साहित्य चक्र

26 July 2020

नारी नर्क का द्वार है, ऐसा संत और महात्मा कहते हैं। कहां तक सही है यह..!



हिंदुस्तान में हम स्त्री को हम संपत्ति मानते हैं। नारी संपत्ति, , स्त्री संपत्ति शब्द का हम प्रयोग करते हैं। कन्या का दान कर देते हैं, जैसे कि कोई वस्तु किसी को दान में दी जा रही हो। स्त्री के व्यक्तित्व का अंगीकार ही नहीं हो सका। और इस बात में कि स्त्री सिर्फ छाया है, स्त्री-जाति को जितने दुख दिए गए हैं उतने शायद ही किसी और को दिए गए होंगे। क्योंकि जिस स्त्री के पास आत्मा ही न हो, वह स्त्री न तो स्वयं के लिए आनंद बन सकती है और न किसी और के लिए। जिसकी आत्मा ही खो गई हो वह एक दुख का ढेर होगी और उसके व्यक्तित्व के चारों तरफ दुख की किरणें ही फैलती रहेंगी, दुख का अंधेरा ही फैलता रहेगा।

नारी नरक का द्वार नही ' नारी तो केन्द्र है ! ! 
एक सत्य 

परिवार एक आनंद का फूल नहीं बन पाया क्योंकि जिसकी आत्मा के खिलने से वह आनंद बन सकता था उसके पास आत्मा ही नहीं है। परिवार एक संस्था है मृत और मरी हुई क्योंकि नारी तो है केंद्र और उसी नारी के पास कोई व्यक्तित्व नहीं है। मनुष्य-जाति बहुत से दुर्भाग्य में से गुजरती रही है, उसमें सबसे बड़ा दुर्भाग्य, बड़े से बड़ा दुर्भाग्य नारी की स्थिति है। कौन है जिम्मेदार? जिन्होंने यह स्थिति नारी की बना दी है?  इस संबंध में खोजबीन करने से बहुत अजीब नतीजे हाथ में आते हैं। संतों से पूछिए, महात्माओं से पूछिए, वे कहेंगे, नारी–ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी। इनमें ही वे नारी को गिनती करते आए हैं।

नर्क का द्वार है, नारी ऐसा संत और महात्मा कहते हैं। जिस देश में संतों, महात्माओं का जितना ज्यादा प्रभाव है उस देश में नारी उतनी ही ज्यादा अपमानित है। धर्म ने नारी की यह स्थिति की है जिस धर्म से हम परिचित हैं। और चमत्कार की बात यह है कि जिस धर्म ने नारी की यह स्थिति की है, उस धर्म को टिकाने के सिवाय नारी को नर्क का द्वार समझते है। जिन महात्माओं ने नारी को नर्क का द्वार कहा है उन महात्माओं के पालन-पोषण का सारा जिम्मा नारी के ऊपर रहा है हमेशा से। मंदिरों में जाकर देखिए, साधु-संन्यासियों के पास जाकर देखिए, एकाध ही  पुरुष दिखाई पड़ेगें, जबकि वहां आपको दस पंद्रह नारियां दिखाई पड़ेंगी। और वह एकाध पुरुष भी अपनी पत्नी के पीछे-पीछे चला आया होगा और कोई कारण नहीं हैं।

संत कहते हैं कि नारी नर्क का द्वार है।

कोई पूछे इन संत को कि पैदा कहां से हुए थे? नौ महीने किसके पेट में रहे थे? खून किसका दौड़ता है तुम्हारी नसों में, हड्डियां किससे बनी हैं, मांस किससे पाया है? अब तक ऐसा तो उपाय नहीं हो सका कि संत पुरुषों के पेट में रह कर पैदा हो सकेगा। लेकिन जिस स्त्री से मांस-मज्जा बनती है, हड्डी बनती है, जिसके खून से जीवन चलता है। नौ महीने तक जिसके शरीर का हिस्सा होकर आदमी रहता है उसी स्त्री के छूने से वह अपवित्र हो जाता है। और स्त्री के अतिरिक्त तुम्हारे पास है क्या तुम्हारे शरीर में जो अपवित्र हो गए? और स्त्रियों के ही भीड़ लगा कर पूजा करने से खुद संत अपने आप को बहुत बड़ा संत मानने लगता है, वही स्त्री के छूने से संत अपवित्र भी हो जाता है।
मूढ़ता की भी कोई सीमा होती है, जहालत की भी कोई हद्द होती है। जिस तरह स्त्री को अपमानित किया है इस पर किसी को कोई दिक्कत नहीं होती। क्युकी वो संत है। जो कहते है सही कहते है। और इसी वजह से युगों से स्त्रियों की उसके व्यक्तित्व की आत्मा छन भिन करते हुए आए है? उन लोगों ने स्त्री को अपमानित किया है और उसकी आत्मा का हनन किया है, जो लोग इस जीवन, इस जगत, इस धरती के विरोध में हैं। और उनका, उनके विरोध में एक संगति है, जो लोग भी मानते हैं कि असली जीवन मरने के बाद शुरू होता है, जो लोग मानते हैं कि असली जीवन मोक्ष में शुरू होता है, स्वर्ग में शुरू होता है, जो लोग भी मानते हैं कि यह पृथ्वी पापपूर्ण है, यह जीवन असार है। जो लोग भी मानते हैं, यह जीवन निंदित है, कंडेम है, यह जीवन जीने के योग्य नहीं है। ऐसे सारे लोग नारी को गाली देते है, क्योंकि इस जीवन को जो निंदित करते हैं वे नारी को भी निंदित करते है, जबकि यह सत्य है कि यह जीवन उनको नारी से ही मिला है विकसित हुआ है और प्रभावित भी..!

इस जीवन का द्वार नारी है और इसलिए नारी नर्क का द्वार है क्योंकि इस जीवन को कुछ लोग नर्क मानते हैं। जिन लोगों ने इस जीवन की निंदा की है उन लोगों ने स्त्री को भी अपमानित किया है। दुनिया में मुश्किल से कोई धर्म होगा जिसने स्त्री को कोई भी इज्जत दी हो। आपने मस्जिद में कभी स्त्री को जाते देखा है? स्त्री मस्जिद में नहीं जा सकती है।

स्त्री मस्जिद में नहीं जा सकती, तो स्त्री स्वर्ग कैसे जा सकेगी? मुसलमान स्त्री आज तक मंदिर में प्रविष्ट नहीं हुई। जैनों के हिसाब से कोई स्त्री मोक्ष की अधिकारिणी नहीं हैं, पहले उसे पुरुष की तरह जन्म लेना पड़ेगा फिर मोक्ष मिल सकता है। और इसकी एक बड़ी मजेदार घटना है।

जैनियों के चौबीस तीर्थंकर में एक तीर्थंकर स्त्री थी–मल्लीबाई। लेकिन दिगंबर जैन मानते हैं कि स्त्री का तो मोक्ष ही नहीं हो सकता, तो स्त्री तीर्थंकर कैसे हो सकती है? उन्होंने मल्लीबाई को बदल कर मल्लीनाथ कर लिया। वे कहते हैं, वह पुरुष है। देखते हैं मजा, एक तीर्थंकर को स्त्री मानने के लिए तैयार नहीं हैं, स्त्री कैसे तीर्थंकर हो सकती है? तो वे जरूर पुरुष ही रहे होंगे। उनका नाम ही मल्लीनाथ कर लिया मल्लीबाई से। अब कोई दिक्कत नहीं है। अब मल्लीनाथ जा सकते हैं मोक्ष में। मल्लीबाई नहीं जा सकती थीं। नाम बदल लेने से काम हो गया। कहा तक उचित है यह??

उन्नीस सौ पचास के करीब वहां हिमालय की तराई में नील गाय नाम का जो जानवर होता, उसने खेतों को बहुत नुकसान पहुंचाया था। लेकिन नील गाय को गोली नहीं मारी जा सकती क्योंकि गाय जो लगा हुआ है उसमें धार्मिक दिक्कत हो जाएगी। तो दिल्ली की संसद ने एक प्रस्ताव पास किया कि पहले नील गाय का नाम नील घोड़ी कर दो। तभी गोली मारी जा सकती है। फिर, नील गाय का नाम नील घोड़ा कर दिया गया। और शुरू हुआ उसे धुंआ-धाड़ गोली मारने की गंदी राजनीति और हिंदुस्तान में किसी धर्म के लोगों ने एतराज नहीं किया, किसी संत को कोई आपत्ती नहीं हुई, क्योंकि नील घोड़े को मारने में दिक्कत ही क्या है? क्योंकि वह तो अब नील गाय रही ही नहीं तो उसे मारने में भी कोई दिक्कत नही थी। बस लेबिल बदल दिया और काम चल गया!!?

बिचारे मल्लीबाई का लेबल बदल कर मल्लीनाथ कर दिया। स्त्री की यह हैसियत उन लोगों ने विकृत की है जिन लोगों ने इस जीवन की हैसियत को विकृत किया है। यह तथ्य समझ लेना जरूरी है, तो ही नारी के जीवन में आने वाले भविष्य में कोई क्रांति आ सकती है और नारी को आत्मा बल मिल सकता है। जब तक पृथ्वी पर जीवन स्वीकार योग्य नहीं बनेगा नारी का,तब तक यह जीवन भी अहोभाग्य नहीं बन सकता, जब तक इस जीवन को आनंद और इस जीवन को परमात्मा का प्रसाद मानने की क्षमता पैदा नहीं होती, तब तक नारी की आत्मा को वापस लौटाना मुश्किल है।

                                             नूपुर श्येन





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