साहित्य चक्र

28 October 2025

आज की प्रमुख रचनाएँ- 26 अक्टूबर 2025




प्रकृति मां
फूलों से सीखो मुस्कुराना
कांटो से सीखो लड़ना
व्योम से सीखो हृदय की विशालता
धरा से सीखो धैर्य तुम
आदित्य से सीखो निरंतरता
शशि से सीखो अंधेरों से लड़ना
यह प्रकृति मां है
मयूर से सीखो नृत्य
भंवरों से सीखो गायन तुम
नदियों से सीखो सदैव चलते जाना
लहरों से सीखो उमंग एवं उल्लास
झीलों से सीखो शांति
मैदानों से सीखो सहिष्णुता तुम
पहाड़ों से सीखो स्थिरता
पत्थरों से सीखो दृढ़ता तुम
यह प्रकृति मां है
पेड़ों से सीखो परोपकार तुम
वर्षा से सीखो दूसरों को
हर्षित करने का भाव तुम
हवा से अनुकूलन सीखो तुम
जल से एकता सीखो तुम
यह प्रकृति मां है,
मातृवत हमें समझाती है
जो प्रकृति मां के संकेतों को समझ
जीवन में लेता उतार
वह एक सम्मानित एवं
आनंदित जीवन है जीता


- प्रवीण कुमार


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बिन स्मार्टफोन ऐसा लगा 

जब से ये स्मार्टफोन हुआ है खराब
तब से हालात अच्छे नहीं हैं जनाब।
बार बार हाथ जेब में है जाता 
फिर क्या वहां बटन वाला पुराना फोन है पाता।
याद बहुत आती है फेसबुक व व्हट्सअप
दुनिया अधुरी सी लगती है क्योंकि
अब नहीं हो पा रही है इन पर कोई गपशप।
आफिस में भी साहब है पूछा करते 
आजकल आप आनलाईन हाजरी क्यों नहीं भरते।
मैं भी सीधा सा जवाब हाजिर कर देता 
स्मार्टफोन तो खराब है पर बटन वाले फोन से ही काम चला लेता।
साथी भी पूछते आप तो पुराने जमाने में चले गए 
दोस्तो ये शौक नहीं मजबूरी के बांध हम पर ढह गए।
शुभ चिंतक फोन करके जरूर पूछते 
आपके संदेश रोज थे आते, आजकल क्यों नहीं भेजते।
खैरियत तो है सब
मैं भी जवाब दे देता सब तो है
खैरियत पर मेरा स्मार्टफोन ठीक नहीं अब।
अब तो व्यक्तित्व भी प्रभावी नहीं लगता 
हर कोई बटन वाला फोन देख अनदेखा है करता।
कोई कंजूस बोलता तो कोई तंज है छोड़ता 
उन्हें क्या पता यारों हमारा स्मार्टफोन तो है
खराब वर्ना वो भी हमें दुनिया से जोड़ता।


- विनोद वर्मा


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क़ातिल निकला

वो सनम कैसा जो संगदिल निकला,
भूला सब वादे ऐसा बुज़दिल निकला!

इश्क़ का इम्तिहान कैसे पास करता मैं,
हर सवाल ही उसका मुश्किल निकला!

उम्मीद ए वफ़ा ग़लत लगा बैठे हम,
क्यों नहीं वो मेरे क़ाबिल निकला!

काग़ज़ की डिग्रियां तो बहुत लिये था,
पर दिल के मामले में ज़ाहिल निकला!

गुनाह उसके माफ़ी के लायक नहीं,
वो ख़ुद साज़िशों में शामिल निकला!

ऐतबार था जिसपर सबसे ज़्यादा मुझे,
हाय बेरहम वही मेरा क़ातिल निकला।


- आनन्द कुमार


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यादों की ख़ुशबू

यादों की ख़ुशबू कुछ ऐसी बस जाती है,
जैसे पुरा नी चा दर में महक रह जाती है।
कभी किसी मुस्का न से झाँ क उठती है,
कभी किसी आहट से दि ख जाती है।
वो बीते लम्हें, वो बातें, वो साये,
समय की तहों में जैसे छिप जाती है।

कभी चाँदनी में मुस्कुरा उठती हैं,
कभी बारिश में आँसू बन जाती है।
कभी किसी किताब के पन्ने पलटते हुए,
वो ख़ुशबू दिल को छू जाती है।

जैसे कोई अनकहा किस्सा फिर से,
रूह की गहरा इयों को सुना जाती है।
या दें ना बूढ़ी होतीं, ना मिटती हैं,
वो तो हवा ओं में घुल जा ती हैं।

कभी दर्द बनती, कभी सुकून देती ,
हर सांस के साथ मुस्कुराती हैं।
कभी किसी गीत की धुन में छिपी ,
कभी गुलाब की पंखुरियों सी नर्मी ।
यादों की ये ख़ुशबू की अमर कहानी ,
दिल से दिल तक जाती है।


- यासमीन तरन्नुम कंवल


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बस इंसान

ज़ेहनी ज़ंजीरों से आज़ाद हो पाता,
काश इंसान बस इंसान हो पाता।

जन्नत और जहन्नुम के पार हो पाता,
काश इंसान बस इंसान हो पाता।

महफ़िल-ए-ज़िन्दगी में आबाद हो पाता,
काश इंसान बस इंसान हो पाता।

ढूँढे बिन उसे ख़ुदा, भगवान मिल पाता,
काश इंसान बस इंसान हो पाता।


- रविन कुमार


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स्नेहपाश

आओ तुमको
अपनी कहानी का पात्र बनाऊ
करे लोग सजदा
तुमको भी मेरे नाम से
ऐसा मुकाम बनाऊ।

कहते हैं लोग
कि मोहब्बत में
बड़ी गहराई होती है
आओ तुम्हें दोस्ती के
समुद्र में डूबाकर भी
तैरना सिखाऊ।

सुना है तुमको
लोगों पर ऐतबार नहीं है
आओ तुमको
स्नेहपाश में बांधकर
अपनेपान का ज़रा
एहसास करवाऊ।


- डॉ. राजीव डोगरा


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कुरूप आदमी भी सुंदर है!!

जब उसके पास धन है
जब उसके पास शोहरत है
जब उसके पास पवार है ।
जब उसके पास नौकरी है
जब उसके पास अच्छी बिजनेस है
जब उसके पास बौद्धिक उपलब्धि है
जब उसके पास सत्ता है।

आदमी सुंदर है,फिर भी कुरूप है।

जब गरीब है ,
जब मुसीबत के करीब है ,
जब झोपड़ी से टपकता पानी है ,
जब टूटे फूटे बर्तन है ,
टूटे फूटे पैरों में चप्पल है ।

बदन में कटे फटे वस्त्र है ,
जब भुखमरी से त्रस्त है ,
हर तरफ बेरोजगारी है ,
पग पग पर लाचारी है।

हर जगह दुत्कारे जाते हो,
हर जगह कुत्तों जैसे पुकारे जाते हो ,
छोटी छोटी बात पर मारे जाते हो,
जब गदहे जैसे खटाए जाते हो,
आवश्कता से अधिक भार उठाए जाते हो।


- सदानंद गाजीपुरी


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कसक

एक कसक सी उठती है,
पास बहुत कुछ,पर
कुछ रह सी गई है।

बसंत तो आया है,
परिंदों को साथ नहीं लाया है।

खाए पकवान, भोग छप्पन,
खूब देखे जलसे,
वही फिर घर के हलुआ,और
देशी घी के मलपुए,का स्वाद
रह सा गया है।

घर पर जुटाए ,लाखों के ऐशों आराम,
पर मन करे,मिले खाट जिसपे करूं
विश्राम।

मनाए सभी त्योहार,
बांटी खुशियां,और ढेरों उपहार।

पर रही कसक,उपवास और दान की,
मिल सका ना आशीर्वाद,अपने
माता ,पिता स्वरूप भगवान की।

गुल,गुलशन, बना रही ये नज़ारे खूब,
फिर भी ना जाने ,
वो खुशबू की महक,
फिर वो कसक
रह गई है।


- रोशन कुमार झा


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छठ पर्व

छठ पर्व पर प्रेम का अहसास है,
भक्ति, श्रद्धा और विश्वास है।
नदियों का संगम, प्रकृति का श्रृंगार,
हर घर में बजता है अब जय-जयकार।

सूरज देव का यह महा उत्सव है,
हर मन में उमंग, हर दिल में नव रस है।
कार्तिक मास में आता ये त्योहार,
घर-आँगन में होता उजियारा अपार।

मिट्टी के दीए जगमग जलते हैं,
हर दिल में छठ मइया बसते हैं।
भोर भये जब सूरज निकले लाल,
व्रती करें अर्घ्य, झुके हर भाल।

ठेकुआ, फल, फूल, गंगा का जल,
सब अर्पण होता सच्चे मन का फल।
छठ मइया सबकी झोली भर देती हैं,
मन की हर मुराद पूरी कर देती हैं।

सुख-शांति का संदेश ये लाती हैं,
भक्ति की राह दिखा जाती हैं।
हर जीवन में उजियारा भर दे,
छठ मइया सबका जीवन सुंदर कर दे।


- गरिमा लखनवी


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अरिहंत

वह टूटती सी
नेह की पतली लड़ी
स्वप्न के इस पार भी,उस पार भी
सागर किनारे रेत पर खींची हुई
पतली सी एक रेखा सयानी
सिद्धांत सी मुड़ती,लचकती
जब,जहाँ,जिस रूप की
छटपट जरूरत सी
दीवानी वह अभागिन
वह शुचिता स्नेह-तरु सी
नेह की मीता,अपरिणीता
विजय श्री
इस भटकते लाचार से
ब्रम्हांड में किस ओर
अपनी चाँदनी को है छिपाती
हलाहल सी वेदना के पार
एक अरिहंत सी
जीविका अपनी सजाती
वह टूटती सी,नेह की पतली लड़ी
बेचैन सी।


- अनिल कुमार मिश्र


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मेरी सबकुछ तुम...

मेरी गुड डे तुम
मेरी हैप्पी हैप्पी तुम
मेरी ब्रिटानिया तुम
मेरी पारले जी तुम
मेरी ओरियो तुम
मेरी बर्बन तुम
मेरी हाइड एंड सिक तुम
मेरी सनफीस्ट तुम
मेरी मेरीगोल्ड तुम
मेरी डेयरी मिल्क तुम
मेरी फाइव स्टार तुम
मेरी कीट कैट तुम
मेरी हॉर्लिक्स तुम
मेरी कॉम्प्लान तुम
मेरी हर प्लान तुम
मेरी सब कुछ तुम


- मनोज कौशल


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भीड़ और बदलाव

भीड़ से एक आवाज आई,
शहर के बंदर है बहुत खराब!
छीना- झपटी, चोरी-डकैती, लूट-घसूट;
इनका नहीं है कोई जवाब!
चश्मे के बदले चिप्स मांगते हैं,
आपका ही अधिकार देना है आपको;
पर ये रिश्वतखोर गिफ्ट मांगते हैंl

कभी कभी तो इन्होंने छोटे-छोटे
बच्चों तक को अगवा किया है,
अपने भविष्य को बचाने के डर से
हर बार आपने इनको इनका मन चाहा दिया हैl
भीड़ में से किसी ने फिर कहा,
बदल डालो इन बंदरों को,
कही दूर जंगल में छोड़ आओ।

हमें ऐसे मतलबी, बेरहम, स्वार्थी,
रिश्वतखोर बंदर नहीं चाहिए!
शोभा बढ़ाए जो हमारे शहर की;
कही से ऐसे संस्कारी बंदर लाइए।

सब गूंज उठे,
"हां हां इन्हें कही दूर छोड़ आते हैं,
इस बार गांवों से उठाकर नए बंदर लाते हैं।"
काफी सलाह मशवरा हुआ,
सभाएं हुई और फिर एक योजना बनी :
शहर के जो बंदर उत्पाति हैं
उन्हें बाहर निकलना है,
बदले में शरीफ बंदरों को
नगर की शोभा बढ़ाने के लिए,
कही से पकड़ कर लाना है।

कार्यक्रम चालू हुआ,
एक विशेष विभाग को ये कार्य सौंपा गया;
जहां आवश्यकता पड़ी
अध्यापकों, पटवारियों,
अभियंताओं, अन्य कर्मचारियों का
भी सहयोग लिया गया।

कुछ बंदर खुद भाग गए,
कुछ बंदरों को दूसरे बंदरों ने भगा दिया!
कुछ बंदरों को संभलने का मौका ही नहीं मिला,
कुछ को उनके लालच ने फंसा दियाl

बहुत पकड़े गए और दूर के जंगलों में छोड़े गए,
पर देखो समय की चाल
ओर बंदरों की बुद्धि का कमाल;
कुछ बंदरों ने स्वयं को नए वातावरण में ढाल लिया,
जो लुटा था वो वापिस करने लगे!
कई जगह तो ऐसे ही लोगों की जेब भरने लगेl
छीना- झपटी छोड़ दी,
राह चलते लोगों को नमस्ते करने लगे।
आखिरकार ये अभियान खत्म हुआ।

अच्छे अच्छे बंदरों को शहर पहुंचा कर,
आम आदमी फिर से अपने रोजमर्रा के कार्यों में व्यस्त हुआ।
आखिरकार काम सरकारी था।
कुछ बंदर सच में बदले गए,
कुछ का भीड़ पर भी प्रभाव भारी था।
अगली गर्मियों में शहर सैलानियों से फिर खुशहाल हुआ,
धीरे धीरे बंदरों का फिर से वही हाल हुआ।

बंदर तो आखिर बंदर हैं;
लूट–पाट से कहा मानेंगे ?
आप बदलो कितना,
नए बंदर लूटने के नए विधान निकलेंगे।
कुछ बचे-पुराने बंदरों ने,
नए बंदरों को भी सीखा डाला,
नए बंदरों ने नई तकनीक को
बीच में घुसा डाला।

लूट को भी हाईटेक बनाकर,
पिछले सारे रिकॉर्ड को तोड़ डाला।
भीड़ से फिर आवाजें आने लगी,
सरकार इन बंदरो को बदलने की
फिर योजना बनाने लगी।
ये सिलसिला, यूं ही चलता रहेगा,
भीड़ में से कोई न कोई लूटता रहेगा।
खैर! भीड़ भी कभी तो समझ पाएगी,
बंदरों को बदलने के साथ-साथ,
खुद को भी बदल पाएगी।


- अशोक कुमार


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समझदार हो तुम

फिर मेरे हिस्से में आया,
कोई समझौता नया।
किसी ने कहा-
“तुम तो बहुत समझदार हो…”

मैं मुस्करा दिया,
जैसे यह तारीफ़ नहीं,
एक निर्णय हो-
कि अब मुझे महसूस नहीं करना चाहिए।

समझदार लोग
रोते नहीं,
सिर्फ़ मुस्कराते हैं
और भीतर धीरे-धीरे
मरते रहते हैं।

वे तर्कों में ढूँढ़ते हैं सुकून,
जवाबों में छिपाते हैं आँसू,
और चुप रहना
उनकी आदत बन जाती है।

हर बार जब कोई कहता है-
“तुम समझदार हो,”
मुझे लगता है-
मैं थोड़ा और दूर हो गया हूँ
अपने ही दिल से।


- डॉ. सत्यवान सौरभ


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प्रकृति के हृदय की मौन यात्रा
एक दिन यूँ ही निकल जाना-
जब शहर की आवाज़ें थक जाएँ,
और मन किसी अनकही पुकार में भीग जाए।
न कोई योजना, न कोई मंज़िल...
बस एक जिज्ञासा-
दुनिया को महसूस करने की,
प्रकृति की गोद में लौट आने की।
चलना उन पगडंडियों पर
जहाँ मिट्टी अब भी सांस लेती है,
जहाँ ओस की बूँदें सूरज से पहले जागती हैं,
और हवा में पेड़ों की बातें घुली होती हैं।
कभी किसी नदी के पास बैठना-
देखना कैसे वह चट्टानों से टकरा कर
भी गुनगुनाती रहती है।
उसकी लहरों में एक संदेश छिपा होता है-
“रुकना नहीं... बस बहते रहना।”
कभी किसी जंगल के बीच ठहरना,
जहाँ हर पत्ता, हर फूल
अपनी भाषा में बात करता है।
जहाँ मौन भी संगीत है
और शांति भी कविता।
देखना कैसे तितलियाँ रंगों की कक्षा सजाती हैं,
कैसे चींटियाँ अपनी दुनिया रचती हैं-
बिना शिकायत, बिना रुकावट।
वहाँ समझ आएगा कि प्रकृति
सिर्फ़ दृश्य नहीं, एक संवेदना है,
जिसे महसूस किया जाता है-
आँखों से नहीं, आत्मा से।
कभी आसमान को देखना-
वह नीला विस्तार पूछेगा,
“तुम कितनी बार खुद को देखा है?”
और तब समझोगे,
दुनिया की खोज में निकलकर
तुम दरअसल खुद को तलाश रहे हो।
पहाड़ों से सीखो स्थिरता,
नदियों से प्रवाह,
पेड़ों से दान,
और धरती से सहनशीलता।
प्रकृति हर मोड़ पर एक गुरु है,
जो बिना शब्दों के सिखाती है-
कैसे जीना सरल और सच्चा हो सकता है।
एक दिन यूँ ही निकल जाना-
जब मन थक जाए कृत्रिम रोशनियों से,
और चाह ले उस चाँदनी को
जो बिना बिजली के भी उजली है।
जहाँ पक्षियों की बोली अलार्म से बेहतर है,
और सुबह की हवा किसी प्रार्थना-सी लगती है।
चलो... एक दिन यूँ ही निकल चलते हैं-
दुनिया खोजने नहीं,
प्रकृति के हृदय को सुनने,
उसकी नाड़ी को छूने,
उसकी मौन संवेदनाओं को समझने।
क्योंकि जब धरती के आँचल में सिर रखोगे,
तब महसूस होगा-
“दुनिया बाहर नहीं,
हमारे भीतर ही खिली है।”


- आरती कुशवाहा


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तबज्जों नहीं देते हैं लोग
अक्सर मेरी बातों को,
गौर नहीं फरमाते हैं
वे मेरी बातों पर,
मैं बोलता रहता हूँ
और सुनाता भी रहता हूँ
फ़िर भी तबज्जों नहीं मिलती
इस जहान में,
मेरी बातों पर,
मेरे जज्बातों पर
कभी-कभी सोचता हूं
और सोचता ही रहता हूं ,
आख़िर तबज्जो क्यों नहीं मिलती ?

मन कचोटता रहता है और
खड़ा करता है-
एक यक्ष प्रश्न मेरे समाने
और मैं भी उसकी तह तक
पहुंचने का प्रयास करता हूं
आख़िर तबज्जो क्यों नहीं मिलती ?

काश! मैं भी बड़ा व्यक्ति होता ,
धनाढ्य होता, अमीर होता
गाड़ी , बंगले, होटल,
रेस्तरां का मालिक होता,
इंडस्ट्रियलिट, सेलिब्रिटी होता
मंत्री, बजंतरी का बेटा होता,
लोग दौड़ते हुए आते,
मुझसे मिलते,
ऑटो ग्राफ लेते,
उसको संजो कर रखते
और प्यार से मेरी बातों को सुनते ,
पर हकीक़त यही है
तबज्जों नहीं देते हैं लोग,
गरीबों को।


- बाबू राम धीमान



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