इतनी शिद्दत से
तुम्हें देखा मैंने...
अपने से ज्यादा भरोसा
तुम पर किया मैंने...
हम तो तुमको
देखकर जिया करते थे,
तुमको सोचा, तुमको जाना
तुम ही हकीकत...
तुम ही फसाना...
तभी तो हर बात...
तुम्हारी मान
लिया करते थे हम!
- रेखा चंदेल
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यामिनी
गहराते घने स्याह रँग
ज़ुल्फ़ों के यामिनी!
पीले गैंदे - से
गुद -गुदाते स्पर्श .!
नीला आसमां
दूधिया मोती -सा चाँद !
मन की सीपी
में एहसास के मोती;
तारों जड़ी ओढ़नी;
निःशब्द वातावरण!
उतरती साँसों में ख़ुशबू,
शाख़ों पर नीड़ों में
गुफ़्तगू की फुसफुसाहट!
और सुनसान निर्जन गलियाँ,
मौन की भाषा बोलता है
फिर ये कौन ?
- डॉ. रागिनी स्वर्णकार
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रावण आज भी जिंदा है!
रावण आज भी जिंदा है
हर गांवों में घरों में
जब तक मन में घमंड है
जब तक एक स्त्री में भय है
तब तक रावण जिंदा है
जिंदा है हर कुल में
हर खानदान में
दुनिया जहान में
गाँव के मुखिया, प्रधान में
रावण हर पल जिंदा है
बेटियों की लुटती अस्मत में
बिगड़ते घरों के रिश्तों में
साधुओं के झोले व बस्तों में
सन्यासियों संतों के मठों में
नेताओं के कोठों में
रावण आज भी जिंदा है
मन में जगे रावण को जलाना
होगा
दूषित हो चुकी भावनाओं को
जलाना होगा
नया विचार अपनाना होगा
नया उज्ज्वल भारत बनाना होगा।
- मनोज कौशल
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आ भी जाओ
आ भी जाओ
आज हम
कुछ बात कर लें
भूल जाएं इस जगत के
हार को और जीत को
तुम कहो तो वक़्त कुछ बेकार कर लें
आ भी जाओ
बेवजह कुछ बात कर लें
प्रीत की हो रीत कैसी
और रीत पर हो प्रीत कैसी
नेह पर उपकार की बरसात कर लें
आ भी जाओ वक़्त कुछ बेकार कर लें
थोड़ी सही पर
बेवज़ह कुछ बात कर लें।
- अनिल कुमार मिश्र
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ज्ञान से जागरण तक
अंधकार था मन भरा, पापी जीवन खेत।
ज्ञान-सूर्य जब उग गया, हटी तमस की रेत।।
रत्नाकर से ऋषि हुए, तप से बदला भाव।
शब्दों में करुणा बही, ज्यों सागर में नाव।।
राम नाम की साधना, सुमिरन बना प्रकाश,
भटका मन पथ पा गया, नभ में सूरज-वास।
गुरु दिया उपदेश जो, सच्चा था वह ज्ञान,
शिष्य ने अपना लिया, तो जगा अमृत-गान।
वन में बैठा मौन हो, जपता था वो नाम,
शब्दों से निकली कथा, “रामायण” जप राम।।
जाति नहीं पहचान है, और कर्म आधार।
कहे वाल्मीकि है यही, यही मनुज का सार।
डाकू भी तब कवि बने, खिलती भीतर धूप।
मन साधे जब सत्य को, खुले तब आत्म रूप।
ग्रंथ नहीं रामायणा , जीवन का आभास।
चरित्र में झलके वहाँ, नीति, प्रेम, सुवास।।
महर्षि का संदेश है, भीतर देखो आप।
राम वही जो जागता, अंतर के आलाप।।
रत्नाकर था लूटिया, मन पापी अंजान।
नारद वाणी लग गई, जाग उठा इंसान।
गुरु सिखाए ज्ञान को, पर अपनाए कौन।
जो भी अंतर झाँक लें, साधे पवित्र मौन।।
डाकू भी कवि बन गया, हुआ राम का ध्यान।
मन के भीतर सो गया, सारा पाप, अभिमान।
रामायण लिख दी उसने, जो था पहले चोर,
ज्ञान बदल दे भाग्य भी, यदि जागे मन-डोर।
हर मन में वाल्मीकि है, हर तन में है चोर।
राम वही जो जान ले, खुद के भीतर शोर।।
वाल्मीकि का संदेश है, कर ले अंतर साफ।
राह नई तू चल पकड़, खुद को कर के माफ।।
- डॉ. सत्यवान सौरभ
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मिट रहा गांवों का नामोनिशान
भले ही बसते हैं बहुत कम लोग उसमें
पर पेड़ों से भरा बहुत सुंदर है मेरा गांव
जब मैं पढ़ता था अपने गांव के स्कूल में
नीचे होती थी टाट पट्टी ऊपर थी बट बृक्ष की छांव
पीने को मिलता है बौड़ी का स्वच्छ जल
बैलों के साथ चलता था खेतों में कभी हल
खेत खलिहान अब पड़े हैं सब वीरान
कड़कती धूप में कौन करे काम आराम में बीतता है हर पल
बौडी थी जो अब दब गई है जमीन के नीचे
नल के पानी का कर रहे दुरुपयोग आंखे मीचे
बून्द बून्द को तरसोगे जब नहीं मिलेगा पानी
दूसरों का बन्द करके पानी खुद क्यारियां सींचे
सड़क से था मेरा गांव बहुत दूर
अब तो सड़क पहुंच गई है घर द्वार
पैदल चलने को थे सब मज़बूर
पगडंडी पर भी पड़ गई अब वक्त की मार
अब तो पैदल नहीं चलते झट से टैक्सी हैं बुलाते
बस पगडंडी ही थी जिससे सब थे आते जाते
अब तो घर के अंदर ही बन गए हैं बाथ रूम
पहले बौड़ी और कुएं पर थे ताजे पानी से नहाते
पहले शहर के लोग देखने आते थे गांव
तब पीने को शुद्ध पानी और मिलती थी ठंडी छांव
अब तो कट गए पेड़ पहाड़ो के बन गए मैदान
धीरे धीरे शहर बढ़ रहे मिट रहा गांवों का नामोनिशान
- रवींद्र कुमार शर्मा
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इंतजार
अंधेरों को जैसे
रोशनी का इंतजार है।
नफरत को जैसे
मोहब्बत का इंतजार है।
बादलों को जैसे
बरसने का इंतजार है।
राहों को जैसे
हमराही का इंतजार है।
वृक्षों को जैसे
खिलते हुए पत्तों का इंतजार है।
सूखी भूमि को जैसे
वर्षा का इंतजार है।
सावन को जैसे
बहारों का इंतजार है।
वैसे मुझे तुम्हारा
मेरे जीवन में इंतजार है।
- डॉ. राजीव डोगरा
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सर्वत्र है जीवन
रक्त में बह रहा
साँसों में चल रहा
मैं हूँ
धड़क रहा हृदय में
झपक रहा पलकों में
मैं हूँ
हो रहा महसूस एहसासों में
मन में विचारों के प्रवाह में
मैं हूँ
रसना के शब्दों में
मुख की आभा में
मैं हूँ
मैं ही हूँ जीवन
सर्वत्र हर रूप में समाया
जहां नहीं मैं,
वहाँ है मौत का सन्नाटा छाया
- प्रवीण कुमार
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अनंत यादों के पंख
कुछ बातें रहती हैं याद,
अनंत काल तक,
शायद वे घटित ही होती हैं
बस इसलिए,
कि जीवन में रहें
हर पल, हर श्वास,
जीवन पर्यंत।
जैसे कि
स्कूल के उन कोमल दिनों में
कॉपियों में रखे हुए
सोपनर से छिले
पेंसिल के कतरन,
बिलकुल गोलाई में कटे,
सूखे पीपल के पत्ते,
मोरपंख और
गुलाब की मुरझाई पंखुड़ियाँ
जिन्हें आज भी स्पर्श करो
तो वे हो उठती हैं ताज़ी,
मुस्कुराती, जीवंत।
और हाँ, बचपन के वे दिन,
जब बिजली कड़कती थी
तो डर के संग खिलखिलाहट होती थी,
और किसी ने कहा था!!
“गोबर पर गिरे बिजली तो बन जाए सोना!”
क्या भोलेपन भरे थे वो पल,
क्या नासमझी थी वो मिठास भरी!
वही तो हैं वे सारी यादें
पहला ख़त,
छुपाकर पढ़ना,
वो अबोध-सा प्रेम,
चाहे प्राप्य रहा हो या नहीं,
रह जाता है मन की तहों में
अनंत काल तक।
उम्र के हर पड़ाव पर
जब भी ये स्मृतियाँ लौटती हैं,
चेहरे पर
एक नई रौनक बिखेर जाती हैं।
यादों की यही निशानियाँ
रहती हैं हमारे भीतर
अनंत काल तक।
- सविता सिंह मीरा
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मुक्त जीवन
टूटे बंधन, उड़ चली पवन, नभ में फैली उमंग नई,
तन से नहीं, मन से मुक्त हूँ मैं यह अनुभूति अनंग नई।
बंधन सारे छूट गए हैं, जैसे रेशम की डोर कहीं,
अब न कोई सीमा मुझको, अब न कोई ठौर कहीं।
स्वप्न मेरे नभ में बिखरे, जैसे तारों का हार हुआ,
हर साँस में आज़ादी गूँजे, मन का हर द्वार खुला हुआ।
मुक्ति नहीं केवल उन्मुक्ति, यह तो आत्मा की पहचान,
स्वयं को पा लेने का सुख है, यही सच्चा जीवन गान।
“बंधन तोड़े नहीं जाती, मन से मिटती है दीवार,
जब आत्मा मुस्काए भीतर, तभी होता सच्चा विस्तार।”
- डॉ. सारिका ठाकुर 'जागृति'
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