साहित्य चक्र

30 October 2025

आज की प्रमुख रचनाएँ- 30 अक्टूबर 2025






कौन तुम
शीतल हवा सी
छूकर मुझे
गुजरी यहां से
एक सिहरन सी हुई
बात न कुछ भी हुई
न तुम तुम रहे
न मैं मैं रही
बस दो बदन
एक हो गए।
चाह कुछ
ऐसी जगी
दिल में
हलचल सी मची
मंदिर में कहीं
प्रार्थना सी हुई
और हम
मिले गले
हाथ दोनों
थामकर
कदम कदम
हम चले।
स्नेह से भरे हुए
करार आंख में लिए
खड़े खड़े
बस देखते रहे।
बात कुछ
न हुई
ओंठ फड़फड़ा गये।


- सुधा गोयल



*****


स्वीकार

ये जो बुझी सी हैं आंखे,
कभी तो इनमें,
चमक रही होगी।

जो दिख रहा, गुलशन वीरान,
कभी तो इसमें,
पंछियों की चहक रही होगी।

जो हो गए,
खंडहर वक्त की मार से,
कभी तो ये,
रियासत गुलजार रही होगी।

तू क्यों देखे,सबों को,
इस दुनियां की नजर से,
आज अगर सलामत हो तो,
किसी ने बचाया होगा,
तुम्हें, कयामत की कहर से,

जवाब सबका मिलता नहीं,
ऐसा क्यों, वैसा क्यों नहीं।

कभी इत्मीनान से
अपने किताब के ,
अतीत के पन्नो को खोल
पाएगा तू हर उत्तर अनमोल।

तू ही नहीं जो सब कर रहा,
जगह जगह इतराता, फिर रहा
तू क्या समझे खुद को,
जो खुद को, न गढ़ सका।
सब हैं, लेख विधाता के,
इसे कब, कौन पढ़ सका।

कोई बचा नहीं,संसार में ,
वक्त के मार से।
बेहतर यही होगा कभी,
करो समझौता कभी,
अपनी हार से।

अमृत पान से पहले,
पीना होता है जहर।
आज अमृत प्याला, गर थामे हो तुम,
तेरे बदले किसे ने,
पिया होगा, हलाहल
रख पास, ये प्याला अपने अधर।


- रोशन कुमार झा



*****


मौका

झड़ जाते हैं दरख़्तों से वक्त बेवक्त जो पत्ते,
वो दोबारा फिर दरख़्तों से कभी जुड़ते नहीं।

होती है जो शान पत्तों की दरख़्तों के साथ,
मिट्टी में मिलने के बाद वो फिर होती नहीं।

जुड़कर रहने में जो मज़ा है अक्स के साथ,
वो टूट बिखरकर अलग होने में बिल्कुल नहीं।

कुछ अच्छा कर गुजरने को मिलते हैं जो लम्हें,
गुजरने के बाद वापिस वो पल मिलते नहीं।

दरख़्त के साथ रह बेशक कितने रूप बदलते हैं,
मिट्टी में मिलने के बाद फिर वो रूप बदलते नहीं।

आओ जुड़े रहे जड़ों से प्रेम गीत मिल गाते रहें,
साख से टूटने के बाद ये मौके फिर मिलते नहीं।

मौका मिला है मानव जन्म को प्रेम से जीने का,
जहाँ से जाने के बाद ये मौका फिर मिलेगा नहीं।


- राज कुमार कौंडल


*****


चिकनी चुपड़ी बातें करना
ये काम हमारा नहीं,
दूसरों की बातों का
क्यों बुरा मनाएं,
मन की आवाज़ सुनकर ही
जो स्वयं को अच्छा लगे,
वही करना, यही कर्म हमारा है
चिकनी चुपड़ी बातें करना
ये काम हमारा नहीं...
दूसरों को उपदेश देना,
दस्तूर बन गया है जमाने का,
शेखी बघारना काम है लोगों का
ज़रा अपने अंदर झांक कर तो देख,
वास्तविकता से कहां तक रूबरू होते हो?
अपने में भी आजमा कर तो देख
चिकनी चुपड़ी बातें करना
ये काम हमारा नहीं..
परजीवी क्यों बनना ?
दूसरों के कंधे पर बंदूक क्यों चलानी?
अपने कंधे पर भी रख के तो देख
दुनियां कहां बस्ती है?
परीक्षा लेकर तो देख,
स्वार्थी, मतलबी हैं लोग
किसी को अपना बना कर तो देख
छोड़ चिकनी चुपड़ी बातों को
अपना कर्म करता चल
चिकनी चुपड़ी बातें करना
ये काम हमारा नहीं..

- बाबू राम धीमान


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रखता नहीं इरादा उससे अदावत कर लूँ।
फिर भी जी में आता है बगावत कर लूँ।।

बंदिशों में कब तक संबंधों को घुटने दूँ,
चाहता हूँ टूट पडूं,छक कर दावत कर लूँ।।

तेरी महफ़िल के बहुत नायाब किस्से सुने हैं,
फिर सजाओ महफ़िल मैं भी निज़ामत कर लूँ।।

अकेले में तू जो रुख अख्तियार करता है,
एक बार महफ़िल में भी उसकी सदाकत कर लूँ।।

विकास उसके अक्स पर कई काले धब्बे हैं,
रुख सामने आये जरा तबियत से हजामत कर लूँ।।


- राधेश विकास


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घर का जोगी जोगड़ा आन गांव का सिद्ध
गला घोटे जज्बातों का, बनाते उन्हें निखिद,
तड़पा तड़पा कर जज़्बातों को मारते यारों,
कौड़ियों के भाव तोलना इनकी पुरानी रीत
घर का जोगी जोगड़ा आन गांव का सिद्ध...
खोखला इनका बड़प्पन, खोखली इनकी शान
शेख चिल्ली से दिखाते सपने, झूठे सारे अरमान,
सफेद पोश बन रौब दिखाते, करते अपना गान
हर वक्त रचते षड्यंत्र यारों,क्या करें कोई उम्मीद
घर का जोगी जोगड़ा आन गांव का सिद्ध...
बातें बनाते बड़ी बड़ी, करते दिखावा मीत
बरगलाना काम इनका, कभी न छोड़ते सीट
बहरे बन बैठते सभा में,आफत पड़ने पर देते खीट ,
धीमान ऐसे लोगों का विश्वास न करें, छोड़ दें सारी उम्मीद
घर का जोगी जोगड़ा आन गांव का सिद्ध...

- बाबू राम धीमान


*****


गीता जीवन जीना सिखाती है
गीता हमें बताती है
ईश्वर हैं सर्व व्यापक
ईश्वर हैं सर्वशक्तिमान
ईश्वर अथाह हैं ईश्वर असीम हैं
ईश्वर हैं अनंत
शेष ईश्वर शब्दों से परे हैं
गीता हमें बताती है
ईश्वर का स्वरूप है कैसा
ईश्वर हैं शक्ति स्वरूप
ईश्वर आनंद स्वरूप हैं
ईश्वर हैं करुणा के सागर
ईश्वर प्रेम स्वरूप हैं
ईश्वर के अनेकों ऐसे स्वरूप
गीता हमें बताती है
गीता का एक-एक श्लोक
मिटाता है हमारा अज्ञान
गीता में बताया है
सब में ईश्वर व्याप्त हैं
यही है समत्व का ज्ञान
सब प्राणियों में ईश्वर है समाहित
अतः मत करो किसी को व्यथित
सबसे करो प्रीति
श्रीकृष्ण ने यही गीता में
अर्जुन को बतलाया है
कर्म करो पूरी निष्ठा से
कर्मफल में मत रखो आसक्ति
सीमित रखो अपनी कामनाएं
यही सदैव करती हैं व्यथित
नित्य स्वकर्तव्य संग
सदैव करो सेवा, सुमिरन और सत्संग
अगर तुम्हे ईश्वर को पाना है
यही गीता का सार है
गीता हमें उचित -अनुचित,
धर्म- अधर्म में भेद करना सिखाती है,
कर्तव्य और अकर्तव्य का बोध कराती है,
हमें जीवन जीने की कला सिखाती है।


- प्रवीण कुमार


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ऐ बरगद

ऐ बरगद कभी सोचा तूने,
कितने पौधों का दम घोंट,
फलने फूलने से उनको रोक,
विकास का न देकर मौका,
हटा नहीं राहों को रोका,
विश्वास में होता रहा धोखा,
आस पड़ोस तेरे हैं क्यूँ सूने,
ऐ बरगद कभी सोचा तूने।

श्रृंगार महफ़िल का तुझसे ही,
भ्रम तूने बना रखा बस यही,
पानी धरा का लेने दिया नहीं,
सूरज से भी परिचय हुआ नहीं,
बादशाहत अपनी कायम रहे,
जब तक हूँ चाबी मेरे हाथ रहे,
अब कोई अपने सपने कैसे बुनें,
ऐ बरगद कभी सोचा तूने।

पाता मौका तो पौधा लह्लाता,
उभर कर अपनी पहचान पाता,
दबा मुरझाया न वो रह जाता,
छटपटाया बहुत कुछ हुआ नहीं,
भविष्य की तुझे क्यूँ चिंता नहीं,
ताँता ये एक से ही चलता नहीं,
है तुझे क्यूँ पसंद बस अपनी ही धुनें,
ऐ बरगद कभी सोचा तूने।


- धरम चंद धीमान


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गांव,
शहर जाना चाहता है,
शहर,
महानगरों में जाना चाहता है
महानगर,
विदेश जाना चाहता है
विदेश,
चांद पर जाना चाहता है
मगर... मगर!
गांव की झोपड़ी में बैठी
"मां"
गोद में लिए बच्चे को
"चांद" कह कर दुलारती है
सच में
वो
अपने लाल को ही
चांदमल पुकारती है।


- जितेंद्र बोयल


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तो तुम अभी जिंदा हो।

गर ख्वाब देखे,जो रहे अधूरे
हो न पाए कभी पूरे,
तो तुम अभी जिंदा हो।

चले थे,सफर में अकेले,
मंजिल न मिलकर,
मृगतृष्णा मिली,
तो तुम अभी जिंदा हो।

किसी की आग बुझाने में,
गर जले अपने हाथ,
जिसने छुड़ाया दामन अपना,
जमाना,
तुम ने उसका छोड़ा न
साथ,
तो तुम अभी जिंदा हो।

अगर इस पराई दुनिया में,
किसी अपना को ढूंढ रहे हो,
ठंडी राख,में चिंगारी
ढूंढ रहे हो,
तो तुम अभी जिंदा हो।

हां,सचमुच तुम जिंदा हो,
जो उड़ानों से रौंदे आकाश को,
तुम वही परिंदा हो।

ये मुसीबतें जायेंगी,
तुमसे एक दिन हार,
तुम मुसीबतों के लिए,
मजबूत फंदा हो।

जिसे ढूंढें, खुदा
बिलकुल वही तुम बंदा हो।

हां, सच में तुम अभी जिंदा हो।


- रोशन कुमार झा


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भविष्य का विश्वास हो तुम

कितनी कविताएं मर गई ,
कर्मठता के अभाव में।
कितने आविष्कार दबे पड़े हैं,
आलस्य के सरोकार में।
ये पशुत्व है! मानव स्वभाव नहीं।
जो कर्म पथ पर है, उसे
किन्तु –परन्तु का प्रभाव नहीं।
तुम निर्णय कर लो, क्यों आए हो!
क्या मात्र अन्न और श्वास गिन कर लाए हो!
या फिर उत्पन्न हुए हो उपभोग मात्र।
या विलास हेतु चयनित हो तुम ?
अरे ! पहचानो ! स्वयं को जानो।
अवतरित उद्देश्य के साथ हो तुम।
विशिष्ट हो, अद्भुत हो, दृढ़ हो
भविष्य का विश्वास हो तुम।


- अशोक कुमार


*****

ढूंढ रही हूँ मैं फिर एक वज़ह मुस्कुराने की, अगर चाहो तो तुम वह वजह बन जाओ। कोशिश में हूँ फिर से ख़ुद को पहचानने की, अगर चाहो तो तुम मेरा आइना बन जाओ। दर-बदर हूँ मैं जिस सुकून को तलाशने में, क्यों न मेरे लिए तुम वह ठिकाना बन जाओ। एक अरसा हुआ है जो मैं चैन से सोई नहीं, नींद आ जाए मुझे तुम वह शाना बन जाओ। अगर खो जाऊ जमाने की भीड़ में जो कभी, तो लौट आऊँ मैं तुम वह आशियाना बन जाओ। ख़्वाहिश बस इतनी की सिर्फ़ ख़्वाब में नहीं, दर-हक़ीक़त तुम मेरा मुक्कमल जहाँ बन जाओ।


- नाज़िया शेख


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संवाद

मन को कहीं न कहीं
उलझनों के झंझावात में
फँसा कर तड़पने को छोड़ देते हैं
वैसे संवाद
जो संवाद तो होते है
पर सिर्फ कहने को
वक्ता और श्रोता
कोई भी तृप्त नहीं हो पाता
शब्दों को भी तृप्ति नहीं मिलती
अतृप्त अक्षरों के साथ
पले-बढ़े शब्द
अपने नव-रूप से संतुष्ट नहीं हो पाते
हृदय में बेचैनी को ढोते हुए
विचलित मन के साथ
संवाद अतृप्त रह जाते हैं
उद्देश्य फलित नहीं होता
संवाद बिलखते हैं।


- अनिल कुमार मिश्र



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