मैं नन्हा सा बालक तेरा माँ,
तेरी लोरी सुन कर सोता हूँ।
जो तू न दिखे आसपास माँ,
तो मैं जोर-जोर से रोता हूँ।
पर आजकल लगता है माँ,
तू समझने लगी है बोझ मुझे।
पढ़ाई के नाम पर तभी तो,
तू लगाती है डाँट रोज मुझे।
अभी समय मेरा खेलकूद का,
बचपन मेरा तुम जी लेने दो।
समय रहते मैं पढ़ लूंगा माँ,
कुछ तो मन की कर लेने दो।
एक दिन ऐसा आएगा माँ,
जब मेरे साथ तेरा भी नाम होगा।
तब तू खुद चूमेगी माथा मेरा,
मुझ पर तुझे अभिमान होगा।
लेकिन तब तक तू इंतज़ार कर।
कुछ तो मुझ पर उपकार कर।
मैं कभी तोड़ूंगा न विश्वास तेरा,
माँ विनती मेरी स्वीकार कर।
कला भारद्वाज
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