साहित्य चक्र

03 July 2023

साप्ताहिक शब्द प्रतियोगिता विशेषः वैतरिणी

वैतरिणी पार



वैतरिणी से पार उतरना, साथी है आसान नहीं ।
डगमग डगमग डोले नैया, लहरों का था भान नहीं ।।

साथी बनकर साथ चले जो, वो तूफां में छोड़ चले ।
उठती गिरती लहरों सम ही,  धारा भी मुख मोड़ चले ।
पार उतारे अटल इरादा ,  गीता और कुरान नहीं।
वैतरिणी से पार उतरना......।।

लगा मुखौटा ओढ़े चोला, बने छलावा घूम रहे ।
वाह्य रूप से निकट बहुत हैं, अन्तर छल का भाव गहे ।
बीच धार पतवार छीनते, दानव हैं इंसान नहीं ।
वैतरिणी से पार उतरना.......।।

बनो विवेकानंद स्वयं में, स्वयं ज्ञान का मूल बनो ।
परखो समझो देखो जानो, खुद जीवन अनुकूल बनो।
मिथ्या माया मोह लोभ को, त्यागो यह मधु मान नहीं ।
वैतरिणी से पार उतरना......।।

- डॉ. मधु शंखधर "स्वतंत्र"

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मोक्ष की प्राप्ति 




धरती पर ही लग जाता है, पाप-पुण्य का हिसाब,
मानव जीवन भी तो है, एक तरह की किताब,
जन्म से मृत्यु तक हमने, किये हैं जो भी कर्म
मृत्यु उपरांत परलोक में, सब देना होगा जवाब।

जीवन का उसूल है कि जैसी करनी वैसी भरनी,
मोक्ष प्राप्त करना है तो, पार करनी है वैतरणी,
वो ही मानस झेलता कष्ट, इसकी जलधारा में
जिसने सताया लोगों को, रहा जीवनभर अधर्मी।

सोचो कैसे करना है, इस जीवन का उद्धार,
जो भी हुई हैं गलतियाँ, उनमें करना है सुधार,
मिलेगा इस आत्मा को वहाँ, सब सुख और वैभव
खुलेगा जब हमारे लिये, स्वर्ग का मुख्य द्वार।

- आनन्द कुमार

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वैतरणी का डर


 गंगा ,यमुना ,सरस्वती के शीतल जल में
 कितनी डुबकियां लगाएगा,
हे पापी मन! तू तन को ही या 
मन को भी शुद्ध बनाएगा। 

तुझे अपने जीवन के अच्छे- बुरे 
सारे कर्मों का लेखा जोखा रखना होगा, 
क्योंकि, अंत काल के बाद  
वैतरिणि को भी पार करना होगा ।

परंतु, आज एक बात पूछती है 'माही' तुमसे ? 
क्या केवल इसीलिए ही अच्छे कर्म करेगा, 
कि वैतरणी भी बात करनी है ,
या फिर एक अच्छे इंसान का प्रमाण देकर
अपने जीवन की शुद्ध राह बुहारनी है। 


- रचना चंदेल 'माही'

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वैतरिनी नदी

अच्छे कर्म करो बार-बार 
तभी होगी वैतरिणी नदी पार

लोगों का करो उपकार
गाय को रोटी खिलाओ बार-बार

तभी होगी वैतरिणी नदी पार
आदमी का होगा उदवार

भजन कर सुमरिन करो
बार बार तभी होगी वैतरिणी
नदी पार

गंगा नहाने से कुछ नहीं होगा 
माता पिता की सेवा करो
बार बार
तभी होगी वैतरिणी नदी पार

- वीना वर्धन

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नरक लोक की नदी



जानकर भी अपना अंत क्यों बनता है, 
प्राणी तू पाप का भागीदार !
क्यों करता है, 
इतने अधिक तू पाप इस दुनियां में, 
जब अंत में करना है 
तूने मुझ "वैतरणी" को पार !!

आयेगा जब तू द्वार मेरे, 
अत्यंत तप्त और रक्त युक्त जल में 
जबरदस्ती डुबोया जायेगा!
रोएगा खून के आंसू और भोगेगा 
जब तू अपने कर्मो को कैसे 
तू मुझसे नजरे मिला पायेगा !!

अभी भी समय है संभल जा तू प्राणी, 
छोड़ दे, ये पाप का पिटारा !
ये जन्म मरण का बंधन किसी से भी छूटे ना, 
पाप छोड़कर तू बन जा इक चमकता सितारा !!


- रजनी उपाध्याय

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