साहित्य चक्र

31 January 2021

बाग़ के फूल

बाग़ के फूल
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इस बाग़,
के फूलों ने,
मुस्कुराना,
खिलखिलाना,
मंद-मंद बयार;
में हौले-हौले ;
सिर हिलाना,
कभी हाँ कहना !

कभी न कहना!
छोड़ दिया है।
बस अब,
चुपचाप रहना;
सीख लिया है।

इस बाग़ ,
के फूलों ने,
महकना छोड़ दिया।
अब आप कहीं,
और जाया करो,
जबां फूल खिलें;
महकें और झड़ जायें!

हर रोज़ ,
एक जीवन जीयें;
रोज़-रोज़ मर जायें !

किसे अपना कहें?
किसे पराया?
बार- बार किसी को,
देखना,परखना;
किसे अच्छा लगता है ?
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                                 राजेश ललित


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