साहित्य चक्र

19 October 2025

आज की प्रमुख रचनाएँ- 20 अक्टूबर 2025





ना मैं गिरा...

ना मैं गिरा, ना मेरे हौसले गिरे,
मगर मुझे गिराने में लोग कई बार गिरे।
वो जो जलाते रहे मेरे रास्तों की रौशनी,
उन्हीं के घर के दीये मेरी नज़र में घिरे।
हर ठोकर ने सिखाया है सफ़र का सबक,
मैं गिरा ज़रूर, मगर यूँ नहीं कि दिल ही मिरे।
ज़ुबां पे सच्चाई थी, इसलिए चुभी सबको,
जो झूठ बोले, वो देखो मसीहा बने फिरे।
मैंने चाँद माँगा न था, बस थोड़ा उजाला माँगा,
वो सितारे गिनाते रहे, और दिल मेरे थमे फिरे।
मक़सद बड़ा था, मगर रास्ते काँटों भरे,
वक़्त हारा नहीं, हौसले मेरे खरे उतरे।
जो सच लिखूँ तो कहते हैं- "संयम रखो",
जो झूठ बोले, वो अख़बार में छपे, निहाल फिरे।
भीड़ ने पत्थर मारे, कहा- "देशभक्त हैं हम",
मैंने सवाल किया, तो बोले- "ये ग़द्दार फिरे!"
गरीब की थाली में धुआँ है, पर क्या करें,
विकास की थाली में सिर्फ गढ्ढे गिरे।
ना मैं झुका, ना मेरी ज़ुबां बिक पाई,
पर बिके हुए लोग तालियाँ लिए फिरे।
ना मैं गिरा, ना मेरे हौसले गिरे,
बस लोग अपनी कोशिशों में कई बार गिरे।


- शशि धर कुमार


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काले बादल

काले बादल कहाँ से तुम हो आते
अब तो कारनामे तुम्हारे छुपाए नहीं जाते।
बेवक्त, बेमौसम तुम हो नीर बरसाते
सड़क, मोहल्ला, गली सब जलमग्न हो जाते।
नदी नाले अपनी सीमा को भूल जाते
कहीं न कहीं आपदा का कहर जरूर बरपाते।
बच्चा, बूढ़ा नौजवान इसकी भेंट है चढ़ जाते
तो कहीं पशु भी अपने को बचा नहीं पाते।
बरसते बादल तो कई वर्षों से हैं देखे
अबकी बार जो बरसे नहीं मिले कहीं ऐसे लेखे।
तीन महीने लगातार तुम रहे बरसते
बिन तुम्हारे एक दिन देखने को रहे तरसते।
बरसात को एकदम सर्दी से जोड़ दिया
तुम्हें याद नहीं रहा कि किसान ने
अभी खेतों से अनाज इकट्ठा नहीं है किया।


- विनोद वर्मा


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अंधा बांटे रेवड़ियां, फिर फिर अपनों को दें
तानाशाह बन कर घूमे, फैसले भी खुद ही ले
निर्णायक मण्डल की तो बात ही छोड़ दो यारों
इनामात भी अपनों को ही दें
अंधा बांटे रेवड़ियां, फिर फिर अपनों को दें।
साहित्य प्रेमी बन ढिंढोरा पीटे, हर महफ़िल में,
वाह वाही भी अपनी ही करें,
अपनी बड़ाई खुद ही करें, सम्मान भी खुद ही लें
सुर्खियां बनाए अपनी ही रचना की,
औरों को तरजीह न दें,
अंधा बांटे रेवड़ियां, फिर फिर अपनों को दें।
जात पात खत्म हुई कागजों में, संविधान से,
निकल न पाई कमबख्त, लोगों के दिलों से
ज़िन उसका निकल ही जाता है गाहे बगाहे
मुंह ताकते रहते और पीटते रहते तालियां
मन उदास हो जाता ऐसा दृश्य देख कर,
धीमान गिला क्या करें किसी से,
क्यों न रुखसत करें ऐसी महफिलों से
ऐसी महफिलों को क्यों न अलविदा कह दें
सच साबित हुई लोकोक्ति, और क्या प्रमाण दें
अंधा बांटे रेवड़ियां, फिर फिर अपनों को दें।


- बाबू राम धीमान


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खतरे में रहता है

ऊंची मीनारे
बस्ती ,समंदर के किनारे
आदमी बैसाखी के सहारे
ज्वालामुखी के फुहारे
खतरे में रहता है ।
झूठी शान
I.C.U.में जान
बिना रजिस्ट्री मकान
बहुत लम्बी जुबान
खतरे में रहता है।
जवानी में मस्ती
खोखली हस्ती
बीच भंवर में कस्ती
आग से जबरजस्ती
खतरे में रहता है।
तेज गाड़ी की रफ्तार
बिना बहुमत की सरकार
जंग लगा औजार
सरहद पर पहरेदार
खतरे में रहता है।
घर में क्लेश
बाहरी आदमी का प्रवेश
बमबारी वाला देश
गिरगिट वाला भेष
खतरे में रहता है
तूफान में छाता
सोशल साईट पर बैंक खाता
छल फरेबी रिश्ता नाता
निरंकुश हाथ में सत्ता
खतरे में रहता है
जरूरत से जादा मक्कारी
झूठ बोलने की बीमारी
रिश्ता में अदाकारी
जरूरत से जादा खरीददारी
खतरे में रहता है।


- सदानंद गाजीपुरी


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मेरा भारत महान

जगह-जगह कूड़ा बिखरा पड़ा है,
जैसे चांद की सुंदरता को ग्रहण लगा है,
फिर कैसे सिर उठाकर कहें मेरा भारत महान।

अपने घर के आंगन को करके साफ,
राह गलियों को करते नज़रंदाज़,
फिर कैसे सिर उठाकर कहें मेरा भारत महान।

कहीं खाली प्लास्टिक के थैले पड़े हैं,
कहीं खाली प्लास्टिक बोतलों के अंबार लगे हैं,
फिर कैसे सिर उठाकर कहें मेरा भारत महान।

कूड़ा कर्कट इधर उधर फैलाकर,
बीमारियों के देते न्योता बाहें फैलाकर,
फिर कैसे सिर उठाकर कहें मेरा भारत महान।

चलती गाड़ी से फैंक रहा है कूड़ा कोई,
जहां मर्जी ढेर लगाकर जा रहा है कोई,
फिर कैसे सिर उठाकर कहें मेरा भारत महान।

जहरीली हवाएं भी दम लगी घोंटने,
लगी सबके बढ़ते कदमों को रोकने,
खुद ही करेंगे यलगार तभी होगा भारत महान।

धरती बंजर हो रही इससे,
जहर बन रहा पानी इससे,
फिर कैसे कहें सिर उठा कर मेरा भारत महान।

मुंह ताकते हैं कि सरकार करेगी कुछ,
अधिकार याद हैं कर्तव्य भूल गए सचमुच।
फिर कैसे सिर उठकर कहें मेरा भारत महान।

रैली वाले दिन ही नहीं करना है सफाई का काम,
स्वच्छता बन जाए हर दिन का काम,
फिर सिर उठाकर कह सकेंगे मेरा भारत महान।


- राज कुमार कौंडल


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जहाज़ का पंछी

मन हुआ मेरा, जहाज़ का पंछी,
हो आया सारा आकाश, छोड़ कर जहाज।

यादें लिए चूजों और घोंसले की,
भरी उड़ान अदम्य हौसलों की।

लौटा निराश,ना पा उम्मीद और अपना बसेरा,
लौट फिर, डाला जहाज पर ही
अपना डेरा।

छूटा बचपन, रिश्ते छुटे ,
छूटा अपना गांव और घर।

पहुंचा मुफलिसी में,
खुद के जीवन को तराशने,
सोचा जीवन,
मेरा जाए संवर।

जहां रहते लोग बेगाने, अनजाने,
बेग़ैरत और सबों से बेखबर।
शायद, हां शायद
इसी जंगल में, जिसे लोग कहते
सपनों का शहर।

अब कैसे लौटें आपने गांव और घर
बदल गई जिंदगी और जिंदगानी अपनी
अब शायद ही कोई बच पाए,
लगी है, सच में, किसी अपने की नजर।


- रोशन कुमार झा


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किरदार

इस जीवन में सबका किरदार है अपना अपना
किसी को मिलती है मंजिल कोई देखता रहता है सपना
कठपुतली की तरह नचाता है सब को वह
संसार में बहुत अद्भुत है जिसकी हर रचना
कोई मां का कोई पिता का किरदार है निभाता
जीवन का हर रिश्ता ऊपर से बन कर है आता
काम नहीं आता खून का रिश्ता भी कई बार
जुड़ जाता है किसी से फिर भी गहरा नाता
कोई किसी से नहीं मिलता न कोई है मिलता
यह सब तो पैदा होने से पहले ही तय हो जाता
अपनी मर्जी से कोई जी नहीं सकता यहां
जितना लिखा है उससे एक पल भी ज़्यादा नहीं जी पाता
अमीर के घर है पैदा होता है कोई
कोई गरीबी मे ही अपनी उम्र है बिताता
मनपसंद चीजे खा नहीं सकता कोई
कोई हर चीज़ का लुत्फ है उठाता
जीवन की डोर ऊपर वाले ने रखी है अपने हाथ
लिखा है जितना उससे ज़्यादा नहीं मिलता किसी का साथ
कठपुतली की तरह नचाता है खींचता रहता है डोर
कुछ नहीं मिलता उसे जो जीवन से हो जाता हताश


- रवींद्र कुमार शर्मा


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रिश्तों पर प्रहार

रिश्ते हो गए देखो तार-तार,
कैसा ज़माना देखो आया ,
सास जमाई का हो गया नैन मट्टका,
हो गया दोनों को आपस में प्यार।
लड़का गया देखने लड़की,
भा गया उसको सास का श्रृंगार,
सास ने भी डाली ऐसी नज़र,
तीर हो गया दोनों के दिलों के आर-पार।
हुआ मोबाइल नंबर का आदान-प्रदान,
बढ़ने लगी नजदीकियाँ हुई बातों की बौछार,
जब रहा नहीं गया लड़के से,
दे दिया उसने एक मोबाइल उपहार।
दोनों को आई इक दूजे की बातें इतनी रास,
लगे लगाने फिर भागने का कयास,
जैसे– तैसे तिकड़म किया फिट,
भाग गए दोनों हो गई उनकी जोड़ी हिट।
घोर कलयुग अब देखो आया यारो,
सास ने जमाई को पटाया यारो,
लड़की की थी समझो किस्मत अच्छी,
वरना बाद में दाग उसको लगना था यारो।
क्या हो रहा आजकल ये यार,
इस मोबाइल से टूट रहे घर परिवार,
न रही अपनेपन की परवाह अब किसी को,
सारे रिश्ते हो रहे अब तार-तार।
सास जमाई की बात छोड़ो,
बात बनाने गए लड़के-लड़की की,
समधी के साथ समधन ही हो गई फरार,
अब सारे रिश्ते हो रहे तार-तार।
मोबाइल और जीविका में हो न इतने व्यस्त,
जरूर दें अपने बच्चों को अच्छे संस्कार,
’अनजान’ बन रहे हम सब अनजान,
नहीं रुकेगा फिर रिश्तों पर प्रहार।


- कैप्टन जय महलवाल 'अनजान'


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परिवार

दादा दादी से कहानी कोई,
नन्हे बच्चे जब सुनते हैं।
हंसी ठिठोली आंख मिचौली,
जब उनके साथ में करते हैं।

एक अजब सुकून मिलता है,
जब संग परिवार में रहते हैं।
भाई-भाई में प्रेम सदा ही,
बिन कल छपट के रहता है।

निस्वार्थ भाव से सभी,
मदद को आगे रहते हैं।
जीवन जीने के तरीके सही,
संस्कार परिवार से मिलते हैं।

ना कोई गिला शिकवा कभी,
आपस में खुट-खुट पर होता है।
छोटी-छोटी बातों को सब मिल,
बातों बात में समाधान खोजता है।

बिना शर्त परिवार में 'रघु',
प्यार और अपनापन मिलता है।
दादा-दादी, माता-पिता की ममता,
भाई-बहनों का दुलार भी मिलता है।

पहचान इंसान की पहली,
उसका परिवार ही होता है।
समझदार इंसान कहां कभी,
अपने परिवार से दूर होता है।

अमूल्य खजाना रिश्तो का,
संभालो इसे न खोने देना।
मिलकर साथ रहना सदा,
हर हाल में परिवार न टूटने देना।

ना मिलेगी लोरी कानों को,
ना होगा कोई रोकने टोकने वाला।
आएगी कभी विपदा तो,
संघर्ष करेगा अकेला जीने वाला।

तब याद आएगा वही परिवार,
जहां विपदा बड़ी से बड़ी निपटाते थे।
बैठके ख़ुशी ख़ुशी इसी परिवार,
एक दूसरे का सहारा बनजाते थे।


- राघवेंद्र प्रकाश 'रघु'


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दीपों की माला, खुशियों की धारा
दीपावली आई, जगमग सितारा।
हर घर में रोशनी, हर दिल में प्यार,
सजा है आँगन, सजी है बहार।
अंधकार मिटा, उजाला फैलाए,
हर कोने में उम्मीद जगाए।
मिठाइयों की खुशबू , रंगोली के रंग,
दिलों में बसीं हैं उत्सव की तरंग।
पटाखों की गूंज, दीयों की बाती,
संग लाए खुशियाँ, नई सौगातें।
माँ लक्ष्मी का स्वागत करे संसार,
सुख-समृद्धि से भर दे हर द्वार।
चलो जलाएं दीप, बाँटें प्रकाश,
दूर करें बैर, बढ़ाएं विश्वास।
दीपों की माला, प्रेम का पैगाम,
इस दिवाली, सबको दें सलाम।
स्नेह और अपनापन हो हर तरफ,
हर मन में हो उजियाला।
मुस्कानें हों हर चेहरे पर,
हर जीवन में हो उजाला।
सज जाएं चौखटें, महक उठे घर,
हर आँगन में हो खुशियों का सफर।
संग मिलें सब, गाएं गीत,
दिल से दिल जोड़ें, मिटाएं हर रीत।
रंगोली के रंगों से रंगीन हो जीवन,
हर रिश्ते में हो अपनापन।
बैर, द्वेष और कटुता जाएं दूर,
स्नेह का दीप हो हर दिल का नूर।
चलो मनाएं पर्व ये मिलकर,
हर कोने को करें उज्जवल।
सिर्फ अपने लिए न, औरों के लिए भी,
खुशियाँ बाँटकर बनाएं ये पल।
महालक्ष्मी का वास हो हर घर,
हर सपना हो पूरा, हर मन में हो असर।
प्रेम, करुणा और दया का हो राज,
दिवाली पर मिले सच्चा सुकून और साज।
दीप जलें, दिल मुस्कुराएं,
हर घर में रौशनी छा जाए।
प्रेम, सौहार्द और अपनापन हो,
हर ओर दिवाली का उजाला छा जाए।

- अर्जुन कोहली


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दीप पर्व

त्योहार हो या कोई पर्व
घर को सजाया जाता है।
दीप जलाकर गृह को,
दुल्हन सा लुभाया जाता है।
नये नये तोरण मोहक,
द्वार पर लगाया जाता है।
फल फूलों से सुगन्धित
मन को महकाया जाता है।
प्रभु प्रेम की अराधना से
भक्ति रस छलकाया जाता है।
पर हाय रे ह्रदय की गेह पर
न कोई दीपक जलता है।
न ही किसी के मधुर बोल,
दिल को आल्हादित करता है।
न ही किसी भावों की कलिका
मन को सुगन्धित करता है,
न ही प्रभु का किंचित प्रेम,
मन पियूष सा पीता है।
जिसमें रम कर सारी पीड़ा,
कपूर सा उड़ जाता है।
प्राणी हीन चीजों पर,
पैसा लुटाया जाता है।
पर संवेदना के दो शब्द,
जो दिल को आलोकित करता है
वह दीपावली न कभी आता है
न कोई दीप वहां सजाता है
घर को सजाने में व्यस्त सभी,
न मन को कभी सजाते हैं।
सूना मन तब यह कहता है
जान की कीमत यहां शून्य,
चीजो को पूजा जाता है।


- रत्ना बापुली


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हर दिन दीवाली है

मन में अगर दीप जले-
तो हर दिन दीवाली है,
जीवन में यदि सुख-शांति बसे-
तो हर पल उजियाली है।

मन में यदि दूसरों के लिए प्रेम हो-
तो हर दिशा प्रकाशमय है,
और हृदय में अगर सच्चे भाव बसें-
तो हर क्षण आनंदमय है।

जब मन के मंदिर में दीप जलते हैं,
तो अंधकार टिक नहीं पाता,
भक्ति की जोत अगर भीतर हो-
तो हर क्षण स्वयं प्रभु मुस्कुराता।

जीवन में जब शांति बहती है,
तो कलह भी गीत बन जाती है,
और जब मन में स्नेह खिलता है,
तो हर राह पुष्प बरसाती है।

दूसरों की खुशी में जो हँसे,
वही सच्चा मानव कहलाए,
जिसके अंतर में प्रेम की गंगा बहे-
उसके जीवन में हर दिन प्रभा छाए।

अगर हृदय में दया का वास हो,
और नेत्रों में करुणा का नूर,
तो हर दिशा जगमगाती है,
हर पल बनता है पर्व भरपूर।

ना पटाखों की ज़रूरत, ना शोर की बात,
बस मन हो शांत, भाव हों स्वच्छ,
जहाँ प्रेम और इंसानियत साथ हों-
वहीं सच्ची दीवाली, वहीं सच्चा व्रत।

क्योंकि-
जब मन में दीप जले, तो हर दिन दीवाली है,
और जब हृदय में प्रेम फले- तो हर सांस शुभाली है।


- रजनी उपाध्याय


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भाई

भाई भाई होता है, ये जानते हैं सब,
राम जीते थे भाई के कारण,
रावण हारा- यह मानते हैं सब।
भाई का अर्थ क्या होता है जीवन में,
यह भी पहचानते हैं सब,
फिर भी न जाने क्यों,
भाई को ही प्रतिद्वंद्वी मानते हैं सब।

जीवन की उठा–पटक के बाद समझ आता है,
मुश्किल घड़ी में सिर्फ़ भाई काम आता है।
जिसे जीवनभर प्रतिद्वंद्वी मान उलझते रहे,
कठिन समय में वही भाई काम आता है।

जाने क्यों,
समय रहते यह नहीं मानते लोग,
भाई से सिर्फ़ ख़ून नहीं-दिल का नाता है।
समय रहते भाई का मोल नहीं पहचानते लोग।

भाई भाई होता है,
जब दुनिया हँसती है आप पर,
तब सिर्फ़ भाई रोता है।
असल कीमत तभी समझ आती है,
जब भाई भाई को खोता है।

जहाँ भाई, भाई का मोल पहचानता है,
वो घर-धरा पर है स्वर्ग स्वरूप,
यह सारा जहान मानता है।


- कंचन चौहान


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उम्मीद न छोड़

पतझड़ कितना भी लम्बा हो,
लेकिन बसंत जरूर आता है।

अंधियारी हो रात कितनी भी,
उजाला सवेरा जरूर लाता है।

उम्मीद कभी न छोड़ो जीवन में,
उम्मीद से ही ये जहाँ चलता है।

गम की रात हो कितनी भी लम्बी,
ख़ुशी का सूरज भी जरूर उगता है।

हो पतन कितना भी विध्वंशी,
उत्थान का दौर भी फिर आता है।

अमावस का भी निश्चित है आना,
पूर्णिमा का चाँद भी जगमगाता है।

हो समन्दर कितना भी फैला,
कहीं तो किनारा भी आता है।

बेवफाई कितनी भी मिले यहाँ,
वफादार भी कोई मिल जाता है।

आभूषण बनने को सोने को भी,
आग में जलना तपना पड़ता है।

मोती बूँद को बनने के खातिर,
मुख सीप के जाना पड़ता है।

उड़ान कितनी भी ऊँची भर लो,
सहारा जमीन पर ही मिलता है।

उम्मीद कभी न छोड़ो जीवन में,
उम्मीद से ही ये जहाँ चलता है।


- लता कुमारी धीमान



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अक्स उनका जब दिखा था रेत पर
नाम अपना भी छुपा था रेत पर

दिल सदा करता रहा मनमानियां।
पाॅंव नंगे मैं चला था रेत पर।।

बददुआ में भी दुआ है इक निहाँ
इक दुआ का फ़लसफ़ा था रेत पर

यामिनी के दोश पर मैं थी झुकी
मुझको वो हासिल हुआ था रेत पर

ना समझ थे हम कभी समझे नहीं।
प्रेम का कब गुल खिला था रेत पर।।

रीत सब 'रति' ने निभाई प्रीति की
स्वप्न पर बिखरा पड़ा था रेत पर।।


- रिंकी सिंह


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