साहित्य चक्र

18 October 2025

बदलते समय की रौशनी और यादों की महक है दिवाली


दीपावली, यह नाम लेते ही मन में एक अनोखी उजास भर जाती है। बचपन की यादों में आज भी वह दीपावली बसी है, जब पूरा घर हफ्तों पहले से सजने लगता था। माँ की आवाज़ गूंजती थी- “साफ़-सफ़ाई अच्छे से करना, लक्ष्मीजी को स्वच्छ घर पसंद है।” हम सब मिलकर अलमारी से लेकर आँगन तक चमका देते थे। मिट्टी के दीयों में तेल डालकर जलाने की तैयारी होती थी, और उनकी लौ में एक अपनापन झिलमिलाता था।





उन दिनों दीपावली केवल एक त्यौहार नहीं थी, घर-घर में रिश्तों की गर्माहट का उत्सव थी। पड़ोसी के यहाँ बनी मिठाइयाँ अपने घर आतीं, और हमारी मिठाइयाँ उनके घर जातीं। न कोई औपचारिकता थी, न दिखावा- बस एक स्नेहिल भाव था जो हर चेहरे पर मुस्कान बनकर चमकता था।

आज दीपावली कहीं अधिक आधुनिक हो गई है। रंग-बिरंगी लड़ियों ने दीयों की जगह ले ली है, ऑनलाइन गिफ़्ट्स ने हाथों से दिए जाने वाले तोहफ़ों का स्थान ले लिया है। मगर इन सबके बीच भी, जब पहली दीपावली की रात को हम दीप जलाते हैं- तो भीतर कहीं बचपन की वही मासूम खुशी फिर से जाग उठती है।

अब हम व्यस्त जीवन में भी कोशिश करते हैं कि अपने बच्चों को वही दीपावली दिखाएँ- जिसमें दीयों की लौ में संस्कार हों, मिठाइयों में अपनापन हो, और रोशनी में भावनाओं की गरमाहट हो।

हर साल जब घर की चौखट पर पहला दीप जलता है, तो लगता है जैसे बीते सालों की सारी यादें फिर से मुस्कुरा उठी हों। माँ की आवाज़, पापा की हँसी, दोस्तों की शरारतें, और आँगन में जलते सैकड़ों दीपक सब एक साथ लौट आते हैं।

दीपावली आज भी वही है। बस नज़र बदल गई है। रोशनी अब भी जलती है, फर्क इतना है कि पहले दिलों में दीप जलते थे, अब बिजली की लाइटों में। पर सच्ची दीपावली तो तभी होती है जब हमारे भीतर का अंधकार मिटे जब हम किसी के चेहरे पर मुस्कान जला सकें।

तो आइए, इस दीपावली पर एक दीप अपने मन के अंधकार के लिए जलाएँ,
एक दीप अपने पुरखों की स्मृतियों के नाम, और एक दीप उस भविष्य के लिए- जो उम्मीद की उजास से भरा हो।


- डॉ. सारिका ठाकुर 'जागृति'



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