साहित्य चक्र

04 August 2019

ज्वाला लिए कंठ में...!

"लोभ धर्म के विरुद्ध हैं, सत्य धर्मं का अनुयायी हैं
वासना विषय नहीं हैं, जाति शब्द धर्म के विरुद्ध हैं।

वाणिज्य भी अशुद्ध हैं, कृपाण भी अशुद्ध हैं
चोट खाये सिंह सा, प्रबुद्ध वर्ग में प्रतिशोध हैं।

प्रचण्ड वायु सा बुलाता,ज्वाला लिए कंठ में 
हर असहाय के अभिमान को, ठोकर लगाता हैं।

अनीति धवजाधारियों को ,युद्ध में बुलाता हैं
मग्न सा हंसता हुआ ,अशात्ति व्यूह बनाता हैं।

भरता हुॅ॑कार वह भी, आग सा लगाता हैं
शौर्यं की शिखा को  , शूल सा चुभाता हैं।

जन्म तो अधिकार हैं, हीन भावना एक अपराध हैं
देश में फैली अनेकों असहिष्णुता जाति ,धर्म पर अभिशाप हैं।

यथार्थ के तट पर , भीषण अशांति हैं अब
इसलिए सहते हर मौन में,अब सहिष्णुता को जगाना हैं।

ईश के आशीष को , कर्म से देश में अब फैलाना हैं
श्रृंखला धर्म– सत्य की,प्रेम से देश में लाना हैं ।।"


                                                रश्मि त्रिपाठी

    

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