अंश 1: रूप
पुरुष: सौंदर्य मणि की मलिका से , चर्चा की कौतुकता है।
स्त्री: पौरुष का प्रवाह प्रबल ,भला कभी क्या रुकता है?
पुरुष: अपने रूप की अहम् व्याधि से हो सकती हो मुक्त?
स्त्री: क्यों हो? हम ईश्वर की विशेष भेंट को उपयुक्त।
पुरुष: पुरुष दृष्टि बिन रूप लालिमा इतनी सूर्ख नहीं।
स्त्री: रूप को गुण कह दे ,स्त्री इतनी मूर्ख नहीं।
पुरुष: फिर निखार की इतनी चेष्ठा,क्यों ये रूप श्रृंगार?
स्त्री: जड़ पुरुष बुद्धि के विरुद्ध खास यह हथियार।
पुरुष: क्या हो यदि रिक्त हो जाये इस हथियार का वार?
स्त्री: स्वयं से पूछ देखिये इसके कितने है आसार।
पुरुष: प्रशंसा कर मात्र शिष्टता वरण करते है।
स्त्री: हमारी इच्छाओं का आप अनुसरण करते है।
पुरुष: काम लोलुप दुष्टों का होता ये जलपान।
स्त्री: भले बुरे में अंतर की खूब हमें पहचान।
पुरुष: रूप आंच के घाव इतिहास को अब तक साल रहे।
स्त्री: रूप भोग की लिप्सा का अपराध रूप पर डाल रहे?
पुरुष: भोग के योग्य रूप, सदा रहा पुरुष का दास।
स्त्री: तुच्छता पर गर्वित हो,ऐसा पौरुष का उजास?
पुरुष: क्षयी आश्रय ये,भान समय के भय से ग्रसित को हैं।
स्त्री: स्त्रोत से ज्यादा जल की चिंता अतितृषित को हैं।
- संदीप कुमरावत
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