साहित्य चक्र

20 July 2023

कविताः माँ



माँ ने सिखाया ही नहीं था,डरना।
बस चुप रहकर अपने घावों को मरहम 
बन कर खुद ही तो था,भरना।

शिकायत की ही नहीं कभी अपनों से,
वो तो कह देती थी। इसे नीति का कर्मा,
कहती थी मंजिल तुम्हारी है।

तो सफर भी तुम्हीं तय करना,
भाप कर आने वाली बाधाओं को,
मेरे बच्चों अपनी राहें तुम ही तय करना।

कौन है,अपना कौन पराया जीवन के संघर्ष में,
जिसे तुमने अपने साथ खड़ा जो पाया,
वो ही साथ चलेगा बनके तुम्हारा हमसाया।

माँ ने सिखाया ही नहीं था,डरना।
बस चुप रहकर अपने घावों को मरहम 
बन कर खुद ही तो था,भरना।

                                                      - कांता मीना


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