साहित्य चक्र

14 September 2017

* गरीबी एक लाचारी *




फिर कुछ ऐसा हुआ कि हम सब पत्थर हो गये,
फिर कुछ ऐसा हम सब कट्टर हो गये,
वो चला जा रहा था कांधे पर अपनी लाश उठाये,
रहे देखते ठगे-ठगे हम,सब मूकदर्शक हो गये.


वो दाना मांझी था जिसने अपना धर्म निभाया,
वो दाना मांझी था जिसने अपना कर्म निभाया.
अपने कांधे पर  व्यवस्था का बोझ उठाये,
वो दाना मांझी था जिसने हमें आइना दिखाया.


फिर एक बार इंसानियत का कत्ल हुआ,
चार कांधों का बोझ उस अकेले ने उठाया,
साथ में उसके नन्ही परी भी थी,
जिसे क्रूर दुनिया का दस्तूर समझ नहीं आया.


जीवन साथी के खोने पर रोया भी न होगा,
बहते आँसूओं को जाने कैसे पिया होगा,
हाय रे गरीबी! तेरी तो इन्तहां ही नहीं,
पग-पग अपमानित होकर भी कैसे जिया होगा.

                                         

                                                                                आरती लोहनी

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