देख कुहासे की ओर तनिक,
मन में विचार यह आता है,
धुंधली सी चादर में लिपटा,
नन्हा पंछी घबराता है।
मन की ठिठुरन बढ़ती जाती,
कपकपी सी उसको लगती थी,
कुछ कही कभी,अनकही कभी,
लौ इसकी जलती बुझती थी।
कितने सावन यूं बित गए,
हरियाली आई चली गई,
इस ठंड कुहासा के कारण,
मन की उजियाली चली गई।
फिर एक प्रकाश की किरण पुंज,
नभ में जब छटा बिखेरा था,
आशा का पुष्प खिला थोड़ा,
रोशन एक नया सवेरा था।
नन्हा पंछी उठकर देखा,
गुंजन सी कलरव गान सुना,
उर में आनंद बसा था फिर,
अपने मन में ही रमा धुना।
फिर उसने अपने अंतर्मन को,
एक राज समझाया था,
दुख की कश्ती को आशा की,
पतवार से पार लगाया था।
प्रियदर्शिनी तिवारी
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