साहित्य चक्र

19 April 2022

कविताः आखिर क्या कसूर था मेरा



आखिर क्या कसूर था मेरा
जो पैदा होते ही कचरे में फेंक दिया गया,
नवजात शिशु को नए कपड़े पहनाए जाते हैं
आखिर क्या कसूर था मेरा
जो मुझे पॉलिथीन में लपेट दिया गया,
अपनी खुशियों की खातिर हर बंधन तोड़ डाला
अपनी ग़लती का ठीकरा मेरे सपनों पर फोड़ डाला,
बस एक बार तो बता दो मां
आखिर क्या कसूर था मेरा 
अरे वो तो अंजान था उस एहसास से
रखा है ख़ुदा ने दूर उसे उस मिठास से,
लेकिन तुम तो एक मां थी।

अपने हर इक निवाले से तुमने, डाली मुझमें जान थी
कैसे भूल गई तुम, मैं अंश थी तुम्हारा
बस यही कसूर था ना कि नहीं चला सकती थी वंश तुम्हारा,
एक मौका दे कर तो देखती मां मुझे
तू कभी नहीं कहती कि चाहिए इक बेटा मुझे
इस दुनिया में इतना नाम कमाती
कि तेरी ज़िन्दगी में किसी चीज़ की कोई कमी ना रह जाती।

अफसोस कि ना सुन सकी मैं इस दुनिया की बातें
खुलने से पहले ही बन्द हो गई मेरी ये आंखें
ऊपर जाऊंगी तो ख़ुदा से रो रो कर करूंगी फ़रियाद
ऐ ख़ुदा ना देना कभी किसी को नाजायज़ औलाद।

वरना होते रहेंगे बार बार ये गुनाह
ना मिलेगी हम मासूमों को किसी आंचल में पनाह,
आख़िर क्या कसूर था मेरा
कि पैदा होते ही मुझे फेंक दिया गया
कभी कचरे में, तो कभी आश्रम में, 
मौत की अग्नि में झोंक दिया गया।


                                                   रूखसाना नारू


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