साहित्य चक्र

04 July 2020

खुदा को लिख रही हूँ



बचपन से देख रही हूँ 
जिस शख्स को मैं 
आज उसकी शख्सियत को लिख रही हूँ 
गुस्ताख़ी माँफ करना खुदा
मैं खुदा को लिख रही हूं 

जो खरीद खुशियों का पिटारा मेरे लिए 
खुद तमाम दर्दों को सहता है 
रख मुझे शीतल छांव में   
जो खुद तपती धूप में खटता है  
हां, मैं आज 
उस शख्सियत को लिख रही हूँ 
गुस्ताख़ी माँफ करना खुदा 
मैं खुदा को लिख रही हूँ 

जो मेरी एक सिसक पर,
अपनी हजारों रहमत अदा करता है 
जो बेवजह रूठ जाऊं कभी मैं 
तो पूरी कायनात को मेरे सजदे में रखता है
आज उस शख्सियत को लिख रही हूँ
गुस्ताख़ी माँफ करना खुदा 
मैं खुदा को लिख रही हूँ 

जिसके होने भर से शोहरत रहती है,जिंदगी में मेरी 
जिसकी ख़िदमत करने भर से रहमों करम बरसती हैं 
उस मौला की मुझ पे
हांं मैं आज 
उस अजीज शख्सियत को लिख रही हूँ
गुस्ताख़ी माफ करना खुदा 
मैं खुदा को लिख रही हूँ 

जिंदगी के मुक़ामो का ज्ञान दिया जिसने 
असफलता से सफलता को बुनने का जज्बा दिया जिसने 
सोती आँखों में खुली आँखों के ख़्वाब भरे जिसने
बंद मुट्ठी को ताकत बनाना सिखाया जिसने 
हां मैं,आज 
उसी शख्सियत को लिख रही हूँ 
गुस्ताख़ी माफ करना खुदा 
मैं खुदा को लिख रही हूँ

                                                         प्रिया कुमारी



No comments:

Post a Comment