उलझन
मंजिल की राहों में, मेरे पड़ाव बहुत हैं,
हासिल कम, और घटाव ज्यादा है।
इस दरिया के, बांध पर,
बहाव कम, और रिसाव बहुत है।
रहते हम, अकेले अक्सर,
अपनों का साथ कम, और सुझाव
बहुत है।
कहने को रिश्ते नाते, दुनिया अपनी,
फिर भी इसमें जुड़ाव कम,
मनमुटाव बहुत है।
पहले पढ़ा करते थे, लोगों को चेहरे से
अब चेहरा किताब, कम, नकाब बहुत है।
मेरे कविता बिल्कुल, मेरे जैसी,
अल्फ़ाज़ कम, दोहराव बहुत है।
- रोशन कुमार झा
*****
थम गए वहीं कदम
जब रिश्तों को टूटते देखा
हंसते-खेलते लोगों को
जब पास से बिछड़ते देखा।
थम गए वहीं कदम
जब झूठ को सच बनते देखा
हाथों में हाथ डालकर चलते हुए
जब क़रीबी लोगों को पराया बनते देखा।
थम गए वहीं कदम
जब इंसानों को पत्थर बनते देखा
तिनके तिनके जुड़े हुए मोतियों को
जब बुरी तरह बिखरते हुए देखा।
- इशिका चौधरी
*****
कवि और उसकी कविता
होते हैं क्या शब्द तीर कवि के ,
सिर्फ समाज पर ही लक्षित,
या फिर उसकी आत्मा को भी,
करते हैं क्या ये जागृत।
गढ़ता जिन आदर्शों,चरित्रों की ईमारत,
शब्दों की इंटों से चिनकर,
बसता भी है खुद उसमें क्या,
या रहता कहीं और ही छिपकर।
चलता क्या उस मशाल की लौ में,
लिए जिसको हाथ में है रहता,
या फिर औरों को राह दिखाकर,
खुद अंधेरे में चलता रहता।
करता प्रहार भेदभाव की दीवारों पर,
क्या खुद सहता या न करता,
देता नहीं हकीकत में उंच- नीच के जख्म,
या फिर दिखावे को ही मरहम करता।
जलता नहीं क्या किसी की सफलता से,
हौसला देने को सच्ची ताली बजाता,
जलता-भुनता रहता या भीतर से,
या नकली मुखौटा चेहरे पर लगाता।
मानव की इज्ज़त मन से है करता,
या फिर ढोंग का राग है गाता,
सुनता, समझता है दूजे के मन को भी,
या अपनी ही है हांकता जाता।
जज्बाती खेलों का नहीं क्या खिलाड़ी,
है पाक साफ़ मन का स्वामी,
मौका प्रस्ती की पढ़ाई में सच है अनाड़ी,
या जानता है मिलीभगत की इन्तजामी।
है अगर कवि और कविता का संगम,
फिर कवि प्रकृति की सर्वोत्तम है कृति,
कवि और कविता का भेद तो,
लगता बस शब्द उजाड़ और स्व-स्तुति।
- धरम चंद धीमान
*****
हम बन जाएंगे
हम बखुश्बू बन जाएंगे
तुम दरिया बनो
हम किनारा बन जाएंगे
तुम प्रेम मे डुबो
हम सहारा बन जाएंगे
तुम जंगल में खो जाओ
हम इशारा बन जाएंगे
तुम अंतरिक्ष में विचरण करो
हम ऑक्सीजन बन जाएंगे
तुम अश्क बहाओ
हम ख़ुशी भर जाएंगे
तुम अंधेरों में चलो
हम दिया बन जाएंगे
तुम महफ़िल सजाओ
हम गीत गुनगुना जायेंगे
तुम उड़ान भरो
हम फलक झुका देंगे।
- सदानंद गाजीपुरी
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स्नेह-डोर
दूजे मानव पर गुस्सा आया
दोनों ने कोहराम मचाया
तू तू मैं मैं,मैं मैं तू तू
पथ पर जाते हुए पथिक नें
स्नेह,प्रेम का पाठ पढ़ाया
समझ ना आया
क्लेश बढ़ा
हाथापाई पर बात बन आयी
प्रेम से रोटी बाँट कर,खाकर
एक श्वान आया,उन्हें बताया
"तुम दोनों ही गुस्से में हो
रुक जाओ थोड़ा
पानी पी लो
सोचो आखिर
इस झगड़े का मूल था क्या
लड़ना क्या आवश्यक है
या है इसका
कोई विकल्प
सोचो तो,थोड़ा रुक कर।"
दोनों मानव ने बात सुनी
उस वीर श्वान की
ठहरे पल भर,
पानी पीकर
सोचा और विचारा कुछ-कुछ
बनी सहमति उन दोनो में
नहीं लड़े फिर,
एक हुए
मन ही मन निर्मल-हृदय
श्वान को वंदन कर
साथ चले
उस पार क्षितिज के
स्नेह-डोर में बंधे-बंधे।
- अनिल कुमार मिश्र
*****
बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी
कौड़ियों की न रहेगी कीमत,
हैरान, परेशान न हो,
औकात जरूर दिखलाएगी
बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी...
मुर्गों की तरह न फड़ फड़ा
नहीं तो शामत जरुर आएगी,
चलेगा जब खंजर कसाई का
गर्दन साबुत न रह पाएगी
बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी...
देखा है रंजोगम में डूबते हुए,
जो बनते थे शहंशाह,
देखा है कुटिल चाल चलते
हिटलर को भी,
हाथ कुछ न आ सका
सिवाय गम के,
शेखी न ज़्यादा बघारा कर,
शामत तेरी भी आएगी
बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी...
सितम मुफ़्त में हर कहीं
न ढाए जा
अंजाम देख कर एक दिन
रूह जरूर कांप जाएगी
मृत्यु भी उस दिन
कहां बख्स पाएगी,
बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी...
- बाबू राम धीमान
*****
ज़माना है खराब
खुद को सुधारते नहीं कहते हैं ज़माना है खराब
संस्कारों की कमी ने कर दिया सब कुछ बर्बाद
आवोहवा ऐसी बदली की धुआं धुआं हो गया
पंछी उड़ गया जाल से देखता रह गया सैयाद
जुल्फें काली थी अब सफेद हो गई
जिंदगी यूँ ही झमेलों में गुज़र गई
दिल अभी भी समझता रहता है जवान
बहार आई भी और झट से निकल गई
मौके की तलाश में रहते हैं बनते है बहुत स्याने
बढ़ते जा रहे हैं आगे रिश्तों को लगा कर ठिकाने
अपनी अकड़ में रहते है लोग आजकल
रूठने पर कौन जाता है किसी को मनाने
विद्यार्थी अध्यापक को आंख है दिखाता
चोरी करता है जो वह पकड़ में नहीं आता
अपना कसूर हो तो चुप हो जाते हैं सारे
हो दूसरे का तो ज़माना बहुत शोर है मचाता
जुल्म को देख कर भी सामने से निकल हैं जाते
सच्चाई का साथ नहीं देते हैं डर जाते
ज़ुबान पर जैसे हो ताला लगा हुआ सबके
पूछे भी कोई तो कुछ नहीं हैं बताते
देना पड़ेगा सबको अपने कर्मों का हिसाब
लाना पड़ेगा थोड़ा अपने आप में भी बदलाव
बातें बनाने से ही यह दुनिया नहीं सुधरेगी
एक से एक जब मिलेंगे तभी तो आएगी इंकलाब
- रवींद्र कुमार शर्मा
खुद को सुधारते नहीं कहते हैं ज़माना है खराब
संस्कारों की कमी ने कर दिया सब कुछ बर्बाद
आवोहवा ऐसी बदली की धुआं धुआं हो गया
पंछी उड़ गया जाल से देखता रह गया सैयाद
जुल्फें काली थी अब सफेद हो गई
जिंदगी यूँ ही झमेलों में गुज़र गई
दिल अभी भी समझता रहता है जवान
बहार आई भी और झट से निकल गई
मौके की तलाश में रहते हैं बनते है बहुत स्याने
बढ़ते जा रहे हैं आगे रिश्तों को लगा कर ठिकाने
अपनी अकड़ में रहते है लोग आजकल
रूठने पर कौन जाता है किसी को मनाने
विद्यार्थी अध्यापक को आंख है दिखाता
चोरी करता है जो वह पकड़ में नहीं आता
अपना कसूर हो तो चुप हो जाते हैं सारे
हो दूसरे का तो ज़माना बहुत शोर है मचाता
जुल्म को देख कर भी सामने से निकल हैं जाते
सच्चाई का साथ नहीं देते हैं डर जाते
ज़ुबान पर जैसे हो ताला लगा हुआ सबके
पूछे भी कोई तो कुछ नहीं हैं बताते
देना पड़ेगा सबको अपने कर्मों का हिसाब
लाना पड़ेगा थोड़ा अपने आप में भी बदलाव
बातें बनाने से ही यह दुनिया नहीं सुधरेगी
एक से एक जब मिलेंगे तभी तो आएगी इंकलाब
- रवींद्र कुमार शर्मा
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मृत्यु
अभी मेरे सपने पूरे नही हुए,
नही जो पाया हूं अपनी जिंदगी।
अरे , अभी अभी तो ख्याल आया है,
कर लेने दो किसी चरणों की बंदगी ?
मेरा बेटा विदेश में पढ़ता है,
जरा मेरे सगे संबंधियों को आ जाने दो।
खून पसीना से कमाया हूं ये धन,
अरे इसका कुछ हिस्सा तो ले जाने दो ?
प्यार करता हु मैं जिससे,
एक बार उसकी बाहों में सो लेने दो।
बहुत रोएंगे मेरे सब अपने,
एक बार गले मिलकर रो लेने दो।
उसके बाद मृत्यु ने उस आत्मा को क्या कहा सुनिए-
क्यू नही हुए तेरे सपने पूरे ?
हमने समय तो तुम्हे भरपूर दिया।
पर तूने आलस्य, प्रमाद,घमंड में
उस समय को चकनाचूर किया।
दो पल कोई तेरे साथ न बैठा,
तु कहता जग साथी मेरा।
क्या? जायेगा कोई साथ तुम्हारे।
कौन है यहां अपना तेरा ?
पल पल उसके साथ रहा,
पर क्यू नही उससे प्यार किया ?
मैने तुम्हे जीने किन चाह दी थी,
फिर क्यों नही तूने अपनी जीवन जिया ?
वहां पर सिर्फ नौटंकी होगा,
जहां अर्थी पर तुम रहोगे पड़ा हुआ।
इतना सुनते ही उस आत्मा ने,
शरीर छोड़कर खड़ा हुआ।
- गगन कुमार
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