साहित्य चक्र

18 October 2025

आज की प्रमुख रचनाएँ- 19 अक्टूबर 2025





प्रेम के रंग हजार हैं,
पर इसे हर कोई नहीं समझ पाता है 
ना ही कोई निभा पता है
प्रेम के जैसा मीठा एहसास जिंदगी में,
हमें कहीं नहीं मिलता है।
जैसे ही रूह में बस जाता है,
बस वही एक एहसास बनकर 
हमारे दिल में धड़कता है।
प्रेम तो निशुल्क होता है ,
इसे  ना मोह माया का लालच होता है।
प्रेम के जैसा पवित्र बंधन कहीं नहीं मिलता है,
 प्रेम दो प्रेमियों का वह संगम है।
 जो शांत सरोवर झील के किनारे ही,
बड़ा ही सुकून सा मिलता है।


                                  - रामदेवी करौठिया


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जाग, जाग, जाग ऐ हिन्दुस्तान

जाग, जाग, जाग ऐ मेरे हिंदुस्तान,
कौन राह चल पड़ा तेरा ये नौजवान,
नशों में इसकी दौड़ रहा कैसा ये जहर,
ढहा रहा है कैसा ये जुल्म और कहर।

छाया है कैसा इसके दिमाग में फितूर,
मिट रहे असमय जिससे मांगों के सिन्दूर,
छिन रहे बुढ़ापे के जिससे है सहारे,
पथराई आँखों से मां-बाप रास्ते निहारे।

देश ये मेरे के हैं भविष्य के नागरिक,
नशे की चपेट में क्यूँ हो रहे हैं ये लिप्त,
नहीं है इनको आने वाले कल की फ़िक्र,
लक्ष्य का अपने कभी ये करते नहीं जिक्र।

हो जायेगा देश यूँ फिर से ये गुलाम,
बिक रहा ज्यूँ धड़ल्ले से नशे का सामान,
घर में नहीं होता है खाने को अनाज,
नशा खरीदने से पर ये आते नहीं बाज।

अब ये कैसे उन्नति करेगा मेरा देश,
गुंडे पल रहे ,धारण किए साधू वेश,
युवाओं में दिखती नहीं है देशभक्ति,
बन कर कुछ कर दिखाने की वो शक्ति।

जाग,जाग,जाग ऐ मेरे मन कवि,
मिटा इस अंधियारे को बन तू रवि,
शब्दावली से अपनी कर विप्लव गान,
छेड़ राग ऐसा मिटे नशे का नामों-निशान

यूँ न रुक, यूँ न झुक ,न मान यूँ तू हार,
नशे के कर हवाले न मिटा अपना संसार,
कर तू दृढ़ ,अटल निश्चय कुछ बड़ा,
छोड़ेगा नशा तू कर ले मन को कड़ा।


- लता कुमारी धीमान


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ख़ुद पर लिखूँगा

कभी फुरसत मिली तो लिखूँगा,
ख़ुद पर भी अपनी चंद पंक्तियाँ,
करूंगा इज़हार मन के जज़्बात,
तमाम परेशानियां और हालात,
दर्पण की तरह होगा स्पष्ट,
मेरा हर पहलू और हर पक्ष,
दिल में व्याप्त अनेक कशमकश,
भविष्य की चिंता और बंदोबस्त,
सिमटी हुई अजीब उधेड़बुन में,
अभी तो बहुत व्यस्त है ज़िंदगी,
अल्फ़ाज़ सभी दफ़न हैं कहीं,
कलम हो रही कुछ थकी-थकी,
किसी दिन इसमें भी होगा नई,
ऊर्जा का संचार उभरेंगे विचार,
तब उठेगी लिखने एक अध्याय,
ना रहूँगा मज़बूर ना असहाय!

अभी कुछ दिन और लिख लूँ,
उन बातों को जो समाज को,
देंगे एक नई दिशा और मार्ग,
जीने का एक अलग ही अंदाज़,
लेखक होना आसान बात नहीं,
तमाम मुद्दों पर लिखते-लिखते,
वो भूल जाता है ख़ुद को कहीं,
उसे चिंता है भावी समाज की,
उनके कल की और आज की,
असंख्य शब्द-भंडार होते हुए,
फ़िर भी अभाव है ख़ुद के लिए,
कभी-कभी ऐसा लगता है कि,
शायद ही वो दिन आएगा जब,
लिखूँगा मैं ख़ुद की आपबीती,
क्यूंकि समय के साथ ये जीवन,
भी धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है।


- आनन्द कुमार


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सेवानिवृति

अभी थका नहीं मैं,
जीवन से आस बाक़ी है,
पका हुआ फल, जरूर हूं,
पर मिठास बाकी है।

जिया जी भर के,
देखे कई वसंत सुनहरे,
कहानियां बहुत हैं,
देखे लोग हमने बहुतेरे।

अभी तो बनी है तस्वीर..
रंग भरना बाकी है,
भरोसे भी बहुत रहा
ऐ जिंदगी,
मुकद्दर से असल
जंग अभी बाकी है।

अभी बैठा हूं, मयखाने में,
पास जाम और साकी है,
लड़खड़ाने का लेंगे अब मजा,
पूरी शाम बाकी है।


- रौशन कुमार झा


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तुम

तुम जुगनू हो,
चाँद हो।
बाग़-ए-जीस्त की,
गुलनाज़ हो।।

तुम याद हो,
फरियाद हो।
चश्म-ए-दीदार की,
आस हो।।

तुम खूबसूरत,
ख्वाब हो।
इश्क-ए-महताब की,
किताब हो।।

तुम ख़ास हो,
एहसास हो।
दिल-ए-रघु की,
विश्वास हो।।

तुम रानी,
परियों की।
हुस्न-ए-महताब की,
मुरत हो।।

तुम तितली हो,
नाजनीन हो।
पैकर-ए-जमाल हो,
कमाल हो।।

तुम हमनवा,
हमसफ़र।
मंजिल-ए-मकसूद की,
ठहराव हो।।

तुम दूर हो,
तुम पास हो।
मसाफ़-ए-जीस्त की,
अंतिम पड़ाव हो।।


- राघवेंद्र प्रकाश 'रघु'


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पीठ पर लाद कर चल रहा था
शब्दों को मैं!
बहुत अकड़ रहे थे शब्द और बोल रहे थे,
मेरे प्रश्नों के ज़बाब दो,
मैं सुन रहा था बड़े गौर से,
और कर रहा था विचार,

शब्दों ने मुझसे दोबारा कहा-
मेरे प्रश्नों के ज़बाब दो,
मैंने कहा उनसे, ज़रा मेरी भी सुन लो,
उन्होंने कहा बताएं,आपकी क्या सुने?

मैंने कहा- एक तो आप को
पीठ पर लाद कर चला हूँ,
और आप वेताल बन रहे हो,
उन्होंने कहा कैसा वेताल, कौन वेताल?

मैंने कहा- विक्रम और बेताल,
उन्होंने कहा आप कहानी सुना रहे हो ?

मैंने कहा- मेरी बात में दम है
और क्या असल में ऐसा नहीं है ?

शब्दों ने मुझसे कहा- ऐसा हरगिज़ नहीं है
और हम इतने सस्ते भी नहीं हैं,
मैंने पूछा- तो फिर क्या है ?

शब्दों ने फिर मुझसे कहा-
जिस किसी को हमारा ज्ञान हो
और हमारा वजूद मालुम हो
हम उनकी पीठ लदे रहते हैं,
और उनके दिमाग में नई ऊर्जा
और नए शब्द भरते रहते हैं।
शब्दों का भंडार भरना हमारा कार्य है
और इसे बोझ न समझे,
रही बात विक्रम वेताल की
भूमिका हमारी एक जैसी है
और खुशबू अलग-अलग है।

- बाबू राम धीमान


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परीक्षा काल

परीक्षा का जब आता मौसम, मन में उठे हलचल,
कॉपी-किताबों के संग बीते, दिन और रात के पल।

कभी डर का बादल छा जाता, तो कभी विश्वास जगता,
नींद आँखों से रूठी रहती, मन बस उत्तर रचता।

मां कहती- “मेहनत करना, सफलता तूम पाएगा,”
पिता कहते- “डर मत बेटा, मैं हूं सदैव साथ तुम्हारे।”

हर प्रश्न एक नई चुनौती, हर पल सीख का नाम,
पसीने की हर बूँद बनाती, जीवन का सुंदर धाम।

परीक्षा बस अंक नहीं है, मेहनत का यह प्रतिकार है,
यह तो जीवन का एक हिस्सा है, सम्पूर्ण जीवन नहीं सार है।


- डॉ. सारिका ठाकुर 'जागृति'


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चाँदनी रात की प्रतीक्षा

चाँदनी रात
और प्रतीक्षा तुम्हारी!
यादों में महकते तुम
खिलतें गीतों के ग़ुलाब
चितवनें प्रतिबिंब लिए
प्रियतम का
तितलियों सी मंडराती
अपलक निहारती
रही चाँद को
अधर पी रहे चाँदनी,
धीरे-धीरे, धीरे-धीरे
उम्मीदों के जुगनू
रौशन अन्तरमन।
सिमटी एहसासों में
स्नेह स्निग्ध धड़कन
पल- पल थमा- सा
स्मृतियों की बाहों में।
चाँदनी रात
प्रतीक्षा तुम्हारी!
यामिनी व्याकुल-सी
हुई जा रही क्षण-क्षण
चाँदनी सेज सजा रही !
खुशबू से भिगा रही!
तन-मन पिघलता,
तरल हुई जा रही।
वेदना कसकती
अंग-अंग, पोर-पोर
चाहत दहका रही।
बासन्ती तमन्नाएँ
पलाश हुई जा रहीं।
आओ प्रीतम
प्रेम शीतल-चन्दन,
तुम्हारी भुज पाशों में
चाँदनी रात...
प्रतीक्षा तुम्हारी...


- डॉ. रागिनी स्वर्णकार


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