साहित्य चक्र

05 February 2021

औरत



औरत है...!
किसी भी आकार से परे...
किसी भी रंग से परे...
किसी भी रूप से परे...

वर्षों से उसके सौंदर्य और शोभा को लिखते आए तुम
रसोई और बिस्तर में समेटते आए तुम

मगर लिखा कहां तुमने उसका हृदय उसका साहस
उसके स्पर्श का वह सुकून 
जो मिला तुम्हें हमेशा
तुम्हारे थके माथे पर एक बार उसके हाथ रख देने के बाद

लिखा कहां तुमने उसकी सरलता उसका भोलापन
उसके सीने का वह प्रेम
जो दिया उसने तुम्हे हमेशा
तुम्हारे क्लांत मन को एक बार गले से लगा लेने के बाद.

लिखा कहां तुमने उसका स्नेह उसकी भावना
उसके मन की वह ममता
जो एहसासा तुमने हमेशा
तुम्हारी शिथिल आंखो मे एक बार उसके आंखे डालने के बाद.

सुनो...!
लिख सको तो लिखना तुम
उसकी आकांक्षा उसकी अभिलाषा
उसके दिल की वह इच्छा
जो दबाती रही वह
तुम्हारी चार-दीवारी में अचानक से उसे कैद कर दिए जाने का बाद.

लिख सको तो लिखना तुम
उसकी क्षमता उसका सामर्थ्य
उसके वचन कि वह प्रतिज्ञा
जो निभाती रही वह
तुम्हारे वादों से तुम्हारा हर बार पलायन हो जाने के बाद. 

लिख सको तो लिखना तुम
उसकी कल्पना उसके विचार
उसकी मौन होठ की वह आवाज
जिसमें घुट ती रही वह
तुम्हारे समाज में तुम्हें सत्ता पर बिठा देने के बाद.


लिख सको तो लिखना उसे
तुम्हारे घर की दीवार से परे
छाती तक डोलती उसके घूंघट से परे
थोपी गई शर्म और लज्जा से परे
क्योंकि औरत है..
तुम्हारी आंखों से देखकर गढ़ी हुई उसकी किसी भी परिभाषा से परे.

                                           ✍🏻 रश्मिदीप


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