सूनी- सूनी सी जिन्दगी
विचरती थी अन्धेरों में,
न झांकता था कोई
इन आँखो के घेरो मे।
न भरोसे का स्पर्श था
न आत्मविश्वास चेहरो मे।
एक नाजुक सा दिल,
बैठ जाता था,किसी कोनो मे।
घर की दीवारें भी लगती
थी बिना छत की।
सुना है बेटियां बड़ी
लाड़ली होती हैं पिता की।
बड़ी छोटी सी उंगली थी
मेरी, पकड़ न पायी।
इतनी अबोध थी,
कि कुछ याद न रख पायी।
सोने का पालना
किस काम का
जब झुलाने वाले
ही न थे ।
रब को भी तरस
आया न उस पल ,
जुदा कर दिया एक पिता को,
दुधमुंहे बच्चो से जिस पल।
सुमन हिय के मेरे भी
खिल गये होते,
एक बार ही सही ,
गर स्वप्न मे ही आप
मिल गये होते।
विभा श्रीवास्तव
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