साहित्य चक्र

24 July 2023

कविताः मैं मुर्दों के शहर में रहती हूँ




मैं मुर्दों के शहर में रहती हूँ 
जहाँ सिर्फ़ आरोप और आरोप 
सिर्फ़ और सिर्फ़ इल्ज़ाम 
स्त्री मन क्या चाहता है कोई परवाह नहीं 
कोई इतना भी बुरा कैसे हो सकता है 
कोई पास फटके ही ना 
सिर्फ़ और सिर्फ़ आरोप 
दिमाग़ जैसे फट के कई टुकड़ों में विभाजित हो गया 
क्या क्या उम्मीद उस  से 
सब बेकार 
जैसे वो सिर्फ़ एक सड़ी हुई बीमार लाश
सिर्फ़ बदबूदार 
इतनी सड़न की जहाँ जायें 
सब जगह बीमारी फैला आयें 
वो इतनी बेबस है आज 
सबके हाथ में ज़ुबान रूपी पत्थर 
कैसे कैसे कहाँ कहाँ फेकें सबने 
खून के रिश्तें भी बेकार 
किसी को नहीं वो स्वीकार 
ऐसे में कहाँ वो जाएँ 
कहाँ अपना सिर छुपाये 
सबके लिए अब वो बेकार 
 नहीं किसी को वो  स्वीकार 
कोई तो,कहीं नहीं किसी का नामोनिशान 
जिसे वो हो एक प्रतिशत भी स्वीकार 
मरी हुई लाश सी पड़ी है,
बदबू ही बदबू ,कटे फटे अंग 
जमा हुआ खून 
हर तरफ़ सन्नाटा 
किसी को कुछ समझ नहीं आता 
जलती हुई वेदी पर वो 
फफोले ही फफोले ,
दर्द अनंत 
सबके चेहरे प्रसन्न
ख़त्म हुआ एक सदी का द्वन्द
हाँ जी हाँ मैं मुर्दों के शहर में रहती हूँ 
मैं मुर्दों के शहर में रहती हूँ


                              - डॉ. अर्चना मिश्रा 


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