साहित्य चक्र

20 July 2023

नरेंद्र सोनकर की कविताएं



।। अंगारा ।।

मूतने में
नहीं छोड़ा जब
तुम्हारे बाप-दादाओ ने ही
कोई कोर-कसर 
तो तुम 
मूतने से बाज कैसे आओगे
और आओगे भी क्यों? 
जब मूतना ही हो
जन्मजात पेशा
रोजी-रोटी;पैसा
तुम्हारे धर्म-संस्कृति,मनुस्मृति का मूलमंत्र 
जिसकी बदौलत तुम करते आए हो
राज्य
रंगबाजी
अय्यारी
और शोषण
सदियों से

सदियों से तुम्हारे मूतने का क्रम 
चलता रहा है
और न जाने कब तलक
चलता रहेगा यूं ही

न जाने कब तलक देगा समाज
तुम्हारे मूतने का मुंहतोड़ जवाब
कि तुम समझ जाओ
कि मूतना कितना ग़लत होता है 
अंगारा।

*****

।। आबरू ।।

मेरे शरीर का
रोम रोम कांप उठता है
जब कहीं
कोई धुआं उठता है
सताने लगता है
डर मुझे
महज इस बात का
कि दुशासन के चंगुल में कैद
फिर कहीं
कोई आबरू 
तो नही जल रही है।

*****

मिट्टी की मूर्ति बनाम 
वृद्ध और असहाय मां

कितना सुंदर होगा वो नजारा
जरा सोचिए
जिस दिन
मिट्टी से बनी
इन मूर्तियों की जगह
वृद्धाश्रम में पड़ी
चुल्लू भर पानी के लिए तड़पती
आलंबन हेतु
ललचाई हुई आंखों से निर्निमेष निहारती हुई
वृद्ध और असहाय मांओं का
नवरात्रि पूजन होने लगे।

*****

।। अब बहुत हो गया ।।

सोचता हूं
देख देख कर
रो पड़ता हूं
समायी हुई हैं 
जिस तरह से
स्त्री,दलित और प्रकृति की
मलिन भावनाएं
मेरे चिंतन में।

ठांस गया हूं
रोते-रोते
टूट गया हूं
ढोते-ढोते
जाति,धरम और मजहब की
जहरीली कुरितियां।

अब बहुत हो गया
अब बहुत हो गया
तोड़ना होगा
अंधविश्वास की बेड़ियों को
संकीर्ण विचारधाराओं को
कुछ मर्यादाओं को भी
लांघना होगा
मतभेदों से ऊपर उठकर
सर्वहित में आना होगा
सर्वे भवन्तु गाना होगा
मानवता अपनाना होगा।

*****

।। प्रकाश का समुद्र ।।

सूर्य को निगल गया हो ग्रहण
चंद्रमा भी अंधेरों की भेंट चढ़ गया हो जब
काली घोर घटाएं छाई हो आसमान में
कहीं कोई सुराख ना हो रौशनी का
दूर दूर तलक नजर न आये कहीं कोई नक्षत्र-तारा
समूचा संसार कोप भवन का पर्याय लग रहा हो जब
अंधेरा ही प्रकाश का समानार्थी समझा जा रहा हो तब 
भ्रमवश नही पूरे विश्वास के साथ 
यदि मान बैठे जुगनू 
स्वयं को 
प्रकाश का समुद्र
तो गलत नही है 

गलत इसलिए नही है 
क्योंकि वह ऐसे वक्त में स्वयं को 
अजेय और परवरदिगार साबित किया है
जब बड़े-बड़े सिकंदर व धुरंधर 
जकड़े हुए थे काल के शिकंजे में।

*****

।। सफर ए अध्ययन ।।

बचपन में
आम बालकों की ही तरह
मेरा भी स्वभाव
बहुत था हठी-जिद्दी और संकोची

मुझे स्कूल जेलखाना लगता था
और अध्यापक जल्लाद

मुझे स्कूल ले जाया गया
कंधों पर लादकर
बांधकर 
किसी संगीन अपराधी की तरह
पीट और घसीट कर

मुझे स्कूल जाना
लगता था बड़ा गुनाह

शुरु में मेरा दाखिला
किसी सरकारी स्कूल में करा दिया गया
बाद इसके एक निजी विद्यालय 
मां कमला उच्चतर माध्यमिक में
यहीं मेरे अध्ययन की नींव पड़ी
बढ़ने लगी मेरी रुचि और लगने लगा मेरा मन 
पढ़ाई में

फिर क्या 
शुरू हुई प्रतियोगिताओं की दौड़ 
कक्षा में अव्वल आने की प्रतिस्पर्धा
अध्यापक की नजर में सर्वश्रेष्ठ बने रहने की चाह

इसी तरह होते जाते
मैंने कक्षा 1 से 10वीं तक की पढ़ाई की
इसी एक स्कूल से 

इंटर किया
मदन मोहन मालवीय इंटर कालेज करछना से 
और स्नातक
इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय प्रयागराज से

और अब कर रहा हूं
बीएड
सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी से संबंध्द
श्री सच्चा अध्यात्म संस्कृत महाविद्यालय अरैल,नैनी से।

जय हिंद।

*****

।। दाल नही गलने दूंगा ।।

बहुत हो गया शोषण जुल्म
अब और नही छलने दूंगा
आदमखोर उचक्कों की
मैं दाल नही गलने दूंगा।

मनमाना मनमौज किसी का
रूआब नहीं चलने दूंगा
किसी गरीब को ठगने का
कुख्वाब नहीं पलने दूंगा
सौगंध मुझे हे भारत मां
अन्याय नहीं होने दूंगा
आदमखोर उचक्कों की
मैं दाल नही गलने दूंगा।

बदल रहे जो संविधान को
हरगिज़ नहीं बदलने दूंगा
जीते जी मैं किसी गरीब का
अस्तित्व नहीं मसलने दूंगा
सौगंध मुझे हे भारत मां 
नफरत नहीं बोने दूंगा
आदमखोर उचक्कों की
मैं दाल नही गलने दूंगा।

खिली हुई नूतन कली को
असमय नही कुम्हलने दूंगा
नीच अधर्मी मनचलो को
सरेराह नही टहलने दूंगा
सौगंध मुझे हे भारत मां 
स्वाभिमान नहीं खोने दूंगा
आदमखोर उचक्कों की
मैं दाल नही गलने दूंगा।

*****



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