साहित्य चक्र

05 January 2024

परिवर्तन



उतरे चेहरे को लेकर मंत्रीजी ने अपने घर में प्रवेश किया। वो चाहते थे कि सबसे लड़ें,पूछें कि उन्हें सत्ता में वापिस क्यों नहीं आने दिया गया ? क्यों जनता को उनसे इतनी नफरत हो गई कि पार्टी को जिताना तो दूर वो स्वयं भी अपनी जमानत नहीं बचा पाए। 





एक ऐसा इंसान जिसे लोग पहचानते ही नहीं हैं, कैसे जीत सकता है ? सारे समीकरण उलट गए थे। सबसे अधिक कष्ट इस बात का था कि उनकी पत्नी का वोट भी दूसरी पार्टी को चला गया था। अखबारों की सुर्खियों में यही चर्चा हो रही थी। घर में उन्होंने अंदर प्रवेश नहीं किया। ड्राइंग रूम में सोफे पर निढाल होकर लेट गए और नौकर को आवाज़ लगाई," रामलाल थोड़ा पानी लाओ।" आज़ आवाज़ में आदेश नहीं था। रामलाल खुशी खुशी दौड़कर पानी ले आया। मंत्रीजी का अवसाद और भी बढ़ गया। ,"सभी खुश हैं मेरी हार से।" उन्होंने मन ही मन बुदबुदाया। पत्नी चकित थी कि आज़ पतिदेव के तेवर बदल कैसे गए थे ?" 

पास में सोफे पर बैठ कर उन्होंने नेताजी से पूछा," सर दबा दूं क्या ? तबीयत ठीक नहीं लग रही है।" नेताजी ने पत्नी की बात सुनकर घूरकर उसे देखा।," इतनी चिंता क्यों करती हो? वोट डालते समय चिंता नहीं थी मेरी। तुम तो चाहती ही हो कि मैं दुख में डूब जाऊं।" पत्नी ने बात संभालनी चाही," ऐसा क्यों कहते हो नेताजी ? आपके दुखी होने से क्या मैं सुखी रह सकती हूं?" नेताजी ने आंखें खोल कर पत्नी का चेहरा देखा," बता सकती हो तुमने दूसरी पार्टी को वोट क्यों दिया?" उन्होंने सीधा प्रश्न पूछा। पत्नी के चेहरे पर अनायास ही मुस्कुराहट आ गई। ," नेताजी मुझे अहसास नहीं था कि मेरे वोट के बिना आप जीत ही नहीं पाओगे। मुझे यही लगा कि मेरी तरह मेरा वोट भी आपके किसी काम का नहीं है।" नेताजी पत्नी की बात सुन रहे थे। 

शायद सालों बाद। बात के पीछे के मर्म को समझ रहे थे शायद पहली बार। उन्होंने व्यंग्य से पूछा," तो अपना महत्व बताने के लिए तुमने ऐसा किया ?" पत्नी उठ कर खड़ी हो गई। ," नहीं नेताजी बस आपको घर वापिस लाने के लिए ऐसा किया। कई सालों से आप भूल गए थे कि आपका घर कहां है? पत्नी कैसी है?" आज़ नेताजी अपने घर में अपनापन महसूस कर रहे थे। दिल का बोझ उतर रहा था। जाने क्यों हार अच्छी लग रही थी। सोफे से उठे और बाथरूम में जाकर देर तक नहाते रहे। उन्हे मालूम था अब कोई पूछने नहीं आएगा। लोगों का जमावड़ा अब जीतने वाली पार्टी के दफ्तर के बाहर लगा था। नेताजी ने पत्नी के हाथ की बनाई चाय पी और चुस्कियां लेते हुए सोचा," हारता नहीं तो यह सुकून नहीं नसीब होता।" पूरे घर में जैसे रौनक छा गई थी। 

"रंजना चलो सुगनचंद को जीत की बधाई दे आते हैं। तुमने उसे विजयी बनाया है। मेरा इतना फर्ज तो बनता है।" उन्होंने हंसकर कहा तो पत्नी तुरंत तैयार होने चली गई। बेटा,बेटी और उनकी मां भी साथ जाने को तैयार थी। रामलाल भी खुद को नहीं रोक पाया और नया सूट पहन कर गाड़ी में जा बैठा। आज़ गाड़ी मंत्रीजी चला रहे थे।


                                                           - अर्चना त्यागी

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