साहित्य चक्र

20 July 2023

कविताः मेरे सपने



मेरे सपनें तो कुछ और थे,
मैं कर कुछ और रहा हूं।

नजर आती नहीं मंजिल,
मैं फिर भी दौड़ रहा हूं।

सुबह निकल जाता हूं,
दिल में नई आस लिए।

आंखें भर आती है मेरी,
दर्द का वो एहसास लिए।

खुद को खुद ही कोसकर,
दिल अपना तोड़ रहा हूं।

नजर आती नहीं मंजिल,
मैं फिर भी दौड़ रहा हूं।

मैं दर दर भटकता हूं,
सपना साकार हो जाये।

दुनियां के आगे बहुत,
दिल ये लाचार हो जाये।

मैं सोचता हूं अकेले में,
क्या है जिसे छोड़ रहा हूं।

नजर आती नहीं मंजिल,
मैं फिर भी दौड़ रहा हूं।

आग लगी है पेट में,
पर जेब में पैसा नहीं है।

जो तरस खाये मुझे पर,
कोई इंसान ऐसा नहीं है।

छाले पड़े हैं मेरे पांव में,
फटे जूतों को देख रहा हूं।

नजर आती नहीं मंजिल,
मैं फिर भी दौड़ रहा हूं।

माना वक़्त बुरा है लेकिन,
हौंसला अभी टूटा नहीं मेरा।

पूरा भरोसा है खुद पर मुझे,
अभी मुक्कदर रूठा नहीं मेरा।

एक दिन किस्मत चमकेगी,
ये सोचकर आगे बढ़ रहा हूं।

          
                                                  - पवन शर्मा


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