साहित्य चक्र

03 April 2022

"मुक्तिबोध"



बन्द आँखें, मद्धम सांसें, 
दम तोड़ती उसकी आहें, 
वो डूबी कुछ विचारों में,
वो खोई दिल के तूफ़ानों में

वो तो बस देख रही थी,
होकर बोझिल सोच रही थी,
एक सूनी अंजान रांह को,
एक ज़िन्दगी के स्याह को

क्या यही शून्य है जीवन का,
क्या यही पल है गमन का,
हाँ यही तो है वो मंज़िल, 
कैसे सह पाएगा ये दिल

बढ़ रही थी धीरे धीरे, 
धड़कने भी थीं कुछ अधीरे,
उसी शून्य मंज़िल की ओर,
जिसका न था कोई ओर छोर

जहाँ अब न कोई होगा दर्द,
सब कुछ बस होगा सर्द,
न होगा असफ़ल जीवन का ग़म, 
कुछ ही पलों में होगा अनोखा संगम

लेकर विदाई सदा के लिए,
जिन संग अभी तक थे जिए,
बस हो जाना है फ़ना, 
किसी से क्या अब है कहना

देखेगी दुनियाँ भी ये रीति,
मौत भी तो गई है जीत,
जो आया है उसे तो जाना है,
जीवन मरण की रस्म तो निभाना है

हंस कर जीती रही वो ज़िन्दगी,
ग़मों की भी करती रही वो बंदिगी,
लेकर अंतिम सांसें सुकून की,
तोड़ दी डोरी हर जुनून की

देखो हो रहा है सुखद समापन,
होगा आत्मा का परमात्मा से मिलन,
होकर मुक्त इस जीवन के बंधन से, 
निकल कर सुख दुःख के मंथन से

          
                                            लेखिकाः रेखा श्रीवास्तव 


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