साहित्य चक्र

04 August 2019

मन की आँख से है अंधा


दान पेटी तो भर जाती हैं लेकिन 
मन्दिर के महँतो का चड़ावे से पेट नही भरता।
चड़े भगवान की मुर्ति पर नोटों की माला।
इन्हें क्या मन्दिर के बाहर एक ढांचे में 
भगवान का ही रुप जो भूखे पेट है मरता
मन्दिर की आड़ में चला रहे हैं धंधा 
अब कोई किस किस को समझाए
जब हर दूसरा तन की आँख को खोलकर
मन की आँख से है अंधा 
करना ही दान अगर
तो क्ंही रोटी बैंक तो क्ंही
दिन हीन सहायतार्थ
कोई दिव्यांग वैन चालवाओ
दिखे जो तुमको नग्न अवस्था में 
तो उसको वस्त्र पहनाकर उसका तन
ढक जाओ भरी पड़ी है दुनिया
अनाथ अपाहिज बेसहारो से
मन्दिर तो लगते मन्दिर कम 
जमते हैं चाँदी सोने से लड़कर
जैसे महल हो राजवाड़ौ से जाग बंधु
अब और न बड़ा तू मन्दिर का चंदा
हाथ बड़ा उस हाथ को अपना
जिसको जरुरत है तेरी
जिससे न होना पड़े तुझे उस
परमात्मा के आगे शर्मिंदा
छोड़ो दान पेटी में पैसा डालना
जो देता जगत को उसको कोई क्या देगा
कर भला किसी दरिद्र का
वो पालनहार तुझको प्रसन्न होकर
अपने आलिंगन में भर लेगा।
लालच अब और तुम न इनका बड़ाओ 
जो पात्र लगे दान योग्य
उसके लिये कुछ कर जाओ।

                                                          स्वीटी गोस्वामी भार्गव


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