साहित्य चक्र

10 October 2025

आज की प्रमुख रचनाएँ- 10 अक्टूबर 2025





आँखें

बरामदे में खाट पर पड़ी
वृद्ध पिता की पथराई आँखें
तलाशती हैं
अपने बच्चों को
जो थोड़ी देर साथ बैठें
पिता की आँखें देखकर
समझ जाएँ उनके दर्द
जैसे उनके बचपन में
वह पिता झट से समझ जाता था
और पल में एक फूँक से
उनके सारे कष्ट हर लेता था
समय बदल गया है
आईने ने संस्कार के विकृत रूपों को
तरह-तरह से दिखाया है
पथराई आँखों में सिर्फ
उम्मीदें हैं,सपने हैं
घरों में चलते हुए कुछ लोग
अपने हैं
हाँ, सपने हैं।


- अनिल कुमार मिश्र


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प्रेम के रंग
किस रंग में तुझे देखूं
प्रेम तेरे रंग अनेक,
निश्चल सी हंसी तेरी
शुभ्र रंग भरती नेक।

निस्वार्थ की भाव ले,
जो आती है चुपचाप।
नेह रंग से भर जाती,
मन के ये सारे ताप।

पाने की न खोने की
हो न जिसमें अहसास,
लाल रंग फूलों में जैसे
सौरभ की हो प्यास।

चांद व चकोर सी
जिस प्रेम में हो लास,
हरी हरी बसुंधरा सी
बिखराती है उल्लास।

समर्पित हो जिसमें
तन मन एकाकार कर
नयी सृष्टि की रचना,
देखी इस भूतल पर।

हवस व वासना का
भूखा है जो प्रेम।
काले रंग की कालिमा,
दे जाती है वह प्रेम।

प्रभु चरणों में समर्पित,
प्रेम का रंग अनोखा है,
जग में अभी तक वह रंग
नहीं किसी ने देखा है।

ऐसे ही एक नये रंग में
रंग डालो प्रेमिल भाव,
जिसमें सब रंग घुलकर,
हों जाए बस सम भाव।


- रत्ना बापुली


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आजकल का व्यापारी

व्यापार में न कोई मित्र होता
न ही कोई दुश्मन होता।
यहां तो सिर्फ ग्राहक व दूकानदार होता।
ग्राहक आए तो आदर होता
न आए तो सलाम दूर से होता।
दूसरे की दुकान में ग्राहक जब जाता
तो पहला अपने को कोसता नजर आता।
ग्राहक अपनी मर्जी का मालिक है होता
हमेशा अपनी पसंद की वस्तुएं ही देखता।
व्यापारी अपने व्यापार में मस्त रहता
ग्राहक को देवतुल्य है पूजता।
ग्राहक जब भी प्रवेश करता
उसको आवभगत में ही हर लेता।
आजकल ग्राहक भी जागरूक सा लगता
व्यापारी से कभी कभी जरूर है अड़ता।


- विनोद वर्मा


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सपनों की दुनिया

ज़िन्दगी के कुछ पुराने सपनों को हटाकर,
दिल में और नये-नये सपने मैंने सजा लिये।

फिर उन सब नये सपनों को पाने के खातिर,
दिल के सारे अरमान मैंने दिल में दबा लिये।

अब इन नये-नये सपनों में घिरी ये ज़िन्दगी,
चाहकर भी इनसे बाहर आना नहीं चाहती।

मगर इन सपनों का ये चक्रव्यूह भी तो मैंने,
मस्तिष्क से बार बार सोचकर ही तो रचा है।

अपने मस्तिष्क के इन निष्कर्षों पर ही मैंने,
दिल की धरा पर इन सपनों को सजाया है।

अब इन सपनों की दुनिया में डूबा मेरा मन,
स्वतंत्र विचारों की एक लम्बी उड़ान भरकर।

कागज और कलम से इन्हें साकार करता है,
ये सपने ही बन चुके हैं हकीकत ज़िन्दगी की,
अब तो मैं रोज इनमें ही जीता और मरता हूं।


- केशव शर्मा रसिक


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प्रकृति माँ

हरी घास पर ओस झलके, सूरज की किरणें मुसकाएँ,
फूलों की खुशबू संग-संग, मंद पवन गीत सुनाएँ।

नदियाँ गाएँ मधुर तराने, झरनों की रुनझुन प्यारी,
पर्वत की चोटी पर बैठी, बादल बनती सवारी।

वन की छाया, शीतल छूआँ, देती जीवन को आधार,
प्रकृति माँ की ममता अद्भुत, करती सृष्टि का श्रृंगार।

किन्तु मनुज ने लोभ में आकर, काट दिए सब पेड़ हज़ार,
धरती रोई, नदियाँ सूखी, खो गया उसका श्रृंगार।

आओ फिर से प्रण ये लें हम, हरित धरा को सजाएँ,
पेड़ लगाएँ, जल बचाएँ, माँ प्रकृति को अपनाएँ।

“प्रकृति हमारी पूजा है, जीवन का है सार,
इसे सहेजें, इसे निखारें, यही सच्चा कर्म हमारा”


- डॉ सारिका ठाकुर 'जागृति'


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चौथ को क्या लिखूँ!
यहां तो शब्द भी धोखा खा जाते है।
चांद लिखूँ,
निर्जला उपवास लिखूँ,
प्रेम लिखूँ,
दोस्ती लिखूँ ,
जीवनसाथी लिखूँ ,
जिंदगी लिखूँ,
या दो अजनबियों का सामजंस्य लिखूँ,
खुदखुशी न कर ले ये चांदनी रात भी
दीदार कर
उस तारों में तुम्हारी उजास देख!


- अंशिता त्रिपाठी


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शाम अभागी

कोई आज जब सुबह घर से निकला था,
शाम अभागी थी वो घर नहीं पहुंच पाया।

मौत कैसी बेरहम आई पहाड़ बनकर,
दो तीन बच्चों को छोड़ कोई बच नहीं पाया।

जिन घरों के सूरज अस्त हो गए इस घटना में,
उन घरों में अब कैसा ये अंतहीन मातम छाया ।

जहां की लिखी है वहां सबने शरीर छोड़ना है,
विधना के लेख से भला कोई नहीं बच पाया।

नन्हे बच्चों की किलकारियां भी खामोश हो गई,
इस अनहोनी में युवा स्वप्न कोई नहीं बच पाया।

हे परमात्मा सबको ये दुख सहने की देना शक्ति,
जो खो चुका सब कुछ वो फिर कब हंस पाया।

अपने श्री चरणों में देना उन सबको स्थान,
प्रभु जिन जिन को तूने अपने पास है बुलाया।


- राज कुमार कौंडल


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चलाने वाला था लेखनी,
कुछ लिखने के लिए
कागज पर उकेर सकूं शब्दों को,
ये सोच कर चिंतन करता रहा,
मस्तिष्क में दौड़ते रहे अनगिनत शब्द,
मुझे अचंभित करते रहे और
अपनी ज़िद पर अड़े रहे
मुझे पहले लिखो,
यह कह कर विवश करते रहे,
मेरी आज की लेखनी उत्कृष्ट बने
मैं भी इसी ज़िद पर अड़ा रहा,
तभी शब्द ने मुझसे कहा,
इसका फैसला तो निर्णायक मण्डल करेगा
हाथ में थामे हुए अपनी लेखनी को,
मैं भी चिन्तन करता रहा,
आज की उत्कृष्ट बने मेरी लेखनी
बस यही सोचता रहा।


- बाबू राम धीमान


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अजनबी तन्हाई

कौन सा दर्द
अपने सीने में छुपाए रखते हो?
मुस्कुराहट के पीछे
कौन सा गम
अपने ह्रदय में दबाए रखते हो?
कहते हो तुम
लोगों से अक्सर
कि मुझे कोई गम नहीं ?
फिर इस
तन्हाई के आलम में
किस से गुफ्तगू का
माहौल बनाए रखते हो?
सुना है लोगों से
कि तुम बहुत
बातें करते हो
पर आता है नाम मेरा तो
क्यों अपने लबों पर खामोशी
और आंखों में मुस्कुराहट रखते हो?


- डॉ. राजीव डोगरा


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दर्द देता है

दिल में चोट,
पैर में मोच,
रिश्तों में विस्फोट,
इंसानों की टोक
दर्द देता है।
पुरानी यादें,
टूटे वादे,
नापाक इरादे,
बिस्वास हद से जादे ,
दर्द देता है।
यात्रा में भारी समान,
घमंड से भरा इंसान ,
बेलगाम जुबान,
निकलता हुआ प्राण,
दर्द देता है।
विरह की रात,
अपनों से विश्वासघात
देश में जात पात,
कड़वी बात,
दर्द देता है।
निरंकुश सरकार,
गरीबी से लाचार,
फैला व्याभिचार ,
बहु बेटों का दुर्व्यवहार
दर्द देता है।
बिच्छू का डंक
परिंदों का कटा पंख
परीक्षा में कम अंक
दिमाग में लगा जंग
दर्द देता है।


- सदानंद गाजीपुरी


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