साहित्य चक्र

24 July 2023

कविताः अपाहिज़ समाज





कैसे करूँ फक्र इन इंसानों पर
जिनके इरादे ही गन्दे हो गये,
देखकर लाचारी उन युवतियों की
तमाशबीन लोग अन्धे हो गये,

कोई नहीं आया रक्षा करने
मानवता पर ऐसे पहरे हुए,
सुनकर चीत्कार दिल ना पसीजा
ये पत्थर सारे बहरे हुए।

सिर्फ वो लड़कियाँ ही नहीं
बल्कि हर मानव नंगा हुआ,
जुर्म के खिलाफ आवाज़ ना उठी
सारा समाज ही गूँगा हुआ।

बेबसी पर हैवान हुआ
नारी सम्मान भूला है,
वस्त्र उतारने को तो बलशाली
आबरू बचाने में लूला है।

राष्ट्रीय एकता गयी भाड़ में
जाति समुदाय का झगड़ा है,
बढ़ा नहीं कोई क़दम आगे
क्या हर भाई वहाँ लंगड़ा है?

मणिपुर की आग से देखो
नपुंसक पुरुष पराजित है,
माफ करना देश की बालाओं
समाज मेरा निरा अपाहिज़ है।


                                     - आनन्द कुमार


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