साहित्य चक्र

05 September 2017

* मैं एक पेड़ हूँ *

आरती लोहनी


मैं एक पेड़ हूँ।
सीधा तन कर सड़क किनारे खड़ा।
धूप हो तो छांव देता।
बारिश मैं भी सहारा देता।

गर्व था अपने सीधे खड़े होने पर।
अभिमान था हृष्ट पुष्ट होने पर ।
पर घमंड क्या टिका किसी का?
खत्म हुआ मद मेरा भी।

जब देखा मेरा सौदा हो रहा है।
सबसे महंगा बिका विकास के बाजार में।
सहसा स्मरण हो आया बचपन।

जब मुझे रोपा गया।
खाद पानी ही नहीं ।
बड़े प्रेम से लगाया गया।
अकेला नहीं था मैं।

नाते-रिश्तेदार भी थे संग मेरे।
पूरी बिरादरी थी आस-पास मेरे।
इसी ख़ुशी मैं फलता गया।

सगे-संबंधियों से अधिक तेजी से बढ़ गया।
बस यही मेरी चूक थी,
शायद यही मेरा गुनाह भी।।


* आरती लोहनी  *

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