साहित्य चक्र

18 October 2025

हास्य व्यंग्य लेख- खिचड़ी

यदि हम कहे कि हमारी जिन्दगी खिचड़ी सी होकर झंडू वाम हो गई तो अतिशयोक्ति न होगी। आप कहेंगे कैसे ? तो आईए मैं अपनी ही जिन्दगी से कुछ उदाहरण पेश कर रही हूँ किसी का हो या न हो पर मेरी तो जिन्दगी खिचड़ी हो गई। मातृ भाषा बंगाली, जन्म विहार मे, पढ़ाई उत्तर प्रदेश मे सब मिलकर ज़िन्दगी कैसी होगी ?

जिन्दगी भई खिचड़ी ही तो होगी, बंगाल की चावल, उत्तर प्रदेश की दाल मिलाकर जीवन को परम पिता ने खिचड़ी बना दिया उसमे तड़का भाषाओ का, रहन सहन का रिवाजों का क्या लग गया जिन्दगी झंडू बाम हो गयी। ऐसा क्यों नही होता है कि सम्पूर्ण भारत की सभ्यता, रहन सहन, भाषा सब एक हो ताकि हम जैसे रोजी रोजगार मे तलाशते हुए जीवन को हर जगह सरलता का भान हो।





एक चीज तो इस तड़के मे डालना भूल ही गए वह है अँग्रेज़ी भाषा ।हिन्दू राज्य मे अँग्रेज़ी भाषा इस कदर घुस पैठ कर रही है कि गॉव के भोले भाले लड़के जो इस उमींद से आते हैं कि कुछ करेंगे उन्हें असफलताओं का सामना बार बार करना पड़ता है और उनकी ज़िन्दगी खिचड़ी बनकर रह जाती है। लेखन के क्षेत्र मे भी यही बात दृष्टिगोचर होती है।

अपनी खिचड़ी होती ज़िन्दगी मे भी यही हो रहा है मातृ भाषा बंगाली, और अराध्य देवी ने कलम पकड़ा दी हिन्दी भाषा की, बर्चस्व अँग्रेज़ीं भाषा की। जाए तो कहॉ जाए। ज़िन्दगी खिचड़ी हो गई, खिचड़ी खाना सबको पंसद नही अतः पुरस्कार देने वालों को क्यों यह खिचड़ी पंसद आएगी वह लोग तो यही चाहेंगे कि हिन्दी मे जो भी लेख लिखो विशुद्ध हिन्दी मे ही हो विना व्याकरण के भूल के या विना वर्तनी के भूल के ऐसी परिस्थिति मे हमारी लेखनी हर ओर से हारे हुए बाजी की तरह मुहँ चुराए गुजरती रहती है। ऐ दुनिया के मालिक बता तुझे मेरी ज़िन्दगी को जब हराना ही था तो मेरे हाथ मे लेखनी क्यों पकड़ाया, और पकड़ाया भी तो मेरा जन्म, एंव मातृभाषा को हिन्दी का जामा क्यो नही पहनाया ?

या तो कलकत्ता की भाषा बंगला को ही हमारे हाथ की लेखनी मे थमा देता ।न घर के न घाट के रहे हम लोग, जी जान दे दें, पर कहलायेंगे प्रवासी ही। चाहे भले ही हम उत्तर प्रदेश मे जन्म से निवास कर रहे हैं पर कहलाते हैं अभी भी हम प्रवासी , हमारी ज़िन्दगी की रस्सी न तोड़ते बनता है न बॉधते बनता है। मातृभाषा बंगाली होने की वजह से बंगाली महानुभावों की तरफ से दबाव आता है बंगला लिखे और यहॉ के लोगों के मन मे यह भाव आ जाता है कि हम दूसरे भाषा भाषी को क्यों सम्मानित करे क्या हमारे हिन्दी भाषी मर गए हैं उनको हमारी इस भावना से कोई लेना देना नही कि हम बंगाली भाषी होते हुए भी अपनी जगह बनाने के लिए कितना संघर्ष किए हैं।

धर्म की अवधारणा मे भी खिचड़ी का वर्चस्व दिखाई पड़ता है, अलग अलग विचारों से बना पंथ खिचड़ी ही तो बन गया है उसमे राजनीति का शुद्ध देशी घी का ऐसा तड़का लगता है कि वह प्रसाद सा स्वाद देने लगता है। हम भी तो खिचड़ी खाने के आदी हो गए हैं। आपस के प्यार एंव मेलजोल ने हमारे भी पूजा पाठ रहन सहन सबको बदल कर खिचड़ी के रूप मे परोस दिया है और यह अच्छा भी है, आपस की कटुता यदि इसी माध्यम दूर हो तो अच्छा है।

न जाने वह दिन कब आएगा जब हम मानवता एंव प्रेम की मिक्स खिचड़ी बनाकर हर जगह पड़ोसेंगे। अब आप ही बताए ज़िन्दगी हमारी खिचड़ी बन गई और वह भी विना गली हुई। कहे तो किससे कहे। पिछले वर्ष माननीय प्रधानमंत्री मोदी जी ने मातृभाषा सीखने की प्रेरणा दी पर जब तक उसे राजनीति का जामा नही पहनाया जाएगा तब तक यह कारगर नही होगा।

मातृभाषा को सम्मान देने के लिए हर स्कूल में कक्षा आठ तक मातृभाषा पढ़ा जाना अनिवार्य करना चाहिए तभी यहां सभी भाषाओं का वर्चस्व होगा एवं यही भाषा हमे एक दूजे के संग जोड़ेगी भी। भारत तभी भावनात्मक रूप से एक होगा। बच्चे एक दूसरे के भाषाओं को जाने,रहन सहन को जाने इसके लिए यह जरूरी है कि हर वर्ष गर्मी की छुट्टियों मे स्कूलों की तरफ से ही एक भाषा कैम्प का आयोजन किया जाए जिसमें भारत की हर भाषा का अध्ययन कराया जाए जो अनिवार्य हो।

हम रचनाकारों का कर्तव्य है अपने विचारों को सरकार तक पहुचाना, मानना न मानना सरकार की अपनी मर्जी है,भारत की संस्कृति की जो धारणा है अनेकता में एकता यह धारणा इसी कार्य से ही सफलीभूत हो सकती है। इस कार्य के फलीभूत होने पर हम अंग्रेज़ी भाषा को जो हमारी विदेशी भाषा है, और जो जामवंत की तरह अपना पैर जमाकर बैठी हुई है उसको कुछ हद तक अपने भारतीय होने का गौरव दिखा सकते हैं। मेरा अन्तर मन तक इस पीड़ा से घायल होता है कि हम एक होकर भी भाषा, जाति, रहन-सहन से अलगाव बाद की तरफ बढ़े जा रहे हैं। काश हमारी आने वाली पीढ़ी इस दंश को न झेले।


- रत्ना बापुली


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