आज की प्रमुख रचनाएँ- 30 अक्टूबर 2025






कौन तुम
शीतल हवा सी
छूकर मुझे
गुजरी यहां से
एक सिहरन सी हुई
बात न कुछ भी हुई
न तुम तुम रहे
न मैं मैं रही
बस दो बदन
एक हो गए।
चाह कुछ
ऐसी जगी
दिल में
हलचल सी मची
मंदिर में कहीं
प्रार्थना सी हुई
और हम
मिले गले
हाथ दोनों
थामकर
कदम कदम
हम चले।
स्नेह से भरे हुए
करार आंख में लिए
खड़े खड़े
बस देखते रहे।
बात कुछ
न हुई
ओंठ फड़फड़ा गये।


- सुधा गोयल



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स्वीकार

ये जो बुझी सी हैं आंखे,
कभी तो इनमें,
चमक रही होगी।

जो दिख रहा, गुलशन वीरान,
कभी तो इसमें,
पंछियों की चहक रही होगी।

जो हो गए,
खंडहर वक्त की मार से,
कभी तो ये,
रियासत गुलजार रही होगी।

तू क्यों देखे,सबों को,
इस दुनियां की नजर से,
आज अगर सलामत हो तो,
किसी ने बचाया होगा,
तुम्हें, कयामत की कहर से,

जवाब सबका मिलता नहीं,
ऐसा क्यों, वैसा क्यों नहीं।

कभी इत्मीनान से
अपने किताब के ,
अतीत के पन्नो को खोल
पाएगा तू हर उत्तर अनमोल।

तू ही नहीं जो सब कर रहा,
जगह जगह इतराता, फिर रहा
तू क्या समझे खुद को,
जो खुद को, न गढ़ सका।
सब हैं, लेख विधाता के,
इसे कब, कौन पढ़ सका।

कोई बचा नहीं,संसार में ,
वक्त के मार से।
बेहतर यही होगा कभी,
करो समझौता कभी,
अपनी हार से।

अमृत पान से पहले,
पीना होता है जहर।
आज अमृत प्याला, गर थामे हो तुम,
तेरे बदले किसे ने,
पिया होगा, हलाहल
रख पास, ये प्याला अपने अधर।


- रोशन कुमार झा



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मौका

झड़ जाते हैं दरख़्तों से वक्त बेवक्त जो पत्ते,
वो दोबारा फिर दरख़्तों से कभी जुड़ते नहीं।

होती है जो शान पत्तों की दरख़्तों के साथ,
मिट्टी में मिलने के बाद वो फिर होती नहीं।

जुड़कर रहने में जो मज़ा है अक्स के साथ,
वो टूट बिखरकर अलग होने में बिल्कुल नहीं।

कुछ अच्छा कर गुजरने को मिलते हैं जो लम्हें,
गुजरने के बाद वापिस वो पल मिलते नहीं।

दरख़्त के साथ रह बेशक कितने रूप बदलते हैं,
मिट्टी में मिलने के बाद फिर वो रूप बदलते नहीं।

आओ जुड़े रहे जड़ों से प्रेम गीत मिल गाते रहें,
साख से टूटने के बाद ये मौके फिर मिलते नहीं।

मौका मिला है मानव जन्म को प्रेम से जीने का,
जहाँ से जाने के बाद ये मौका फिर मिलेगा नहीं।


- राज कुमार कौंडल


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चिकनी चुपड़ी बातें करना
ये काम हमारा नहीं,
दूसरों की बातों का
क्यों बुरा मनाएं,
मन की आवाज़ सुनकर ही
जो स्वयं को अच्छा लगे,
वही करना, यही कर्म हमारा है
चिकनी चुपड़ी बातें करना
ये काम हमारा नहीं...
दूसरों को उपदेश देना,
दस्तूर बन गया है जमाने का,
शेखी बघारना काम है लोगों का
ज़रा अपने अंदर झांक कर तो देख,
वास्तविकता से कहां तक रूबरू होते हो?
अपने में भी आजमा कर तो देख
चिकनी चुपड़ी बातें करना
ये काम हमारा नहीं..
परजीवी क्यों बनना ?
दूसरों के कंधे पर बंदूक क्यों चलानी?
अपने कंधे पर भी रख के तो देख
दुनियां कहां बस्ती है?
परीक्षा लेकर तो देख,
स्वार्थी, मतलबी हैं लोग
किसी को अपना बना कर तो देख
छोड़ चिकनी चुपड़ी बातों को
अपना कर्म करता चल
चिकनी चुपड़ी बातें करना
ये काम हमारा नहीं..

- बाबू राम धीमान


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रखता नहीं इरादा उससे अदावत कर लूँ।
फिर भी जी में आता है बगावत कर लूँ।।

बंदिशों में कब तक संबंधों को घुटने दूँ,
चाहता हूँ टूट पडूं,छक कर दावत कर लूँ।।

तेरी महफ़िल के बहुत नायाब किस्से सुने हैं,
फिर सजाओ महफ़िल मैं भी निज़ामत कर लूँ।।

अकेले में तू जो रुख अख्तियार करता है,
एक बार महफ़िल में भी उसकी सदाकत कर लूँ।।

विकास उसके अक्स पर कई काले धब्बे हैं,
रुख सामने आये जरा तबियत से हजामत कर लूँ।।


- राधेश विकास


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घर का जोगी जोगड़ा आन गांव का सिद्ध
गला घोटे जज्बातों का, बनाते उन्हें निखिद,
तड़पा तड़पा कर जज़्बातों को मारते यारों,
कौड़ियों के भाव तोलना इनकी पुरानी रीत
घर का जोगी जोगड़ा आन गांव का सिद्ध...
खोखला इनका बड़प्पन, खोखली इनकी शान
शेख चिल्ली से दिखाते सपने, झूठे सारे अरमान,
सफेद पोश बन रौब दिखाते, करते अपना गान
हर वक्त रचते षड्यंत्र यारों,क्या करें कोई उम्मीद
घर का जोगी जोगड़ा आन गांव का सिद्ध...
बातें बनाते बड़ी बड़ी, करते दिखावा मीत
बरगलाना काम इनका, कभी न छोड़ते सीट
बहरे बन बैठते सभा में,आफत पड़ने पर देते खीट ,
धीमान ऐसे लोगों का विश्वास न करें, छोड़ दें सारी उम्मीद
घर का जोगी जोगड़ा आन गांव का सिद्ध...

- बाबू राम धीमान


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गीता जीवन जीना सिखाती है
गीता हमें बताती है
ईश्वर हैं सर्व व्यापक
ईश्वर हैं सर्वशक्तिमान
ईश्वर अथाह हैं ईश्वर असीम हैं
ईश्वर हैं अनंत
शेष ईश्वर शब्दों से परे हैं
गीता हमें बताती है
ईश्वर का स्वरूप है कैसा
ईश्वर हैं शक्ति स्वरूप
ईश्वर आनंद स्वरूप हैं
ईश्वर हैं करुणा के सागर
ईश्वर प्रेम स्वरूप हैं
ईश्वर के अनेकों ऐसे स्वरूप
गीता हमें बताती है
गीता का एक-एक श्लोक
मिटाता है हमारा अज्ञान
गीता में बताया है
सब में ईश्वर व्याप्त हैं
यही है समत्व का ज्ञान
सब प्राणियों में ईश्वर है समाहित
अतः मत करो किसी को व्यथित
सबसे करो प्रीति
श्रीकृष्ण ने यही गीता में
अर्जुन को बतलाया है
कर्म करो पूरी निष्ठा से
कर्मफल में मत रखो आसक्ति
सीमित रखो अपनी कामनाएं
यही सदैव करती हैं व्यथित
नित्य स्वकर्तव्य संग
सदैव करो सेवा, सुमिरन और सत्संग
अगर तुम्हे ईश्वर को पाना है
यही गीता का सार है
गीता हमें उचित -अनुचित,
धर्म- अधर्म में भेद करना सिखाती है,
कर्तव्य और अकर्तव्य का बोध कराती है,
हमें जीवन जीने की कला सिखाती है।


- प्रवीण कुमार


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ऐ बरगद

ऐ बरगद कभी सोचा तूने,
कितने पौधों का दम घोंट,
फलने फूलने से उनको रोक,
विकास का न देकर मौका,
हटा नहीं राहों को रोका,
विश्वास में होता रहा धोखा,
आस पड़ोस तेरे हैं क्यूँ सूने,
ऐ बरगद कभी सोचा तूने।

श्रृंगार महफ़िल का तुझसे ही,
भ्रम तूने बना रखा बस यही,
पानी धरा का लेने दिया नहीं,
सूरज से भी परिचय हुआ नहीं,
बादशाहत अपनी कायम रहे,
जब तक हूँ चाबी मेरे हाथ रहे,
अब कोई अपने सपने कैसे बुनें,
ऐ बरगद कभी सोचा तूने।

पाता मौका तो पौधा लह्लाता,
उभर कर अपनी पहचान पाता,
दबा मुरझाया न वो रह जाता,
छटपटाया बहुत कुछ हुआ नहीं,
भविष्य की तुझे क्यूँ चिंता नहीं,
ताँता ये एक से ही चलता नहीं,
है तुझे क्यूँ पसंद बस अपनी ही धुनें,
ऐ बरगद कभी सोचा तूने।


- धरम चंद धीमान


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गांव,
शहर जाना चाहता है,
शहर,
महानगरों में जाना चाहता है
महानगर,
विदेश जाना चाहता है
विदेश,
चांद पर जाना चाहता है
मगर... मगर!
गांव की झोपड़ी में बैठी
"मां"
गोद में लिए बच्चे को
"चांद" कह कर दुलारती है
सच में
वो
अपने लाल को ही
चांदमल पुकारती है।


- जितेंद्र बोयल


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तो तुम अभी जिंदा हो।

गर ख्वाब देखे,जो रहे अधूरे
हो न पाए कभी पूरे,
तो तुम अभी जिंदा हो।

चले थे,सफर में अकेले,
मंजिल न मिलकर,
मृगतृष्णा मिली,
तो तुम अभी जिंदा हो।

किसी की आग बुझाने में,
गर जले अपने हाथ,
जिसने छुड़ाया दामन अपना,
जमाना,
तुम ने उसका छोड़ा न
साथ,
तो तुम अभी जिंदा हो।

अगर इस पराई दुनिया में,
किसी अपना को ढूंढ रहे हो,
ठंडी राख,में चिंगारी
ढूंढ रहे हो,
तो तुम अभी जिंदा हो।

हां,सचमुच तुम जिंदा हो,
जो उड़ानों से रौंदे आकाश को,
तुम वही परिंदा हो।

ये मुसीबतें जायेंगी,
तुमसे एक दिन हार,
तुम मुसीबतों के लिए,
मजबूत फंदा हो।

जिसे ढूंढें, खुदा
बिलकुल वही तुम बंदा हो।

हां, सच में तुम अभी जिंदा हो।


- रोशन कुमार झा


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भविष्य का विश्वास हो तुम

कितनी कविताएं मर गई ,
कर्मठता के अभाव में।
कितने आविष्कार दबे पड़े हैं,
आलस्य के सरोकार में।
ये पशुत्व है! मानव स्वभाव नहीं।
जो कर्म पथ पर है, उसे
किन्तु –परन्तु का प्रभाव नहीं।
तुम निर्णय कर लो, क्यों आए हो!
क्या मात्र अन्न और श्वास गिन कर लाए हो!
या फिर उत्पन्न हुए हो उपभोग मात्र।
या विलास हेतु चयनित हो तुम ?
अरे ! पहचानो ! स्वयं को जानो।
अवतरित उद्देश्य के साथ हो तुम।
विशिष्ट हो, अद्भुत हो, दृढ़ हो
भविष्य का विश्वास हो तुम।


- अशोक कुमार


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ढूंढ रही हूँ मैं फिर एक वज़ह मुस्कुराने की, अगर चाहो तो तुम वह वजह बन जाओ। कोशिश में हूँ फिर से ख़ुद को पहचानने की, अगर चाहो तो तुम मेरा आइना बन जाओ। दर-बदर हूँ मैं जिस सुकून को तलाशने में, क्यों न मेरे लिए तुम वह ठिकाना बन जाओ। एक अरसा हुआ है जो मैं चैन से सोई नहीं, नींद आ जाए मुझे तुम वह शाना बन जाओ। अगर खो जाऊ जमाने की भीड़ में जो कभी, तो लौट आऊँ मैं तुम वह आशियाना बन जाओ। ख़्वाहिश बस इतनी की सिर्फ़ ख़्वाब में नहीं, दर-हक़ीक़त तुम मेरा मुक्कमल जहाँ बन जाओ।


- नाज़िया शेख


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संवाद

मन को कहीं न कहीं
उलझनों के झंझावात में
फँसा कर तड़पने को छोड़ देते हैं
वैसे संवाद
जो संवाद तो होते है
पर सिर्फ कहने को
वक्ता और श्रोता
कोई भी तृप्त नहीं हो पाता
शब्दों को भी तृप्ति नहीं मिलती
अतृप्त अक्षरों के साथ
पले-बढ़े शब्द
अपने नव-रूप से संतुष्ट नहीं हो पाते
हृदय में बेचैनी को ढोते हुए
विचलित मन के साथ
संवाद अतृप्त रह जाते हैं
उद्देश्य फलित नहीं होता
संवाद बिलखते हैं।


- अनिल कुमार मिश्र



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28 October 2025

आज की प्रमुख रचनाएँ- 26 अक्टूबर 2025




प्रकृति मां
फूलों से सीखो मुस्कुराना
कांटो से सीखो लड़ना
व्योम से सीखो हृदय की विशालता
धरा से सीखो धैर्य तुम
आदित्य से सीखो निरंतरता
शशि से सीखो अंधेरों से लड़ना
यह प्रकृति मां है
मयूर से सीखो नृत्य
भंवरों से सीखो गायन तुम
नदियों से सीखो सदैव चलते जाना
लहरों से सीखो उमंग एवं उल्लास
झीलों से सीखो शांति
मैदानों से सीखो सहिष्णुता तुम
पहाड़ों से सीखो स्थिरता
पत्थरों से सीखो दृढ़ता तुम
यह प्रकृति मां है
पेड़ों से सीखो परोपकार तुम
वर्षा से सीखो दूसरों को
हर्षित करने का भाव तुम
हवा से अनुकूलन सीखो तुम
जल से एकता सीखो तुम
यह प्रकृति मां है,
मातृवत हमें समझाती है
जो प्रकृति मां के संकेतों को समझ
जीवन में लेता उतार
वह एक सम्मानित एवं
आनंदित जीवन है जीता


- प्रवीण कुमार


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बिन स्मार्टफोन ऐसा लगा 

जब से ये स्मार्टफोन हुआ है खराब
तब से हालात अच्छे नहीं हैं जनाब।
बार बार हाथ जेब में है जाता 
फिर क्या वहां बटन वाला पुराना फोन है पाता।
याद बहुत आती है फेसबुक व व्हट्सअप
दुनिया अधुरी सी लगती है क्योंकि
अब नहीं हो पा रही है इन पर कोई गपशप।
आफिस में भी साहब है पूछा करते 
आजकल आप आनलाईन हाजरी क्यों नहीं भरते।
मैं भी सीधा सा जवाब हाजिर कर देता 
स्मार्टफोन तो खराब है पर बटन वाले फोन से ही काम चला लेता।
साथी भी पूछते आप तो पुराने जमाने में चले गए 
दोस्तो ये शौक नहीं मजबूरी के बांध हम पर ढह गए।
शुभ चिंतक फोन करके जरूर पूछते 
आपके संदेश रोज थे आते, आजकल क्यों नहीं भेजते।
खैरियत तो है सब
मैं भी जवाब दे देता सब तो है
खैरियत पर मेरा स्मार्टफोन ठीक नहीं अब।
अब तो व्यक्तित्व भी प्रभावी नहीं लगता 
हर कोई बटन वाला फोन देख अनदेखा है करता।
कोई कंजूस बोलता तो कोई तंज है छोड़ता 
उन्हें क्या पता यारों हमारा स्मार्टफोन तो है
खराब वर्ना वो भी हमें दुनिया से जोड़ता।


- विनोद वर्मा


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क़ातिल निकला

वो सनम कैसा जो संगदिल निकला,
भूला सब वादे ऐसा बुज़दिल निकला!

इश्क़ का इम्तिहान कैसे पास करता मैं,
हर सवाल ही उसका मुश्किल निकला!

उम्मीद ए वफ़ा ग़लत लगा बैठे हम,
क्यों नहीं वो मेरे क़ाबिल निकला!

काग़ज़ की डिग्रियां तो बहुत लिये था,
पर दिल के मामले में ज़ाहिल निकला!

गुनाह उसके माफ़ी के लायक नहीं,
वो ख़ुद साज़िशों में शामिल निकला!

ऐतबार था जिसपर सबसे ज़्यादा मुझे,
हाय बेरहम वही मेरा क़ातिल निकला।


- आनन्द कुमार


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यादों की ख़ुशबू

यादों की ख़ुशबू कुछ ऐसी बस जाती है,
जैसे पुरा नी चा दर में महक रह जाती है।
कभी किसी मुस्का न से झाँ क उठती है,
कभी किसी आहट से दि ख जाती है।
वो बीते लम्हें, वो बातें, वो साये,
समय की तहों में जैसे छिप जाती है।

कभी चाँदनी में मुस्कुरा उठती हैं,
कभी बारिश में आँसू बन जाती है।
कभी किसी किताब के पन्ने पलटते हुए,
वो ख़ुशबू दिल को छू जाती है।

जैसे कोई अनकहा किस्सा फिर से,
रूह की गहरा इयों को सुना जाती है।
या दें ना बूढ़ी होतीं, ना मिटती हैं,
वो तो हवा ओं में घुल जा ती हैं।

कभी दर्द बनती, कभी सुकून देती ,
हर सांस के साथ मुस्कुराती हैं।
कभी किसी गीत की धुन में छिपी ,
कभी गुलाब की पंखुरियों सी नर्मी ।
यादों की ये ख़ुशबू की अमर कहानी ,
दिल से दिल तक जाती है।


- यासमीन तरन्नुम कंवल


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बस इंसान

ज़ेहनी ज़ंजीरों से आज़ाद हो पाता,
काश इंसान बस इंसान हो पाता।

जन्नत और जहन्नुम के पार हो पाता,
काश इंसान बस इंसान हो पाता।

महफ़िल-ए-ज़िन्दगी में आबाद हो पाता,
काश इंसान बस इंसान हो पाता।

ढूँढे बिन उसे ख़ुदा, भगवान मिल पाता,
काश इंसान बस इंसान हो पाता।


- रविन कुमार


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स्नेहपाश

आओ तुमको
अपनी कहानी का पात्र बनाऊ
करे लोग सजदा
तुमको भी मेरे नाम से
ऐसा मुकाम बनाऊ।

कहते हैं लोग
कि मोहब्बत में
बड़ी गहराई होती है
आओ तुम्हें दोस्ती के
समुद्र में डूबाकर भी
तैरना सिखाऊ।

सुना है तुमको
लोगों पर ऐतबार नहीं है
आओ तुमको
स्नेहपाश में बांधकर
अपनेपान का ज़रा
एहसास करवाऊ।


- डॉ. राजीव डोगरा


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कुरूप आदमी भी सुंदर है!!

जब उसके पास धन है
जब उसके पास शोहरत है
जब उसके पास पवार है ।
जब उसके पास नौकरी है
जब उसके पास अच्छी बिजनेस है
जब उसके पास बौद्धिक उपलब्धि है
जब उसके पास सत्ता है।

आदमी सुंदर है,फिर भी कुरूप है।

जब गरीब है ,
जब मुसीबत के करीब है ,
जब झोपड़ी से टपकता पानी है ,
जब टूटे फूटे बर्तन है ,
टूटे फूटे पैरों में चप्पल है ।

बदन में कटे फटे वस्त्र है ,
जब भुखमरी से त्रस्त है ,
हर तरफ बेरोजगारी है ,
पग पग पर लाचारी है।

हर जगह दुत्कारे जाते हो,
हर जगह कुत्तों जैसे पुकारे जाते हो ,
छोटी छोटी बात पर मारे जाते हो,
जब गदहे जैसे खटाए जाते हो,
आवश्कता से अधिक भार उठाए जाते हो।


- सदानंद गाजीपुरी


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कसक

एक कसक सी उठती है,
पास बहुत कुछ,पर
कुछ रह सी गई है।

बसंत तो आया है,
परिंदों को साथ नहीं लाया है।

खाए पकवान, भोग छप्पन,
खूब देखे जलसे,
वही फिर घर के हलुआ,और
देशी घी के मलपुए,का स्वाद
रह सा गया है।

घर पर जुटाए ,लाखों के ऐशों आराम,
पर मन करे,मिले खाट जिसपे करूं
विश्राम।

मनाए सभी त्योहार,
बांटी खुशियां,और ढेरों उपहार।

पर रही कसक,उपवास और दान की,
मिल सका ना आशीर्वाद,अपने
माता ,पिता स्वरूप भगवान की।

गुल,गुलशन, बना रही ये नज़ारे खूब,
फिर भी ना जाने ,
वो खुशबू की महक,
फिर वो कसक
रह गई है।


- रोशन कुमार झा


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छठ पर्व

छठ पर्व पर प्रेम का अहसास है,
भक्ति, श्रद्धा और विश्वास है।
नदियों का संगम, प्रकृति का श्रृंगार,
हर घर में बजता है अब जय-जयकार।

सूरज देव का यह महा उत्सव है,
हर मन में उमंग, हर दिल में नव रस है।
कार्तिक मास में आता ये त्योहार,
घर-आँगन में होता उजियारा अपार।

मिट्टी के दीए जगमग जलते हैं,
हर दिल में छठ मइया बसते हैं।
भोर भये जब सूरज निकले लाल,
व्रती करें अर्घ्य, झुके हर भाल।

ठेकुआ, फल, फूल, गंगा का जल,
सब अर्पण होता सच्चे मन का फल।
छठ मइया सबकी झोली भर देती हैं,
मन की हर मुराद पूरी कर देती हैं।

सुख-शांति का संदेश ये लाती हैं,
भक्ति की राह दिखा जाती हैं।
हर जीवन में उजियारा भर दे,
छठ मइया सबका जीवन सुंदर कर दे।


- गरिमा लखनवी


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अरिहंत

वह टूटती सी
नेह की पतली लड़ी
स्वप्न के इस पार भी,उस पार भी
सागर किनारे रेत पर खींची हुई
पतली सी एक रेखा सयानी
सिद्धांत सी मुड़ती,लचकती
जब,जहाँ,जिस रूप की
छटपट जरूरत सी
दीवानी वह अभागिन
वह शुचिता स्नेह-तरु सी
नेह की मीता,अपरिणीता
विजय श्री
इस भटकते लाचार से
ब्रम्हांड में किस ओर
अपनी चाँदनी को है छिपाती
हलाहल सी वेदना के पार
एक अरिहंत सी
जीविका अपनी सजाती
वह टूटती सी,नेह की पतली लड़ी
बेचैन सी।


- अनिल कुमार मिश्र


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मेरी सबकुछ तुम...

मेरी गुड डे तुम
मेरी हैप्पी हैप्पी तुम
मेरी ब्रिटानिया तुम
मेरी पारले जी तुम
मेरी ओरियो तुम
मेरी बर्बन तुम
मेरी हाइड एंड सिक तुम
मेरी सनफीस्ट तुम
मेरी मेरीगोल्ड तुम
मेरी डेयरी मिल्क तुम
मेरी फाइव स्टार तुम
मेरी कीट कैट तुम
मेरी हॉर्लिक्स तुम
मेरी कॉम्प्लान तुम
मेरी हर प्लान तुम
मेरी सब कुछ तुम


- मनोज कौशल


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भीड़ और बदलाव

भीड़ से एक आवाज आई,
शहर के बंदर है बहुत खराब!
छीना- झपटी, चोरी-डकैती, लूट-घसूट;
इनका नहीं है कोई जवाब!
चश्मे के बदले चिप्स मांगते हैं,
आपका ही अधिकार देना है आपको;
पर ये रिश्वतखोर गिफ्ट मांगते हैंl

कभी कभी तो इन्होंने छोटे-छोटे
बच्चों तक को अगवा किया है,
अपने भविष्य को बचाने के डर से
हर बार आपने इनको इनका मन चाहा दिया हैl
भीड़ में से किसी ने फिर कहा,
बदल डालो इन बंदरों को,
कही दूर जंगल में छोड़ आओ।

हमें ऐसे मतलबी, बेरहम, स्वार्थी,
रिश्वतखोर बंदर नहीं चाहिए!
शोभा बढ़ाए जो हमारे शहर की;
कही से ऐसे संस्कारी बंदर लाइए।

सब गूंज उठे,
"हां हां इन्हें कही दूर छोड़ आते हैं,
इस बार गांवों से उठाकर नए बंदर लाते हैं।"
काफी सलाह मशवरा हुआ,
सभाएं हुई और फिर एक योजना बनी :
शहर के जो बंदर उत्पाति हैं
उन्हें बाहर निकलना है,
बदले में शरीफ बंदरों को
नगर की शोभा बढ़ाने के लिए,
कही से पकड़ कर लाना है।

कार्यक्रम चालू हुआ,
एक विशेष विभाग को ये कार्य सौंपा गया;
जहां आवश्यकता पड़ी
अध्यापकों, पटवारियों,
अभियंताओं, अन्य कर्मचारियों का
भी सहयोग लिया गया।

कुछ बंदर खुद भाग गए,
कुछ बंदरों को दूसरे बंदरों ने भगा दिया!
कुछ बंदरों को संभलने का मौका ही नहीं मिला,
कुछ को उनके लालच ने फंसा दियाl

बहुत पकड़े गए और दूर के जंगलों में छोड़े गए,
पर देखो समय की चाल
ओर बंदरों की बुद्धि का कमाल;
कुछ बंदरों ने स्वयं को नए वातावरण में ढाल लिया,
जो लुटा था वो वापिस करने लगे!
कई जगह तो ऐसे ही लोगों की जेब भरने लगेl
छीना- झपटी छोड़ दी,
राह चलते लोगों को नमस्ते करने लगे।
आखिरकार ये अभियान खत्म हुआ।

अच्छे अच्छे बंदरों को शहर पहुंचा कर,
आम आदमी फिर से अपने रोजमर्रा के कार्यों में व्यस्त हुआ।
आखिरकार काम सरकारी था।
कुछ बंदर सच में बदले गए,
कुछ का भीड़ पर भी प्रभाव भारी था।
अगली गर्मियों में शहर सैलानियों से फिर खुशहाल हुआ,
धीरे धीरे बंदरों का फिर से वही हाल हुआ।

बंदर तो आखिर बंदर हैं;
लूट–पाट से कहा मानेंगे ?
आप बदलो कितना,
नए बंदर लूटने के नए विधान निकलेंगे।
कुछ बचे-पुराने बंदरों ने,
नए बंदरों को भी सीखा डाला,
नए बंदरों ने नई तकनीक को
बीच में घुसा डाला।

लूट को भी हाईटेक बनाकर,
पिछले सारे रिकॉर्ड को तोड़ डाला।
भीड़ से फिर आवाजें आने लगी,
सरकार इन बंदरो को बदलने की
फिर योजना बनाने लगी।
ये सिलसिला, यूं ही चलता रहेगा,
भीड़ में से कोई न कोई लूटता रहेगा।
खैर! भीड़ भी कभी तो समझ पाएगी,
बंदरों को बदलने के साथ-साथ,
खुद को भी बदल पाएगी।


- अशोक कुमार


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समझदार हो तुम

फिर मेरे हिस्से में आया,
कोई समझौता नया।
किसी ने कहा-
“तुम तो बहुत समझदार हो…”

मैं मुस्करा दिया,
जैसे यह तारीफ़ नहीं,
एक निर्णय हो-
कि अब मुझे महसूस नहीं करना चाहिए।

समझदार लोग
रोते नहीं,
सिर्फ़ मुस्कराते हैं
और भीतर धीरे-धीरे
मरते रहते हैं।

वे तर्कों में ढूँढ़ते हैं सुकून,
जवाबों में छिपाते हैं आँसू,
और चुप रहना
उनकी आदत बन जाती है।

हर बार जब कोई कहता है-
“तुम समझदार हो,”
मुझे लगता है-
मैं थोड़ा और दूर हो गया हूँ
अपने ही दिल से।


- डॉ. सत्यवान सौरभ


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प्रकृति के हृदय की मौन यात्रा
एक दिन यूँ ही निकल जाना-
जब शहर की आवाज़ें थक जाएँ,
और मन किसी अनकही पुकार में भीग जाए।
न कोई योजना, न कोई मंज़िल...
बस एक जिज्ञासा-
दुनिया को महसूस करने की,
प्रकृति की गोद में लौट आने की।
चलना उन पगडंडियों पर
जहाँ मिट्टी अब भी सांस लेती है,
जहाँ ओस की बूँदें सूरज से पहले जागती हैं,
और हवा में पेड़ों की बातें घुली होती हैं।
कभी किसी नदी के पास बैठना-
देखना कैसे वह चट्टानों से टकरा कर
भी गुनगुनाती रहती है।
उसकी लहरों में एक संदेश छिपा होता है-
“रुकना नहीं... बस बहते रहना।”
कभी किसी जंगल के बीच ठहरना,
जहाँ हर पत्ता, हर फूल
अपनी भाषा में बात करता है।
जहाँ मौन भी संगीत है
और शांति भी कविता।
देखना कैसे तितलियाँ रंगों की कक्षा सजाती हैं,
कैसे चींटियाँ अपनी दुनिया रचती हैं-
बिना शिकायत, बिना रुकावट।
वहाँ समझ आएगा कि प्रकृति
सिर्फ़ दृश्य नहीं, एक संवेदना है,
जिसे महसूस किया जाता है-
आँखों से नहीं, आत्मा से।
कभी आसमान को देखना-
वह नीला विस्तार पूछेगा,
“तुम कितनी बार खुद को देखा है?”
और तब समझोगे,
दुनिया की खोज में निकलकर
तुम दरअसल खुद को तलाश रहे हो।
पहाड़ों से सीखो स्थिरता,
नदियों से प्रवाह,
पेड़ों से दान,
और धरती से सहनशीलता।
प्रकृति हर मोड़ पर एक गुरु है,
जो बिना शब्दों के सिखाती है-
कैसे जीना सरल और सच्चा हो सकता है।
एक दिन यूँ ही निकल जाना-
जब मन थक जाए कृत्रिम रोशनियों से,
और चाह ले उस चाँदनी को
जो बिना बिजली के भी उजली है।
जहाँ पक्षियों की बोली अलार्म से बेहतर है,
और सुबह की हवा किसी प्रार्थना-सी लगती है।
चलो... एक दिन यूँ ही निकल चलते हैं-
दुनिया खोजने नहीं,
प्रकृति के हृदय को सुनने,
उसकी नाड़ी को छूने,
उसकी मौन संवेदनाओं को समझने।
क्योंकि जब धरती के आँचल में सिर रखोगे,
तब महसूस होगा-
“दुनिया बाहर नहीं,
हमारे भीतर ही खिली है।”


- आरती कुशवाहा


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तबज्जों नहीं देते हैं लोग
अक्सर मेरी बातों को,
गौर नहीं फरमाते हैं
वे मेरी बातों पर,
मैं बोलता रहता हूँ
और सुनाता भी रहता हूँ
फ़िर भी तबज्जों नहीं मिलती
इस जहान में,
मेरी बातों पर,
मेरे जज्बातों पर
कभी-कभी सोचता हूं
और सोचता ही रहता हूं ,
आख़िर तबज्जो क्यों नहीं मिलती ?

मन कचोटता रहता है और
खड़ा करता है-
एक यक्ष प्रश्न मेरे समाने
और मैं भी उसकी तह तक
पहुंचने का प्रयास करता हूं
आख़िर तबज्जो क्यों नहीं मिलती ?

काश! मैं भी बड़ा व्यक्ति होता ,
धनाढ्य होता, अमीर होता
गाड़ी , बंगले, होटल,
रेस्तरां का मालिक होता,
इंडस्ट्रियलिट, सेलिब्रिटी होता
मंत्री, बजंतरी का बेटा होता,
लोग दौड़ते हुए आते,
मुझसे मिलते,
ऑटो ग्राफ लेते,
उसको संजो कर रखते
और प्यार से मेरी बातों को सुनते ,
पर हकीक़त यही है
तबज्जों नहीं देते हैं लोग,
गरीबों को।


- बाबू राम धीमान



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