साहित्य चक्र

03 April 2022

कविता- बदलते रंग



बदलते हुए रंगों के साथ
बदलते हुए
अपने लोग देखे हैं।
चेहरे पर नकाब ओढ़े
सीने पर वार करते
अपने ही लोग देखे हैं।

हरे रंगों जैसी
अब लोगों के दिलों में
हरियाली कहाँ ?
अपने ही लोग
खंजर फेर
ह्रदय तल को
बंजर करते देखे हैं।

रंगों की बौछार
फैली है हर जगह
फिर भी
गिरगिट की तरह
रंग बदलते
अपने रिश्तेदार देखे हैं।

करते होंगे मोहब्बत वो
शायद किसी और से,
हमने अपने लिए  तो
उनके चेहरे पर
नफ़रत के बदलते
नए-नए रंग देखे हैं।

                                     - राजीव डोगरा


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