साहित्य चक्र

30 April 2022

शीर्षक: छुट्टी वाला रविवार कब आएगा




वर्तमान युग की भागदौड़ वाली जिंदगी को जितना चाहे आसान बनाने की कोशिश कर ली जाए,परंतु फिर भी अपने हिस्से का वक्त यहां कोई इंसान निकाल ही नहीं पाता। जिस भी शख्स से बात करो,बस यही सुनने को मिलता है कि यार, समय ही नहीं होता, पूरा दिन कुछ ना कुछ चलता ही रहता है।







कहने का मतलब यह है कि आज के आधुनिक युग में प्रत्येक व्यक्ति की जिंदगी आपाधापी वाली और बहुत ही फास्ट हो गई है ।किसी के पास किसी के लिए वक्त ही नहीं है। किसी और की तो बात छोड़ो यहां लोगों के पास आज खुद के लिए भी वक्त निकाल पाना लगभग असंभव सा होता जा रहा है ।लोग जिंदगी तो जी रहे हैं परंतु मन से नहीं।अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए लोग आगे ही आगे बढ़ने की अंधाधुन दौड़ में इस कदर पागल होते जा रहे हैं कि उन्हें यह एहसास ही नहीं होता कि इस भागदौड़ और आगे बढ़ने की चाह में वे कितना कुछ खोते जा रहे हैं। 


यह सभी को पता होता है कि बीता समय कभी लौट कर वापस नहीं आता, फिर भी ना जाने क्यों हर इंसान समय को पीछे छोड़ने की जहदोजहद में लगा रहता है। कम समय में अधिक हासिल करने का जुनून आज हर इंसान के सिर पर सवार है ।कम समय में अधिक पाने की लालसा ने ही आज हर व्यक्ति के जीवन की उमंगों और खुशियों पर जैसे ताला ही लगा दिया है। आज इंसान अपनी जरूरतों से अधिक कमा रहा है परंतु इतना होने के पश्चात भी वह सुखी नहीं है !!कारण? कारण सिर्फ यही है कि इंसान किसी स्तर पर जाकर संतोष का अनुभव ही नहीं करता। वह दिन दुगुनी और रात चौगुनी उन्नति करने के स्थान पर दिन आठ गुणी और रात सौलह गुणी उन्नति करने के ख्वाब सजाता है।


वैसे तो आपाधापी भरी दिनचर्या के महिला और पुरुष दोनों ही बराबर के शिकार देखे जाते हैं,परंतु आज मेरे इस लेख का मुख्य केंद्र महिलाएं हैं। बात यदि रविवार की छुट्टी की की जाए तो अधिकतर महिलाओं के हिस्से में रविवार कभी आता ही नहीं है ,जिसे वे छुट्टी मानकर इंजॉय कर सकें। विशेष रूप से कामकाजी महिलाएं तो रविवार शब्द ,जिसका उन्हें पूरे सप्ताह बेसब्री से इंतजार रहता है, का अर्थ ही भूल गई हैं,क्योंकि पूरे सप्ताह भागम भाग करने के पश्चात जब सप्ताह के अंत में रविवार आता है तो उनके पास जिम्मेदारियों और कामों की एक बड़ी मोटी गठरी पहले से ही बंध कर तैयार होती है जिसे वह शायद ही 1 दिन जिसे लोगों ने रविवार का नाम दिया है ,को पूरा कर पाती है।इन कामों में ; घर के बिखरे सामान को संभाल कर रखना ,बच्चों के स्कूल कॉलेजों का पेंडिंग काम निपटवाना, घरवालों के लिए उनकी पसंद की अलग अलग डिशेज बनाना,रिश्तेदारों का आना जाना, बाजार जाकर पूरे सप्ताह के लिए राशन पानी और अन्य जरूरतों का सामान जुटाना आदि आदि।


तो आखिर क्या करें एक नारी ?? जिसके हिस्से में पूरे साल में कोई ऐसा दिन नहीं आता जिसे वह अपने तरीके से इस्तेमाल कर खुद को हल्का और अच्छा महसूस करवा सके।इसका प्रत्यक्ष संबंध उसके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य से है। वह चाहते हुए भी अपने मन की नहीं कर पाती और हर वक्त अपने स्थान पर अपनों के ही हिसाब से जिंदगी जीना शुरु कर देती है।इसका परिणाम यह होता है कि वह स्वयं को जैसे भूल ही जाती है और इस वजह से उसका मानसिक विकास अवरुद्ध होने लगता है, वह समय से पहले स्वयं को वृद्ध मानने लगती है ,उसके मन से उमंग और उत्साह का ह्रास होने लगता है , वह कम काम करने के बाद भी बहुत अधिक थकने लग जाती है।सारा समय भाग भागकर जिम्मेदारियों को निभाते निभाते फिर एक स्थिति ऐसी भी आती है ,जब वह अंदर से चाहने लगती है कि काश!!! इस थका देने वाली दिनचर्या को छोड़कर कहीं दूर शांत अकेले एक टापू पर अपना बसेरा बना पाना संभव होता।


यह स्थिति महिलाओं के लिए किसी भी प्रताड़ना और सजा से कम नहीं हो सकती।कोई भी महिला या पुरुष इस प्रकार की नकारात्मक स्थिति का शिकार ना होने पाए, इसलिए परिवार के सभी लोगों को मिलजुलकर परिवार की जिम्मेदारियों का बीड़ा उठाना होगा और महिलाओं के हिस्से का समय उन्हें हर हाल में देना ही होगा ।माना कि पुरुष और स्त्री दोनों ही मिलजुलकर गृहस्थी को चलाते हैं, वे एक दूसरे के पूरक भी कहे जाते हैं ,परंतु, हकीकत कुछ और ही होती है।अधिकतर घरों में आज भी घर बाहर की अधिकतर जिम्मेदारियों को निभाने का जिम्मा महिलाओं का ही होता है।


एक दूसरे की परवाह करते हुए पुरुषों और महिलाओं को घर की जिम्मेदारियों में एक दूसरे का हाथ बंटाना चाहिए और एक दूसरे के स्वास्थ्य और खुशियों को सर्वोपरि रखते हुए ही परिवार रूपी संस्था का विकास करना चाहिए ।

स्मरण रहे ,एक खुशहाल परिवार सच्चे मायनों में तभी खुशहाल कहला सकता है जब उस घर की नींव अर्थात उस घर की महिलाएं स्वस्थ हों,प्रसन्न हों। महिलाएं चाहे कामकाजी हों अथवा गृहणियां, दोनों को ही सप्ताह में 1 दिन उनकी मनमर्जी के मुताबिक बिताने की छूट दी जानी चाहिए ताकि उस 1 दिन में वे स्वयं के लिए जिएं और अपने जीवन से जोश उमंग और उत्साह को कभी खत्म ना होने दें।



                                               लेखिका- पिंकी सिंघल


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