आग!
आग से बुझती नहीं कभी,
बुझती है रेत
या फिर पानी से,
नफरत की हांडी
चढ़ा कर रखी है फिर क्यों,
खेल रहे हो क्यों
निर्दोष लोगों की जिंदगानी से ?
आग!
अपना-पराया नहीं देखती कभी,
मौत की राख
बना देती है
जीवन की हर निशानी से,
भस्मासुर बन जाने को
इतने उतारू हो क्यों,
मिटा देना चाहते हो क्यों
मानव को
धरती की इस कहानी से ?
जितेन्द्र 'कबीर'
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