अंनन्त काल से अविरल बहते हुए,
सदियों से यूँ ही निरंतर चलते हुए,
भिन्न-भिन्न बोलियों की गंगोत्री तुम,
अपनी विशाल संस्कृति संजोते हुए.
मत करो चिन्तन अपने अस्तित्व के लिये,
कोई मामूली पोंधा या लता नहीं,
प्राणदायी वृक्ष हो पीपल का तुम,
सबको प्राण और जीवनदान देते हुए.
सबको अपने मैं आत्मसात करते हुए,
क्रांतिकारियों -जैसी गर्जना लिये हुए,
राधा-कृष्ण के मधुर भजनों मैं तुम,
प्रेमियों की वाणी में मधुरता लिये हुए,
कृष्ण की वन्शी मैं मिठास लिये हुए,
मीरा के घुँघरूओं में प्राण लिये हुए,
कबीर-रहीम के उत्तम दोहों मैं तुम,
तुलसी की मानस -मर्यादा लिये हुए.
करूँ मैं नमन कर जोड़ते हुए,
विज्ञान को नये आयाम देते हुए,
हिन्दी भी तुम ,हिंदुस्तान भी तुम,
भारत को प्रगति -पथ दिखाते हुए.
आरती लोहनी
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