साहित्य चक्र

24 July 2023

कविताः अपाहिज़ समाज





कैसे करूँ फक्र इन इंसानों पर
जिनके इरादे ही गन्दे हो गये,
देखकर लाचारी उन युवतियों की
तमाशबीन लोग अन्धे हो गये,

कोई नहीं आया रक्षा करने
मानवता पर ऐसे पहरे हुए,
सुनकर चीत्कार दिल ना पसीजा
ये पत्थर सारे बहरे हुए।

सिर्फ वो लड़कियाँ ही नहीं
बल्कि हर मानव नंगा हुआ,
जुर्म के खिलाफ आवाज़ ना उठी
सारा समाज ही गूँगा हुआ।

बेबसी पर हैवान हुआ
नारी सम्मान भूला है,
वस्त्र उतारने को तो बलशाली
आबरू बचाने में लूला है।

राष्ट्रीय एकता गयी भाड़ में
जाति समुदाय का झगड़ा है,
बढ़ा नहीं कोई क़दम आगे
क्या हर भाई वहाँ लंगड़ा है?

मणिपुर की आग से देखो
नपुंसक पुरुष पराजित है,
माफ करना देश की बालाओं
समाज मेरा निरा अपाहिज़ है।


                                     - आनन्द कुमार


कविता- हे द्रौपती




हरण एक बार पुनः चीर
बिसात पर क्या थे युधिष्ठिर ? 
कटघरे में आज भी द्रोण भीष्म  
कौन ले रहा था निर्वस्त्र तस्वीर ?

आज भले बिसात पर,
दांव पर ना लगे नारियाँ।  
फिर भी यहां की द्रौपदी 
हर युग में देती कुर्बानियां।
हर वक्त झेलती यह पारियां।
 
कौरवों ने राजपाठ  के लिए 
शकुनि के संग किया  प्रपंच था 
पांडवों के निष्कासन के लिए 
रचा  एक षड्यंत्र था।
 
फिर भी अधर्मी कौरव 
युद्ध कला में दक्ष थे।
जो पीयूष पान कर हुए जवान
वो तुम्हारे लिए सिर्फ वक्ष थे।


उसी क्षण द्रौपदी ने 
केश  खोल लिया था प्रण 
ज्ञात था उसे की 
पांडव जीत जाएंगे रण।

पर आज इस द्रौपदी की 
केश  रक्त से धोए कौन 
उस वक्त भी सभी मौन थे 
आज भी मानवता हुई है गौण ?

अब सुन तू द्रौपदी 
अगर चीर का होगा हरण 
तो अपने ही भीतर 
जगाना होगा तुमको मोहन।


- सविता सिंह मीरा 

कविताः मैं मुर्दों के शहर में रहती हूँ




मैं मुर्दों के शहर में रहती हूँ 
जहाँ सिर्फ़ आरोप और आरोप 
सिर्फ़ और सिर्फ़ इल्ज़ाम 
स्त्री मन क्या चाहता है कोई परवाह नहीं 
कोई इतना भी बुरा कैसे हो सकता है 
कोई पास फटके ही ना 
सिर्फ़ और सिर्फ़ आरोप 
दिमाग़ जैसे फट के कई टुकड़ों में विभाजित हो गया 
क्या क्या उम्मीद उस  से 
सब बेकार 
जैसे वो सिर्फ़ एक सड़ी हुई बीमार लाश
सिर्फ़ बदबूदार 
इतनी सड़न की जहाँ जायें 
सब जगह बीमारी फैला आयें 
वो इतनी बेबस है आज 
सबके हाथ में ज़ुबान रूपी पत्थर 
कैसे कैसे कहाँ कहाँ फेकें सबने 
खून के रिश्तें भी बेकार 
किसी को नहीं वो स्वीकार 
ऐसे में कहाँ वो जाएँ 
कहाँ अपना सिर छुपाये 
सबके लिए अब वो बेकार 
 नहीं किसी को वो  स्वीकार 
कोई तो,कहीं नहीं किसी का नामोनिशान 
जिसे वो हो एक प्रतिशत भी स्वीकार 
मरी हुई लाश सी पड़ी है,
बदबू ही बदबू ,कटे फटे अंग 
जमा हुआ खून 
हर तरफ़ सन्नाटा 
किसी को कुछ समझ नहीं आता 
जलती हुई वेदी पर वो 
फफोले ही फफोले ,
दर्द अनंत 
सबके चेहरे प्रसन्न
ख़त्म हुआ एक सदी का द्वन्द
हाँ जी हाँ मैं मुर्दों के शहर में रहती हूँ 
मैं मुर्दों के शहर में रहती हूँ


                              - डॉ. अर्चना मिश्रा 


कविता का शीर्षक- जिंदगी और प्रेम




जिंदगी में कब से उलझी हुई हूं,
जिंदगी का सफर यूं चलती रही हूं।

बड़े शौक से में  मुस्कुराती रही हूं,
चमन में कही फूल खिलाती रही हूं।

महफिल सजी है गीत गाती रही हूं ,
लोगों को तेरी हर बात बतती रही हूं।

नजर से इशारा तुझे करती रही हूं,
बडी शोखियों में तुम्हें बसा के रखी हूं।

तेरी बात उल्फत में महसूस करती रही हूं,
प्यार से शबनम कहकर बुलाती रही हूं।

बड़े राज गहरे तुम्हारे छिपा कर रखे हूं,
तुम कह दो तो हंसकर बयां करने लगी हूं।

हर कहानी रमा तेरी जुबा कह रही हूं,,
सबसे मिलकर में नदी की तरह बह रही हूं।


                               - रामदेवी करौठिया


कविता का शीर्षकः औरत



भट्टी में सिकती हुई रोटियां
रोटियां कहूं या औरतें
जो जल रही हैं
तुम्हारे जलाए जाने पर
कोयले की राफ सरीखी 
तुम्हारी जहरीली बातें
जो कोमल सी 
रोटी की तरह 
औरत को खूब
जला रही हैं
रोटियां और औरतें
तुम्हारे लिए एक समान हैं
जो मिटा सके तुम्हारी भूख
तुम्हें हर दिन
रोटी की तरह 
औरत चाहिए
जिसे तुम रोज़
भट्टी की आंच में डालकर
सेंक कर और जला कर
खुद को तृप्त कर सको। 

                              - भावना पांडे


23 July 2023

कविताः मेघा आए




गरज गरज के मेघा आए
उमड़ घुमड़ के दौड़े दौड़े

जमकर बरसे रोज़ रोज़ ये
बिजली कौंधी गरज गरज कर

मेघा बरसे दिन रात जमके
पर्वत नदियां गांव शहर अब

पानी से डूबे घर बाग बगीचे
चिड़िया रोई ज़ार ज़ार खूब

पशुओं को रास न आई
बरखा रानी जमकर आई

बहा ले गई गांव मोहल्ले
खेत खलियान गौशाले डूबे

भयभीत पड़े है गांव गली अब
हाथ उठाके जन जन अब

प्रभु बंद करो अब ये सब
प्रभु हंसे पर लोग न समझे

विकास हुआ तो विनाश भी होगा
करनी किसकी भरनी किसकी


                                       - सुमन डोभाल काला



22 July 2023

तोहफा ए प्रेम...



प्रेम में मैं भेजना चाहती हूं
एक कोमल सा एहसास।

दिल में बसे जज्बातों को
पिरोकर भेजूंगी एक खत।

फिर सोचती हूँ क्या ये
पर्याप्त रहेगा मेरे एहसास।

क्या एक खत में सिमट जाएंगे
नहीं नहीं जो लिखा जा सके।

मेरा प्रेम वो नहीं फिर क्या दूँ
तोहफा ए यार को ऐसा।

जिसका कोई मोल ना हो
जो अनमोल हो सबसे जुदा।

प्रेम को प्रेम से ज़्यादा क्या हि दूँ
पारस सा मेरा यार है क्या दे दूँ।

उसको मैं कोई भी उपहार
मैं खुद तुझको पाकर संवर गयी।

क्या गहना दूँ तुझको मेरे यार
तुझसे हि तो है मेरा श्रृंगार।

चाँद की चाँदनी फीकी है
फ़ूलों की खुशबू फीकी है।

सूरज की रोशनी फीकी है
सावन की हरियाली फीकी है।

जहां भर की खूबसूरती फीकी है
एक मेरे प्यार के सामने।

बस प्रेम को प्रेम से प्रेम लिख दूँ
तुझे उपहार में मेरा प्रेम ही दे दूँ।


- दुर्गेश नन्दिनी नामदेव

20 July 2023

कविताः लड़कियाँ ज़िद नहीं करतीं



बचपन से जिन्होंने भेदभाव देखा,
बेटे की तरफ़ सबका झुकाव देखा,
लिंगभेद का घर में प्रभाव देखा,
फिर भी शिकायत हरगिज़ नहीं करतीं,
ये सच है कि लड़कियाँ ज़िद नहीं करतीं।

होती इन पर, घर की भी जिम्मेदारी,
तभी आ जाती जल्दी समझदारी,
चंचलता को छोड़, सीख जाती दुनियादारी,
स्वयं को अक्लमंद साबित नहीं क़रतीं,
ये बेटियाँ कभी ज़िद नहीं करतीं।

ना जाने कितने सपने बुनती हैं
जीवनसाथी अपना ख़ुद नहीं चुनती हैं,
ख़ामोश रहकर, बहुत कुछ सुनती है,
परिवार के फैसले को ग़लत सिद्ध नहीं करतीं,
ये गुड़ियाँ भला, क्यों ज़िद नहीं करतीं?

अंदाज़ ए बयाँ, आँखों से कह जातीं हैं,
कुछ ख़्वाहिशें बेशक अधूरी रह जाती हैं,
दिल टूटता है, तब भी सह जाती हैं,
किसी के लिये ये गिद्ध नहीं बनतीं,
ये परियाँ लाजवाब हैं, जो ज़िद नहीं करतीं।

त्याग और समर्पण की मूरत हैं,
मन से बहुत ही खूबसूरत हैं,
हर घर की अत्यंत ज़रूरत हैं,
दुनिया उतनी तारीफ़ नहीं करती,
ये लड़कियाँ ज़्यादा ज़िद नहीं करतीं।


                                         - आनन्द कुमार


महात्मा ज्योतिबा फूले



सतारा के गरीब परिवार में
जन्मे ज्योतिबा,
जीवन यापन के लिए
पिता जी बगीचों में माली का
काम करते थे,
एक बर्ष की उम्र ही
मां का आंचल छूट गया,
दाई सगूनाबाई ने जब
मां का दुलार दिया ।

विद्यालय में
पढ़ाई के दौरान
जात पात, भेदभाव
का अपमान सहा,
भेदभाव के कारण
विद्यालय छोड़ना पड़ गया,
घर पर ही शिक्षा पाकर
शिक्षक जब तुम बन गए ।

विधवा, महिलाओं के
कल्याण के लिए अनेक कदम उठाए,
महिलाओं की दशा सुधारने के लिए
खुद एक स्कूल खोला,
महिलाओं को शिक्षित
करने के लिए,
शिक्षक ना मिलने पर
पत्नी को शिक्षित किया,
देश की पहली
महिला अध्यापिका बनाया,
और महिलाओं को शिक्षित करने
माता सावित्री बाई निकल पड़ी,
हर क्षेत्र में आपने 
अनेक महान कार्य किए ।

गुलाम गिरी पुस्तक लिख
आपने बहुजनों को 
गुलामी का इतिहास बताया ।

कर्म कांड को लात मार
मानवता का पाठ पढ़ाया,
बहुजन समाज की
ज्योति बन
समाज को एक नई दिशा दी ।

*****

                                     - नीरज सिंह कर्दम



कविताः माँ



माँ ने सिखाया ही नहीं था,डरना।
बस चुप रहकर अपने घावों को मरहम 
बन कर खुद ही तो था,भरना।

शिकायत की ही नहीं कभी अपनों से,
वो तो कह देती थी। इसे नीति का कर्मा,
कहती थी मंजिल तुम्हारी है।

तो सफर भी तुम्हीं तय करना,
भाप कर आने वाली बाधाओं को,
मेरे बच्चों अपनी राहें तुम ही तय करना।

कौन है,अपना कौन पराया जीवन के संघर्ष में,
जिसे तुमने अपने साथ खड़ा जो पाया,
वो ही साथ चलेगा बनके तुम्हारा हमसाया।

माँ ने सिखाया ही नहीं था,डरना।
बस चुप रहकर अपने घावों को मरहम 
बन कर खुद ही तो था,भरना।

                                                      - कांता मीना


नरेंद्र सोनकर की कविताएं



।। अंगारा ।।

मूतने में
नहीं छोड़ा जब
तुम्हारे बाप-दादाओ ने ही
कोई कोर-कसर 
तो तुम 
मूतने से बाज कैसे आओगे
और आओगे भी क्यों? 
जब मूतना ही हो
जन्मजात पेशा
रोजी-रोटी;पैसा
तुम्हारे धर्म-संस्कृति,मनुस्मृति का मूलमंत्र 
जिसकी बदौलत तुम करते आए हो
राज्य
रंगबाजी
अय्यारी
और शोषण
सदियों से

सदियों से तुम्हारे मूतने का क्रम 
चलता रहा है
और न जाने कब तलक
चलता रहेगा यूं ही

न जाने कब तलक देगा समाज
तुम्हारे मूतने का मुंहतोड़ जवाब
कि तुम समझ जाओ
कि मूतना कितना ग़लत होता है 
अंगारा।

*****

।। आबरू ।।

मेरे शरीर का
रोम रोम कांप उठता है
जब कहीं
कोई धुआं उठता है
सताने लगता है
डर मुझे
महज इस बात का
कि दुशासन के चंगुल में कैद
फिर कहीं
कोई आबरू 
तो नही जल रही है।

*****

मिट्टी की मूर्ति बनाम 
वृद्ध और असहाय मां

कितना सुंदर होगा वो नजारा
जरा सोचिए
जिस दिन
मिट्टी से बनी
इन मूर्तियों की जगह
वृद्धाश्रम में पड़ी
चुल्लू भर पानी के लिए तड़पती
आलंबन हेतु
ललचाई हुई आंखों से निर्निमेष निहारती हुई
वृद्ध और असहाय मांओं का
नवरात्रि पूजन होने लगे।

*****

।। अब बहुत हो गया ।।

सोचता हूं
देख देख कर
रो पड़ता हूं
समायी हुई हैं 
जिस तरह से
स्त्री,दलित और प्रकृति की
मलिन भावनाएं
मेरे चिंतन में।

ठांस गया हूं
रोते-रोते
टूट गया हूं
ढोते-ढोते
जाति,धरम और मजहब की
जहरीली कुरितियां।

अब बहुत हो गया
अब बहुत हो गया
तोड़ना होगा
अंधविश्वास की बेड़ियों को
संकीर्ण विचारधाराओं को
कुछ मर्यादाओं को भी
लांघना होगा
मतभेदों से ऊपर उठकर
सर्वहित में आना होगा
सर्वे भवन्तु गाना होगा
मानवता अपनाना होगा।

*****

।। प्रकाश का समुद्र ।।

सूर्य को निगल गया हो ग्रहण
चंद्रमा भी अंधेरों की भेंट चढ़ गया हो जब
काली घोर घटाएं छाई हो आसमान में
कहीं कोई सुराख ना हो रौशनी का
दूर दूर तलक नजर न आये कहीं कोई नक्षत्र-तारा
समूचा संसार कोप भवन का पर्याय लग रहा हो जब
अंधेरा ही प्रकाश का समानार्थी समझा जा रहा हो तब 
भ्रमवश नही पूरे विश्वास के साथ 
यदि मान बैठे जुगनू 
स्वयं को 
प्रकाश का समुद्र
तो गलत नही है 

गलत इसलिए नही है 
क्योंकि वह ऐसे वक्त में स्वयं को 
अजेय और परवरदिगार साबित किया है
जब बड़े-बड़े सिकंदर व धुरंधर 
जकड़े हुए थे काल के शिकंजे में।

*****

।। सफर ए अध्ययन ।।

बचपन में
आम बालकों की ही तरह
मेरा भी स्वभाव
बहुत था हठी-जिद्दी और संकोची

मुझे स्कूल जेलखाना लगता था
और अध्यापक जल्लाद

मुझे स्कूल ले जाया गया
कंधों पर लादकर
बांधकर 
किसी संगीन अपराधी की तरह
पीट और घसीट कर

मुझे स्कूल जाना
लगता था बड़ा गुनाह

शुरु में मेरा दाखिला
किसी सरकारी स्कूल में करा दिया गया
बाद इसके एक निजी विद्यालय 
मां कमला उच्चतर माध्यमिक में
यहीं मेरे अध्ययन की नींव पड़ी
बढ़ने लगी मेरी रुचि और लगने लगा मेरा मन 
पढ़ाई में

फिर क्या 
शुरू हुई प्रतियोगिताओं की दौड़ 
कक्षा में अव्वल आने की प्रतिस्पर्धा
अध्यापक की नजर में सर्वश्रेष्ठ बने रहने की चाह

इसी तरह होते जाते
मैंने कक्षा 1 से 10वीं तक की पढ़ाई की
इसी एक स्कूल से 

इंटर किया
मदन मोहन मालवीय इंटर कालेज करछना से 
और स्नातक
इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय प्रयागराज से

और अब कर रहा हूं
बीएड
सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी से संबंध्द
श्री सच्चा अध्यात्म संस्कृत महाविद्यालय अरैल,नैनी से।

जय हिंद।

*****

।। दाल नही गलने दूंगा ।।

बहुत हो गया शोषण जुल्म
अब और नही छलने दूंगा
आदमखोर उचक्कों की
मैं दाल नही गलने दूंगा।

मनमाना मनमौज किसी का
रूआब नहीं चलने दूंगा
किसी गरीब को ठगने का
कुख्वाब नहीं पलने दूंगा
सौगंध मुझे हे भारत मां
अन्याय नहीं होने दूंगा
आदमखोर उचक्कों की
मैं दाल नही गलने दूंगा।

बदल रहे जो संविधान को
हरगिज़ नहीं बदलने दूंगा
जीते जी मैं किसी गरीब का
अस्तित्व नहीं मसलने दूंगा
सौगंध मुझे हे भारत मां 
नफरत नहीं बोने दूंगा
आदमखोर उचक्कों की
मैं दाल नही गलने दूंगा।

खिली हुई नूतन कली को
असमय नही कुम्हलने दूंगा
नीच अधर्मी मनचलो को
सरेराह नही टहलने दूंगा
सौगंध मुझे हे भारत मां 
स्वाभिमान नहीं खोने दूंगा
आदमखोर उचक्कों की
मैं दाल नही गलने दूंगा।

*****



कविताः स्त्री-पुरुष संवाद


अंश 1: रूप



पुरुष: सौंदर्य मणि की मलिका से , चर्चा की कौतुकता है।
स्त्री: पौरुष का प्रवाह प्रबल ,भला कभी क्या रुकता है?

पुरुष: अपने रूप की अहम् व्याधि से हो सकती हो मुक्त?
स्त्री: क्यों हो? हम ईश्वर की विशेष भेंट को उपयुक्त।

पुरुष: पुरुष दृष्टि बिन रूप लालिमा इतनी सूर्ख नहीं।
स्त्री: रूप को गुण कह दे ,स्त्री इतनी मूर्ख नहीं।

पुरुष: फिर निखार की इतनी चेष्ठा,क्यों ये रूप श्रृंगार?
स्त्री: जड़ पुरुष बुद्धि के विरुद्ध खास यह हथियार।

पुरुष: क्या हो यदि रिक्त हो जाये इस हथियार का वार?
स्त्री: स्वयं से पूछ देखिये इसके कितने है आसार।

पुरुष: प्रशंसा कर मात्र शिष्टता वरण करते है।
स्त्री: हमारी इच्छाओं का आप अनुसरण करते है।

पुरुष: काम लोलुप दुष्टों का होता ये जलपान।
स्त्री: भले बुरे में अंतर की खूब हमें पहचान।

पुरुष: रूप आंच के घाव इतिहास को अब तक साल रहे।
स्त्री: रूप भोग की लिप्सा का अपराध रूप पर डाल रहे?

पुरुष: भोग के योग्य रूप, सदा रहा पुरुष का दास।
स्त्री: तुच्छता पर गर्वित हो,ऐसा पौरुष का उजास? 

पुरुष: क्षयी आश्रय ये,भान समय के भय से ग्रसित को हैं।
स्त्री: स्त्रोत से ज्यादा जल की चिंता अतितृषित को हैं।


                       - संदीप कुमरावत


कविताः मेरे सपने



मेरे सपनें तो कुछ और थे,
मैं कर कुछ और रहा हूं।

नजर आती नहीं मंजिल,
मैं फिर भी दौड़ रहा हूं।

सुबह निकल जाता हूं,
दिल में नई आस लिए।

आंखें भर आती है मेरी,
दर्द का वो एहसास लिए।

खुद को खुद ही कोसकर,
दिल अपना तोड़ रहा हूं।

नजर आती नहीं मंजिल,
मैं फिर भी दौड़ रहा हूं।

मैं दर दर भटकता हूं,
सपना साकार हो जाये।

दुनियां के आगे बहुत,
दिल ये लाचार हो जाये।

मैं सोचता हूं अकेले में,
क्या है जिसे छोड़ रहा हूं।

नजर आती नहीं मंजिल,
मैं फिर भी दौड़ रहा हूं।

आग लगी है पेट में,
पर जेब में पैसा नहीं है।

जो तरस खाये मुझे पर,
कोई इंसान ऐसा नहीं है।

छाले पड़े हैं मेरे पांव में,
फटे जूतों को देख रहा हूं।

नजर आती नहीं मंजिल,
मैं फिर भी दौड़ रहा हूं।

माना वक़्त बुरा है लेकिन,
हौंसला अभी टूटा नहीं मेरा।

पूरा भरोसा है खुद पर मुझे,
अभी मुक्कदर रूठा नहीं मेरा।

एक दिन किस्मत चमकेगी,
ये सोचकर आगे बढ़ रहा हूं।

          
                                                  - पवन शर्मा


आखिर क्यों नदियां बनती हैं खलनायिकाएं ?

हाल के वर्षों में नदियों के पानी से डूबने वाले क्षेत्रों में शहरी बस्तियां बसने की रफ़्तार तेज़ हो गई है. इस कारण से भी बाढ़ से होने वाली क्षति का दायरा बढ़ रहा है. क्योंकि किसी भी शहर का भौगोलिक दायरा और आबादी बढ़ने से ज़्यादा से ज़्यादा लोगो के बाढ़ के शिकार होने की आशंका बढ़ जाती है. जैसे ही बाढ़ प्रभावित इलाक़ों में बस्तियां बसने लगती हैं, तो बाढ़ के पानी के निकलने का रास्ता रुक जाता है. इससे बाढ़ का पानी निकल नहीं पाता. फिर बस्तियों को बाढ़ के पानी से बचाने के लिए उनके इर्द गिर्द बंध बनाए जाते हैं. बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में बस्तियां बसने और इन बंधों के बनने से नदी घाटी और नदियों के इकोसिस्टम पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है.




नदियां हमारी सभ्यता की जड़ों का अभिन्न अंग हैं, तो उनकी वजह से आने वाली बाढ़ भी हमारे देश का हिस्सा हैं. अगर हम जलीय और मौसम विज्ञान की दृष्टि से कहें तो, भारत में बाढ़ का सीधा संबंध देश में मॉनसून के सीज़न में होने वाली बारिश से है. बाढ़ के चलते होने वाला नुक़सान लगातार बढ़ रहा है. इसकी बड़ी वजह ये है कि डूब क्षेत्र में आने वाले इलाक़ों में पिछले कुछ वर्षों के दौरान आर्थिक गतिविधियां बहुत बढ़ गई हैं. और, इंसानी बस्तियां भी बस रही हैं. इससे नदियों के डूब क्षेत्र में आने वाले लोगों के बाढ़ के शिकार होने की आशंका साल दर साल बढ़ती ही जात रही है. नतीजा ये कि नदी का क़ुदरती बहाव क्षेत्र बाढ़ का शिकार इलाक़ा नज़र आने लगता है. हाल के वर्षों में नदियों के पानी से डूबने वाले क्षेत्रों में शहरी बस्तियां बसने की रफ़्तार तेज़ हो गई है. इस कारण से भी बाढ़ से होने वाली क्षति का दायरा बढ़ रहा है. क्योंकि किसी भी शहर का भौगोलिक दायरा और आबादी बढ़ने से ज़्यादा से ज़्यादा लोगो के बाढ़ के शिकार होने की आशंका बढ़ जाती है. जैसे ही बाढ़ प्रभावित इलाक़ों में बस्तियां बसने लगती हैं, तो बाढ़ के पानी के निकलने का रास्ता रुक जाता है. इससे बाढ़ का पानी निकल नहीं पाता. फिर बस्तियों को बाढ़ के पानी से बचाने के लिए उनके इर्द गिर्द बंध बनाए जाते हैं. बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में बस्तियां बसने और इन बंधों के बनने से नदी घाटी और नदियों के इकोसिस्टम पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है.

पहले दौर में मनुष्य शिकारी था, फिर खेती करने लगा। इसके बाद सुदूर व्यापार करने लगा और व्यापार के नाम पर सत्ता हड़पने लगा। इसके बाद औद्योगिक युग आया और सबसे बाद में, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूंजीवादी व्यवस्था उभरी। हरेक दौर में मानव पहले से अधिक विकसित होता गया और साथ ही ऊर्जा और प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग बढ़ता गया। हरेक दौर में सूचनाएं भी पिछले दौर से अधिक उपलब्ध होने लगीं। हरेक नए दौर में जनसंख्या भी पहले से अधिक बढ़ती गयी। यहां तक प्रकृति हमसे अधिक शक्तिशाली थी, पर वर्त्तमान दौर विकास की अगली सीढ़ी है, इसे मानव युग कह सकते हैं क्योकि अब प्रकृति पर पूरा नियंत्रण मनुष्य का है और मानवीय गतिविधियां प्रकृति से अधिक सशक्त हो गयी हैं। हर डूब क्षेत्र से लोगों को हटाने और तय दिशा-निर्देशों के अनुसार उन्हें कहीं और बसाने की चुनौती बहुत बड़ी है. और इसकी शुरुआत से ही बाधाएं आने लगती हैं. आज भी ज़मीन अधिग्रहण करना एक बहुत बड़ी चुनौती है. और सरकारों पर अक्सर ये आरोप लगते रहे हैं कि वो मुआवज़ा देने में निष्पक्षता नहीं बरतते और लोगों के पुनर्वास की सरकारी योजनाएं अपर्याप्त होती हैं. इसीलिए, यथास्थिति बनाए रखने के राजनीतिक लाभ अधिक हैं. क्योंकि इसमें हर सीज़न में बाढ़ पीड़ितों को राहत और मुआवज़ा देकर काम चल जाता है. इसीलिए राज्यों की ओर से दूसरे विकल्पों पर विचार नहीं किया जाता.

क्योंकि, इससे उनके राजनीतिक हितों पर बुरा प्रभाव पड़ता है. इसके अलावा, यहां ध्यान देने वाली बात ये भी है कि शहरी घनी बस्तियों को पूरी तरह से विस्थापित नहीं किया जा सकता. और इसके लिए इन बस्तियों के इर्द गिर्द बांध बनाकर उनकी सुरक्षा का इंतज़ाम करना भी ज़रूरी होता है. पर, इसके साथ ही साथ ये ज़रूर हो सकता है कि शहरों के बुनियादी ढांचे का और विकास रोका जाए. ताकि बाढ़ प्रभावित इलाक़ों में और बस्तियां न बसें. यहां पर एक और महत्वपूर्ण बात जो ध्यान देने योग्य है, वो ये है कि डूब क्षेत्र की ज़ोनिंग का लाभ आबादी के एक बड़े हिस्से और क्षेत्र को मिलेगा. मिसाल के तौर पर, अगर असम राज्य में डूब क्षेत्र को दोबारा संरक्षित किया जाए और ब्रह्मपुत्र नदी के प्राकृतिक बहाव के रास्ते को पुनर्जीवित किया जाए, तो इसका फ़ायदा बांग्लादेश तक को मिलेगा. क्योंकि तब बारिश होने और बाढ़ का पानी बांग्लादेश के निचले इलाक़ों तक पहुंचने के बीच काफ़ी समय मिल जाएगा. इससे नदियों में लंबे समय तक पानी का अच्छा स्तर भी बना रह सकेगा.यहां हमें ये स्वीकार करना होगा कि नदियां इस भूक्षेत्र का अभिन्न अंग हैं. ऐसे में इंसानों को अपनी गतिविधियां प्राकृतिक परिस्थितियों द्वारा तय की गई सीमाओं के दायरे में रहकर ही संचालित करनी होंगी. प्राचीन काल में जिस तरह मानवीय गतिविधियों को प्राकृतिक व्यवस्था के तालमेल से संचालित किया जाता था. उसी विचार को हमें नए सिरे से अपनाने के बारे में सोचना होगा. तभी हम इस महत्वपूर्ण नीति को ज़मीनी स्तर पर लागू कर सकेंगे, जो बरसों से धूल फांक रही है.

कुल मिलाकर हम बहुत ही खतरनाक दौर में पहुंच गए हैं और संभव है कि मानव की गतिविधियां ही इसके विनाश का कारण बन जाएं। आज के दौर में समस्या केवल प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट करने की ही नहीं हैं, बल्कि हम सभी चीजों को बदलते जा रहे हैं। वायुमंडल को बदल दिया, भूमि की संरचना को बदल दिया, साधारण फसलों से जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलों पर पहुंच गए, नए जानवर बनाने लगे, जीन के स्तर तक जीवन से छेड़छाड़ कर रहे हैं। अब तो कृत्रिम बुद्धि का ज़माना आ गया है। संभव है कि आने वाले समय में पृथ्वी पर सब कुछ बदल जाए, पर प्रकृति पर इनका क्या प्रभाव पड़ेगा कोई नहीं जानता।

इन चुनौतियों के उलट अगर हम नदियों के क़ुदरती बहाव के रास्ते तैयार करने की कोशिश करें, तो इसमें भी बाढ़ नियंत्रण की काफ़ी संभावनाएं दिखती हैं. इससे बाढ़ से होने वाली क्षति को भी कम किया जा सकेगा. जिन इलाक़ों में अक्सर बाढ़ आया करती है, वहां ज़मीन के दाम ज़्यादा नहीं होते. इसीलिए, समाज के सबसे कमज़ोर तबक़े के लोग ही ऐसे जोखिम भरे इलाक़ों में आबाद होते हैं. जो अपनी ज़िंदगी बेहद ख़तरनाक जगह पर बिताते हैं. उन्हें सरकारी योजनाओं और सेवाओं का भी लाभ नहीं मिलता. ऐसे लोगों को अगर दूसरे स्थानों पर बसाया जाए, तो उनके पास ख़ुद को ग़रीबी के विषैले दुष्चक्र से आज़ाद करने का अवसर मिलेगा. वो हर साल आने वाली बाढ़ की तबाही से बच सकेंगे. इससे उनके सीमित पूंजीगत संसाधनों का भी संरक्षण हो सकेगा.


                                                      - डॉ सत्यवान सौरभ